डा. रामनरेश त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य
निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी
प्रयाग माहात्म्य
नाऽम् मनुष्यो न च देव यक्षो……..
ब्रह्म वेत्ता योगी सम्राट पूज्य देवराहा बाबा ने 19 जून 1990 मैं अपने भौतिक शरीर का त्याग कर दिया परंतु सूक्ष्म रूप से विश्व कल्याण के लिए वे अभी भी हम सबके बीच हैं। वे कहा करते थे, “बच्चा मैं जिवों के कल्याण के लिए हमेशा सूक्ष्म रूप में विद्यमान रहूंगा।”
पूज्य बाबा प्रयाग में न तो जन्में थे और न ही उनका कोई स्थाई आश्रम था परंतु ऐसा लगता था कि प्रयाग से उनका जन्म जन्मांतर का नाता था।। वह हमेशा कुम्भ-अर्ध कुम्भऔर कभी-कभी माघ मेले में आते रहते थे। पूज्य बाबा में अद्भुत शक्ति थी। उनके जीवन की अनेक घटनाएं भारत के आध्यात्मिक जगत एवं सनातन धर्म के लिए अनुकरणीय हैं।
सन 1954 का प्रयागराज में कुंभ मेला लगने वाला था और पूज्य बाबा से आने के लिए अनुरोध किया गया था। भक्तों में अति उत्साह था कि पूज्य बाबा तीर्थराज प्रयाग के ऐतिहासिक कुंभ मेले में पधारेंगे। इस समाचार से सभी बड़े प्रसन्न और आनंदित हो रहे थे। लोग चाहते थे कि बाबा को कुंभ मेले में आमंत्रित कर उनकी एक महती शोभायात्रा निकाली जाय और राजकीय सम्मान के साथ उन्हें लाया जाए। पूज्य बाबा के स्वागत में देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद उत्तर प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी, डॉक्टर संपूर्णानंद, श्री लाल बहादुर शास्त्री चंद्रभान गुप्ता आदि पधारे थे। वे महाराज जी के स्वागत में बड़ी उत्सुकता से प्रतीक्षा में थे। पूज्य बाबा का मंच झूसी की ओर दारागंज के पीपे के पुल से उस पार जाकर गंगा जी के तट पर निर्मित था।
प्रायः उनका मंच उसी पार लगा करता था। सभी बड़े उत्सुक थे कि बाबा आएंगे और वे उनका जोरदार स्वागत करेंगे। परंतु इसके विपरीत कुछ उल्टा ही हुआ। सहसा लोगों ने देखा कि किसी को सूचना भी नहीं और बाबा मंच पर विराजमान हो गए। किसी ने देखा भी नहीं कि वह किधर से आए, कब आए और अकस्मात मंच पर प्रकट हो गए। स्वागत की सारी तैयारी बेकार हो गई। परंतु महाराज जी के मेले में आने का समाचार पूरी तरह से सर्वत्र फैल गया और भारी संख्या में भक्तों का समूह उनके दर्शन के लिए आने लगा। बाबा के हाथों कई ऐतिहासिक कार्य होने थे।
उस समय के संत तुल्य राजनीतिक नेता 9 दास टंडन को भारतीय संस्कृत सम्मेलन का उद्घाटन करना था। उसी में देशरत्न डॉ राजेंद्र प्रसाद जी और पूज्य बाबा का उपदेश होना था लगभग 500 छात्राओं ने शंख ध्वनि करके इस सम्मेलन का शुभारंभ किया और मधुर मंगल गान से सम्मेलन का शुभारंभ हुआ। डॉ राजेंद्र प्रसाद जी द्वारा पूज्य बाबा का पूजन कार्यक्रम शुरू हुआ। डॉ राजेंद्र प्रसाद जी ने महाराज जी का पूजन करने के लिए मंच के पास पधारे। महाराज जी के विधिवत पूजन के बाद जब राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद को बाबा ने आशीर्वाद दिया तो गगन स्पर्शी जय जयकार के घोष से सारा वातावरण व्याप्त हो गया बड़े ही उच्च स्तर पर यह कार्य संपन्न हुआ। इसके बाद और भी कितने ही समारोह महाराज जी के आशीर्वाद से संपूर्ण हुए।
इसी क्रम में वैष्णो सम्मेलन का भी अपना पृथक महत्व था। मूर्धन्य श्री वैष्णव संत श्री स्वामी वीर राघवाचार्य जी महाराज सहित प्रायः उत्तर भारत के समस्त श्री वैश्णव संत महात्मा वहां उपस्थित थे और सभी का आग्रह था कि समारोह में योगेश्वर श्री देवराहा बाबा जी महाराज दर्शन दें। तदनुसार महाराज जी इस सम्मेलन में पधारे। सम्मेलन में गोवर्धन पीठ वृंदावन के ब्रम्हचारीचारी स्वामी रघुनाथाचार्य जी को जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य जी की उपाधि से अलंकृत करना था। श्री महाराज जी के द्वारा ही यह कार्य होना चाहिए ऐसा लोगों का आग्रह था। परिणाम स्वरूप श्री बाबा इस सम्मेलन में भी पधारे।
श्री वैष्णो का अपार आनंद और अद्भुत स्वागत देखते ही बना। श्री महाराज जी का पूजन विधिवत संपन्न हुआ उसके पश्चात स्वामी रघुनाथाचार्य जी को जगद्गुरु श्री रामानुजाचार्य पद पर श्री बाबा ने अभिषेक किया। जगतगुरु स्वामी रघुनाथ आचार्य जी का अपना विशिष्ट महत्व है। इन के शिष्यों की संख्या पूरे भारत में कई लाख है। इनका व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक और तपो मय है ।श्री महाराज जी के द्वारा उनको यह पद प्रदान किए जाने से उनमें और उच्चता प्राप्त हुई और उन्होंने धर्म और संसकृति की सेवा के साथ-साथ संत परंपरा की अभिवृद्धि की।
पूज्य बाबा की राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन पर बड़ी कृपा थी। वह बाबा के बड़े ही कृपा पात्र थे। राजनीति राष्ट्र सेवा में लगे होने के साथ ही साथ वह एक महर्षि के तुले थे, इसलिए बाबा ने उन्हें राजर्षि की उपाधि से अलंकृत किया था। राजर्षि टंडन का चरित्र ज्ञान देश भक्ति राष्ट्र निष्ठा के लिए समर्पित था। इसलिए उन पर बाबा की असीम दया थी। बाबा यह भली-भांति जानते थे कि वह एक सन्त तुल्य हैं।
टंडन जी उस समय कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष थे और कट्टर आदर्शवादी राजनीति के अगवा माने जाते थे। टंडनजी का व्यक्तित्व श्रेष्ठ एवं निर्विवाद था, इसलिए उन्हें हिंदू मुसलमान-सिख-इसाई सभी समान रूप से आदर देते थे। नैतिकता-सदाचार-आदर्शवाद आज उनके लक्ष्य बड़े ही उच्च थे। टंडन जी ने देवरिया गोरखपुर आदि जनपदों का अपना कार्यक्रम बनाया और श्री महाराज जी के आश्रम पर आने की तिथि भी निश्चित की थी। लाखों लोग इस आयोजन के लिए सरयू तट पर उमड़ पड़े थे। टंडन जी जिस समय सरयू तट पर पहुंचे उन्हें अपार जनसमूह दिखाई दिया। वह परम प्रसन्न थे। उपस्थित विद्वानों ने स्वस्तिवाचन पूर्वक अभिषेक किया। महाराज जी ने उन्हें राजर्षि पद से अलंकृत किया। चारों ओर से श्री महाराज जी की जय जय की ध्वनि होने लगी। तत्कालीन जगतगुरु शंकराचार्य पद पर प्रतिष्ठित श्री ब्रह्मानंद जी सरस्वती ने जो श्री करपात्री जी के गुरु थे, टंडन जी की उपाधि का अनुमोदन किया। लखनऊ में राजर्षि का अभिनंदन करने वाले लोगों में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी थे। इस प्रकार का सम्मान राजनीति में आदर्श और नैतिकता का ही सम्मान बन गया। राजर्षि के रूप में प्रसिद्ध हो गए, यह अद्भुत देन पूज्य श्री चरणों की ही थी।
श्रीपाद दामोदर सातवलेकर का नाम किसने नहीं सुना, अर्थात इनका नाम सर्वविदित है। सभी जानते हैं कि महाराज जी का पावन तत्व स्थल, जो कि अब श्री देवराहा बाबा आश्रम के नाम से विश्व प्रसिद्ध हो चुका था, सरयू तट पर एकांत में अवस्थित यहां महाराज जी के दर्शन के अतिरिक्त और किसी भी प्रकार का कोलाहल नहीं रहता था। परंतु 1962 का वर्ष इस दृष्टि से अपवाद स्वरूप ही माना जाएगा जबकि विश्व भर के विद्वान विचारक जननेता प्रशासक तथा अधिकारी गण यहां पहुंचने लगे और जनता की अपार भीड़ सहसा यहां उमड पड़ी। इस स्थान पर उस समय बड़े ही महत्वपूर्ण आयोजन चल रहे थे। आश्रम पर राधे श्याम मंदिर की प्रतिष्ठा का महोत्सव और उस के उपलक्ष में होने वाला यज्ञ अपना प्रथक महत्व रखता था।
इसके अतिरिक्त पंडित मदन मोहन मालवीय के जन्मशती महोत्सव में विश्व भर से अनेक विद्वान आए हुए थे और इसी समय वेद के विलक्षण विद्वान महा मनीषी श्रीपाद दामोदर सातवलेकर जी का आश्रम में आगमन हुआ। वैदिक ग्रंथों तथा प्रामाणिक रचना के द्वारा श्रीपाद दामोदर जी देश के विद्वानों में अपना स्थान बना चुके थे। 105 वर्ष की दीर्घायु मे शरीर छोड़ने वाले विद्वान जीवन भर वेदों का उद्घोष करते रहे। उन्होंने यह प्रमाणित कर दिया कि विद्वानों का समागम देश के ही सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्ता का द्योतक है और श्री देवराहा बाबा उसकी दिव्य आभा हैं। श्री महाराज जी ने इन्हें भी उपाधि से विभूषित किया। इस कृपा से और इस संबंध में जो उन्होंने अपने उद्गार प्रकट किए वे हृदय स्पर्शी हैं।
उन्होंने कहा मैं अपनी दीर्घायु में देशभर में सुप्रसिद्ध साधु महात्मा योगियों के सानिध्य में आया हूं। आज मैं केवल स्थान प्राप्त कर आनंद गौरव अनुभव कर रहा हूं। मेरा जीवन वैदिक मंत्रों के अनुसंधान में लगा था, परंतु वेद के साथ करता क्यों के दर्शन नहीं कर पाया था। आज मैं ऐसे महापुरुष के सम्मुख हूं जो वैदिक ऋषि यों की गरिमा से अपने आपको मैं अनुभव करता हूं। यह विचार थे सातवलेकर जी के।
विश्व संस्कृत सम्मेलन का समागम एक अद्भुत समागम संगम के तट पर था। इस विराट संस्कृत सम्मेलन के अध्यक्ष पूज्य देवराहा बाबा से सम्मेलन में उपस्थित होकर आशीर्वचन कहने की प्रार्थना कीगई, जिसे बाबा ने स्वीकार कर लिया। 20 फरवरी 1965 को निर्दिष्ट समय पर पधार कर श्री बाबा ने उस पुण्य भूमि को सुशोभित किया। श्रीहरि स्मरणम के साथ अमृतवाणी आरंभ हुई चारों वेद स्मृति दर्शन 18 पुराण उपनिषद पाणिनीय व्याकरण आदि मुख्य शास्त्रों और काव्यांश वर्णित करते हुए श्री बाबा ने संस्कृत भाषा की महत्ता स्पर्श की। कहां वेद आदि शकल शास्त्रों की संस्कृत ही कुंजी है। संस्कृत भाषा को अपनाने से ही सारे ज्ञान का मार्ग सुगम हो सकता है। जब श्री बाबा ने सामवेद के 1 अध्याय के कुछ मंत्रों का उल्लेख किया तब विद्वान श्रोता गण स्तब्ध हुए क्योंकि अध्ययन सागर के ऐसे रत्न सैकड़ों वर्ष मनन चिंतन के बाद भी दूर रहते हैं।
महाराजने ब्रह्मचर्य पर प्रकाश डालते हुए उपदेश किया “ब्रह्मचर्य से ही परमहंस मे स्थित सूर्य के प्रकाश में सरस्वती का दर्शन संभव है।”
पूज्य बाबा साक्षात रूद्र के अवतार थे और संपूर्ण शास्त्र उनकी जिह्वा पर था। वह विश्व कल्याण के लिए परमात्मा द्वारा भेजे गए थे और योगी स्वरूप आध्यात्मिक चेतना के केंद्र बन कर संपूर्ण विश्व को आलोकित करते रहे।
वे ब्रह्मलीन अवस्था को प्राप्त थे। आयु के बारे में पूछे गए प्रश्न के उत्तर में बाबा ने कहा था, “बच्चा, मेरी ब्रह्मलीन अवस्था है। मैं हमेशा उदड्यानबंध में रहता हूं और यह बंध एक ऐसी बंध है जो मृत्यु पर उसी प्रकार झपट्टा मारती है जैसे शेर हाथी पर। इस मुद्रा से योगी की प्रतिदिन एक पहर आयु बढा करती है
“उड्यान हि सा बंधो मृत्य मातंग केसरी”
वह 19 जून 1990 को वृंदावन में योगिनी एकादशी के दिन ब्रह्मलीन हुए। उनकी प्राण वायु ब्रह्मांड से होकर निकली। पंचधा प्राणवायु में योगियों की प्राण वायु सहाश्रार से हो कर निकलती है।वृंदावन साक्षात राधा और कृष्ण की जन्म और लीला भूमि है। बाबा कहा करते थे बच्चा” मेरी उत्पत्ति जल से हुई है” और उन्होंने जल में ही समाधि ले ली। कृष्णप्रिया यमुना ने उन्हें अपनी गोद में ले लिया। ऐसे महापुरुष समय-समय पर ईश्वर द्वारा पृथ्वी पर भेजे जाते हैं ताकि मानव का कल्याण होता रहे। मेरे तो वे अनन्य थे लगभग 16 वर्ष मैं उन के सानिध्य में रहा। पूज्य देवराहा बाबा को कोटिश:नमन!!!
डा० रामनरेश त्रिपाठी, प्रयागराज
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