डा. रामनरेश त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य
निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी
प्रयाग: ज्योतिष पीठ शंकराचार्य आश्रम
अलोपीबाग ने देश को दिए महान संत
आदि शंकराचार्य 16 वर्ष की अवस्था में अर्थात युधिष्ठिर संवत 2647 में प्रयाग की धरती पर आए थे, वह भी कुमारिल भट्ट से शास्त्रचर्चा करने के लिए। संयोग था कि उस समय गुरु घात के कारण वे तुषाग्नि में समाधि ले रहे थे। आचार्य शंकर उनसे शास्त्रार्थ नहीं कर सके और उनकी परामर्श पर वह महिष्मती उनके शिष्य मंडन मिश्र से शास्त्रार्थ करने के लिए चले गए थे। चार पीठों की स्थापना के अंतर्गत आदि शंकर ने भगवान बद्री विशाल की प्रतिष्ठापना के साथ ही ज्योतिष पीठ की स्थापना की। उनका एक आश्रम प्रयाग के अलोपी बाग में स्थापित हुआ और यह ज्योतिषपीठ बद्रिका आश्रम के नाम से जाना गया। क्यों स्थापित हुआ ? इसके पीछे संभवतः एक ही कारण हो सकता है कि चारों पीठों की स्थापना की सार्थकता तब ही संभव है, जब उसका संबंध तीर्थराज प्रयाग की धरती से हो। इसीलिए चारों पीठों के शंकराचार्य ने भी अपने अलग-अलग यहां आश्रम स्थापित किए।
ज्योतिष पीठ का आश्रम एक लंबे अरसे 165 वर्ष तक रिक्त रहा। कोई भी आचार्य इस पीठ पर स्थापित नहीं किया जा सका। इतने वर्ष के बाद ब्रह्मानंद सरस्वती महाराज ने इस आश्रम का जीर्णोद्धार किया और उसमें 1 अप्रैल 1941 को काशी के विद्वानों द्वारा उन्हें भारत के संपूर्ण शंकराचार्य की सहमति के आधार पर प्रतिस्थापित किया गया। स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती शंकराचार्य पद के इच्छुक नहीं थे और उन्होंने स्पष्ट कहा था ” जंगल में विचरण करते हुए शेर को आप लोग बांधना चाहते हैं! “परंतु विद्वानों के अनुरोध पर उन्हें इस पद को स्वीकार करना पड़ा।
ब्रह्मानंद सरस्वती
ब्रह्मानंद सरस्वती एक कुलीन ब्राह्मण परिवार में पैदा हुए थे और बचपन से ही उनमें आध्यात्मिक गुणों का समावेश था। वे जब 7 वर्ष के थे तभी अकस्मात परिवार में दादा का निधन हो गया। उन्हें भारी आघात पहुंचा और घर से विरक्ति ले ली। एक बार घर से गायब होने के बाद पुलिस ने तलाश कर उन्हें पुनः घर वापस कर दिया, परंतु उनका मन घर में नहीं रम सका और वे आध्यात्मिक चेतना की तलाश में पुनः घर से अनुमति लेकर निकल पड़े। 9 वर्ष की उम्र में उन्होंने घर बार छोड़ दिया।
बचपन का उनका नाम राजाराम था। वे राजा राम और योगीराज के नाम से जाने जाते थे। महापुरुष कभी जन्म नहीं लेता वह अजन्मा होता है, बस किसी न किसी रूप में शरीर अवश्य धारण करता है। राजाराम अपने गुरु की तलाश में हिमालय की ओर चल पड़े और वहां गहन अध्ययन एवं गुरु की खोज जारी रही।
14 वर्ष की अवस्था में वह उत्तरकाशी में कृष्णानंद सरस्वती के शिष्य बने और उनके सानिध्य में रहकर उन्होंने शिक्षा-दीक्षा प्राप्त की। उस आश्रम में वे ब्रह्मचैतन्य ब्रह्मचारी के नाम से जाने गए।
उनकी आध्यात्मिक चेतना दिन-प्रतिदिन मुखर होती गई। गुरु कृष्णानंद सरस्वती से दीक्षित होने के बाद वे लगभग 25 वर्ष तक एक गुफा में तपस्या करते रहे। वे सप्ताह में एक दिन अपने गुरु से मिलने के लिए आते थे। उसके पश्चात वह गुरु के साथ रहने लगे।
34 वर्ष की अवस्था में कुंभ के अवसर पर प्रयाग मैं उन्हें विधिवत दीक्षा गई और उनका नामकरण ब्रह्मानंद सरस्वती के रूप में हुआ। यही ब्रह्मानंद सरस्वती वेदों के मर्मज्ञ, श्री विद्या के उपासक और ज्ञान के अनंत भंडार के रूप में जाने जाते रहे।
कालांतर में उन्हें 1941 में शंकराचार्य पद पर अलंकृत किया गया और वह प्रयाग के अलोपीबाग आश्रम तथा बद्रिका आश्रम ज्योतिष पीठ आश्रम में रहकर आदि शंकराचार्य के कार्यों को पूरा करने की दिशा में अग्रसर रहे।
ब्रह्मानंद सरस्वती राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तथा सर्वपल्ली राधाकृष्णन के बहुत निकट थे और वे उन्हें वेद पुरुष के रूप में सम्मान देते थे। लगभग 11 वर्ष तक उन्होंने शंकराचार्य के दायित्व का निर्वाह किया। कालांतर में उनका अलोपी बाग़ और ज्योतिर्मठ उत्तर भारत में महान संतों के प्रादुर्भूत होने का एक केंद्र बन गया। यहां से एक के बाद एक संत निकलते चले गए जिन्होंने आध्यात्मिक चेतना के विकास में अपना महान योगदान दिया। बस यहीं से शुरू हो जाता है उत्तर भारत में शंकराचार्य की विरासत को आगे बढ़ाने का सिलसिला। इस आश्रम से अनेक प्रसिद्ध विद्वान संत निकल कर आए जिन्होंने आदि शंकर के गौरव को काफी ऊंचाई तक पहुंचाया।
करपात्री जी महाराज
करपात्री जी महाराज इसी आश्रम की देन हैं। उनका जन्म 1907 ईस्वी में तथा निधन 1982 ईस्वी में हुआ था। करपात्री जी का जन्म प्रतापगढ़ के भटनी ग्राम मैं सरयूपारीण ब्राम्हण ओझा परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम राम निधि ओझा तथा माता का नाम शिवरानी देवी था। उनका बचपन का नाम हरिनारायण रखा गया और ओझा परिवार के कारण हरि नारायण ओझा कहलाए। करपात्री जी 9 वर्ष की उम्र में वैवाहिक जीवन में प्रवेश कर गए थे। भारत में उस समय बाल विवाह की प्रथा थी इसलिए अल्प आयु में ही वैवाहिक कार्य संपन्न कर दिए जाते थे। उनका विवाह महादेवी नाम की कन्या से कर दिया गया था। वे एक पुत्री के पिता भी थे। उनका मन गृहस्थ जीवन में बिल्कुल नहीं लग रहा था और उन्होंने कई बार घर छोड़ने का प्रयास किया।
उनकी शिक्षा-दीक्षा के अंतर्गत नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पंडित जीवन दत्त तथा षड्दर्शन आचार्य स्वामी विश्वेश्वर आश्रम जी महाराज पंजाबी बाबा अच्युत मुनिके द्वारा हुई। वे खडदर्शन के प्रकांड विद्वान थे। 17 वर्ष की आयु में उन्होंने ब्रह्मानंद सरस्वती से प्रयाग में नैष्टिक ब्रह्मचारी की दीक्षा ग्रहण की और हरिहर चैतन्य ब्रह्मचारी के स्वरूप में जाने गए। 24 वर्ष की अवस्था में दंड धारण किया। उसके बाद वह अभिनव शंकर के रूप में प्रतिष्ठित हुए। नर्मदा के उत्तर तट परश्री विद्या की दीक्षा लेने के बाद उनका नाम षोडशानंद नाथ पड़ा। वह अपने समय के प्रकांड विद्वान माने जाते। वे अत्यंत कुशाग्र बुद्धि के थे। उनकी स्मरण शक्ति बहुत ही तेज थी। एक बार अगर किसी चीज को पढ़ लेते तो तुरंत कंठस्थ हो जाता था।
भारत की संन्यास परंपरा रही है। “करतल भिक्षा तरु तल वास:” अर्थात हाथ में भीक्षा प्राप्त करना, उसी से उदर पूर्ति और किसी गांव बस्ती में न रहकर वृक्ष के नीचे जीवन व्यतीत करना, यही संन्यासी का धर्म माना गया है। वे इसी धर्म का पालन कर रहे थे। करपात्री जी एक बार हाथ में भिक्षा मांगकर प्राप्त करते, फलस्वरूप उनका नाम करपात्री पड़ा। 17 वर्ष की आयु में वे हिमालय की यात्रा पर नि कले और अनेक गुफाओं तथा संतों के सानिध्य के पश्चात कालांतर में काशी आकर उन्होंने धर्म संघ के स्थापना की। उन्होंने अपने संत जीवन में कठिन तपस्या की सूर्य के गमन गति को मापने के लिए एक कील रखकर एक पैर पर गंगा के तट पर खड़े रहते और पुनः 24 घंटे होने पर दूसरे पैर के बल खड़े होते। ऐसी कठिन साधना बहुत कम देखने को मिलती है।
वह अद्वैत दर्शन के प्रकांड विद्वान थे। उन्होंने 1942 में राम राज्य परिषद की स्थापना की और 1952, 57 और 62 के चुनाव में उन्होंने इस पार्टी से चुनाव लड़ाया। उन्हें सफलता भी मिली। वह गौ भक्त संन्यासी थे। इंदिरा गांधी ने उन्हें गौ हत्या बंद करने का वचन दिया था, परंतु कम्युनिस्टों के बहकावे में ऐसा नहीं किया। इसके विरोध स्वरूप करपात्री जी ने 1966 में एक जबरदस्त आंदोलन किया। दिल्ली में सारे देश के संत इकट्ठे हुए और उन पर लाठियां भी बरसाई गई और एक महात्मा 166 दिन अनशन के बाद मृत्यु को प्राप्त हुए। फलत: तत्कालीन गृहमंत्री गुलजारी लाल नंदा को त्यागपत्र देना पड़ा।
ऐसे महान संत थे करपात्री जी महाराज, जो प्रयाग की देन थे। उनकी अनेक रचनाएं आज भी उनकी विद्वता और शास्त्र की प्रामाणिकता को स्पष्ट कर रही हैं। उनकी शिष्य परंपरा काशी तथा देश-विदेश के अन्य भागों में आज भी विद्यमान हैं।
महेश योगी
हिमालय पुत्र के नाम से जाने जाने वाले महेश योगी का जन्म 12 जनवरी 1918 को छत्तीसगढ़ के राजिज शहर के पास स्थित पांडुका ग्राम में हुआ था। उनके पिता का नाम राम प्रसाद श्रीवास्तव था जो राजस्व विभाग में कार्यरत थे। परंतु उनका स्थानांतरण जबलपुर के लिए हो गया था, जहां महेश प्रसाद जी की प्रारंभिक शिक्षा दीक्षा हुई। कालांतर में 1942 में उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक की उपाधि अर्जित की। ऐसा कहा जाता है कि वह कुछ दिन के लिए जबलपुर के गन फैक्ट्री में वरिष्ठ लिपिक के पद पर भी कार्यरत रहे हैं। अंततःउन्हें भी प्रयाग की अध्यात्मिक चेतना खींच कर ले आई। उन्होंने प्रयाग में ब्रह्मानंद सरस्वती के सानिध्य में रहकर 13 वर्ष तक धर्म शास्त्रों का अध्ययन किया और बाद में उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।
महेश जी ब्रह्मानंद सरस्वती के बड़े विश्वासपात्र शिष्यों में से थे, परंतु वह उनका स्थान नहीं ले सकते थे क्योंकि वह ब्राह्मण जाति के नहीं थे। इसलिए वे महेश योगी की उपाधि से अलंकृत हुए और बाद में इसी नाम से संपूर्ण विश्व में प्रसिद्धि पाई और विश्व के अनेक भागों में उन्होंने प्रयाग की धरती तथा भारतवर्ष के नाम को रोशन किया।
इन्होंने वैदिक संस्कृति, वेदाध्ययन और वेदों में योग तथा भावातीत ध्यान के लिए अभूतपूर्व कार्य किया। स्विट्जरलैंड में महर्षि विश्वविद्यालय की स्थापना की। लाखों लाखों विदेशी इनसे प्रभावित हुए और इनके शिष्यत्व को ग्रहण किया। 1957-58 में उन्होंने आध्यात्मिक पुनरुत्थान का कार्य शुरू किया था और 1960 में अपने गुरु के आदेश के पशचात पाश्चात्य देशों में भारतीय संस्कृति का झंडा लहराने के लिए प्रस्थान किया और लगभग 200 देशों में भावातीत ध्यान योग के केंद्र स्थापित किए। लगभग 30 वर्षों के भ्रमण के पश्चात उन्होंने विश्व के अनेक देशों में अपनीआध्यात्मिक सत्ता को प्रतिस्थापित किया। स्विट्ज़रलैंड, न्यूयॉर्क, ऋषिकेश आदि कई स्थानों पर शंकराचार्य नगरों की स्थापना की। नीदरलैंड स्थित मुख्यालय को भी अंतरराष्ट्रीय रिसर्च विश्वविद्यालय के रूप में परिवर्तित किया।
उन्होंने अपने जीवन काल में 40,000 से अधिक वैदिक शिक्षकों को तैयार किया और 5 मिलियन विद्यार्थियों को वैदिक शिक्षा से ओतप्रोत किया। उनका एक विशाल महर्षि आश्रम प्रयागराज के नैनी में आज भी स्थापित है। उन्होंने नोएडा में एक आयुर्वेदिक विश्वविद्यालय की स्थापना की। अनेक स्कूल कॉलेज की भी स्थापना के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं, चैनल तथा नेट के माध्यम से भावातीत ध्यान तथा वेदों में किए गए शोध कार्य को संपूर्ण विश्व में प्रचारित किया।
उनका सर्वाधिक योगदान वैदिक विद्वानों को तैयार करने में रहा। लाखों की संख्या में ब्राम्हण विद्यार्थियों अथवा वेद की शिक्षा के इच्छुक विद्यार्थियों को वे अपने आश्रम में रखकर वैदिक शिक्षा देते और पुनः उनको विदेशों में भेजकर वहां वैदिक कर्मकांड एवं शिक्षा का प्रचार प्रसार करते। आज भी लाखों की संख्या में वैदिक विद्यार्थी महर्षि का नाम स्मरण कर अपनी जीविकोपार्जन के साथ-साथ भारतीय संस्कृति विशेषकर वैद कर्मकांड औरध्यान योग की साधना में लगे हुए हैं।
शांतानंद सरस्वती
स्वामी शांतानंद सरस्वती भी इसी प्रयागराज के शंकराचार्य आश्रम की देन हैं। वह भी ब्रह्मानंद सरस्वती के प्रिय शिष्यों में से थे, जिन्होंने बाद में 1953 से लेकर 82 तक ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य के रूप में पद को सुशोभित किया। शांतानंद जी यथा नामा तथा गुणा: जैसा नाम वैसा ही गुण, वाले संत थे। बहुत ही शांत प्रकृति के और उनकी गणना एक उच्च कोटि के संत और विद्वान शंकराचार्य में की जाती रही है।
उनका जन्म 16 जुलाई 1913 में बस्ती जिले में हुआ था। 1997 में वह ब्रह्मलीन हुए। लगभग 106 वर्ष तक वह इस धरा धाम में रहकर सनातन धर्म का प्रचार प्रसार करते रहे। शांतानंद जी का एक अद्भुत व्यक्तित्व था। उन्हें उनके गुरु भाई महेश योगी ने कई बार विदेश आने का आमंत्रण दिया। बहुत आग्रह के बाद उन्होंने विदेश यात्रा की और रूस जैसे देश में जाकर वहां के लोगों को काफी प्रभावित किया। विदेश यात्रा से वापस आने के बाद वे बहुत अधिक संतुष्ट नहीं दिखे। उन्हें लगा कि हमारी मातृभूमि, हमारा देश भारत संपूर्ण विश्व से सर्वोपरि है। शांतानंद जी ने इस पीठ के विवाद को देखते हुए अपने जीवन काल में ही अपनी एक वसीयत लिख दी थी जिसके तहत उनके स्थान पर स्वामी विष्णु देवानंद और बाद में स्वामी वासुदेवानंद जगद्गुरु शंकराचार्य के रूप में प्रतिस्थापित हुए। परंतु स्वरूपानंद जी से विवाद के चलते इस पीठ में अभी भी असमंजस की स्थिति बनी हुई है और स्वरूपानंद जी शारदा पीठ और ज्योतिष पीठ दोनों के शंकराचार्यबनकर विराजमान है।
स्वरूपानंद
स्वरूपानंद भी प्रयाग की ही देन कहे जा सकते हैं और आज भी वे ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य होने का दावा कर रहे हैं। उन्होंने भी ब्रह्मानंद सरस्वती से 1950 में कलकत्ते में पौष सुदी एकादशी को दंडी संन्यासी की दीक्षा ग्रहण की थी। उनका जन्म सन् 1924 में 2 दिसंबर, संवत 1982 में मध्य प्रदेश के सिवनी जिला जबलपुर के समीप दिघोरी गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम धनपत उपाध्याय तथा मां का नाम गिरजा देवी। बचपन में उनका नाम पोथी राम उपाध्याय रखा गया था। 9 वर्ष की अवस्था में ही उन्होंने भी अपने घरबार को छोड़ दिया और काशी में करपात्री जी महाराज से शिक्षा दीक्षा प्राप्त की। 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने भाग लिया जिसके तहत उन्हें छह माह की सजा भुगतनी पड़ी। स्वतंत्रता आंदोलन में उन्होंने एक आंदोलनकारी संत की भूमिका अदा की और काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आंदोलनरत होने के आरोप में भी उन्हें सजा मिली। 19 वर्ष की अवस्था में वे वेद वेदांग का अध्ययन करते हुए अनेक संतों के सानिध्य में रहे। 1981 में उन्हें शंकराचार्य पद पर अलंकृत किया गया।
वर्तमान में उनकी आयु लगभग 95 वर्ष की हो चुकी है अभी भी वह सक्रिय रूप से सनातन धर्म के प्रचार-प्रसार में योगदान दे रहे हैं।
डा० रामनरेश त्रिपाठी, प्रयागराज
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