“प्रयागराज”
(प्रतिष्ठान पुर) की देन है चीन….!
डा. रामनरेश त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता
निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी
मस्तिष्क में प्रयागराज का चिंतन आते ही इसका अतीत अकस्मात झकझोर कर चला जाता है। इसके एक एक मुहल्ले, एक-एक गली एक-एक मकान की ईंटों में छिपा हुआ है। अभी भी इसके रहस्य धरती के गर्भ में छिपे हुए हैं। कभी-कभी वे मस्तिष्क में यह संदेश दे जाते हैं ‘ हम यहां पर हैं, कोई तो आकर हमें देख ले, ताकि आने वाली पीढ़ी के लिए हम एक प्रमाण बनकर समाज और देश के सामने आ सकें।
पहले प्रयाग या संगम
कितना प्राचीन है इस शहर का अतीत। कभी-कभी तो प्रश्न उठता है कि पहले प्रयाग आया या गंगा यमुना और अदृश्य सरस्वती का संगम? तीर्थराज प्रयाग के कारण इस शहर की महिमा है या फिर संगम के कारण ? यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर संभवतः इतना आसानी से दिया जाना संभव नहीं है। यदि हम दोनों के महत्व को साथ रखकर देखें तो शायद प्रयागराज के साथ न्याय होगा। त्रिवेणी संगम के कारण इस शहर की गरिमा है और यज्ञ भूमि होने, प्रजापति और विष्णु का क्षेत्र होने के कारण इस शहर की गौरव गरिमा बढ़ी है। जिस शहर की रक्षा 8 दिशाओं से भगवान विष्णु स्वयं कर रहे हों, जहां पर शक्तिपीठ के रूप में भगवती ललिता स्वयं विद्यमान हो, जहां सृष्टि से पूर्व प्रजापति ब्रह्मा ने दशाश्वमेध यज्ञ किया हो, जहां शिव के नाना रूप विद्यमान हो और जहां साक्षात् प्रलय में भी नष्ट न होने वाला ‘अक्षय वट’ संपूर्ण इतिहास का साक्षी हो, ऐसे शहर के सपूतों के लिए बस यही कहा जा सकता है कि अदृश्य सरस्वती के रूप में समय-समय पर आते रहे और भारतवर्ष को ही नहीं संपूर्ण विश्व को एक नूतन ऊर्जा का संदेश देते रहे।
प्रतिष्ठानपुर की देन
आज हजारों वर्ष बाद चीन और कोरोना के संबंध को जोड़कर बात होती है। आखिर कभी किसी ने सोचा, चिंतन किया कि इस चीन को जन्म देने वाला कौन है ?इसे जन्म देने वाला यही प्रयाग(प्रतिष्ठान) है, इसी प्रयाग की धरती से जुड़ा है चीन का संबंध। संगम के तट पर बसा वर्तमान झूसी, प्राचीन प्रतिष्ठानपुर और राजा पुरुरवा के एक पुत्र ने जाकर चीन को बसाया था ।आज भी चीन के इनसाइक्लोपीडिया में अंकित है, ‘भारत से नक्षत्र के पुत्र ने आकर के इस देश को बसाया था।
प्रतिष्ठान पुर की कहानी भी अजीबोगरीब है। वैवस्वत मनु ने पुत्र प्राप्ति के लिए यज्ञ किया। गुरु वशिष्ठ ने यज्ञ कराया और मनु की पत्नी ने होता से पुत्री के लिए संकल्प दिला दिया। फलतः इला नाम की पुत्री का जन्म हो गया। वशिष्ठ को चिंता हुई। यज्ञ हुआ पुत्र के लिएऔर जन्म हुआ पुत्री का! उन्होंने पुनः शिव की आराधना की और सब कुछ जान कर इला को पुत्र रूप में परिवर्तित कर पुत्र का नाम रखा सुद्युम्न । कालांतर में सुद्यम्न कभी शिकार खेलने के लिए निकले । शिव के श्राप से वे पुनः इला के रूप में परिवर्तित हुए और उन पर चंद्रमा पुत्र बुध मोहित हो गया और दोनों के संयोग से पुरुरवा का जन्म होता है और बस पुरुरवा से ही आरंभ होता है पुरु वंश का इतिहास। पुरुरवा और उर्वशी की कथा संस्कृत वांग्मय में सर्व विदित है। पुरुरावा के पुत्र थे, नहुष,व्रद्धशर्मा,रजी, गय। अन्य 9 पुत्रों के नाम हैं… अ यू, अमावसु, श्रु तायू, द्रढा यू, वि श्वाद, शतायु।
ययाति के पुत्रों का तो कभी संपूर्ण पृथ्वी पर शासन था।कालांतर में इन्हीं के वंशजों से इस्लाम, पारसी, क्रिश्चियन आदिका जन्म हुआ, और वे संपूर्ण यूूूूरोप और अफगानिस्तान में फैल गए । हिंदी-चीनी भाई-भाई का कोई गलत संदेश नहीं था, तकरार हो गई एक अलग बात है। 1962 का चीन युद्ध इसका प्रमाण है।
भारतीय संस्कृति का केंद्रबिंदु
प्रयागराज भारतीय संस्कृति का केंद्र बिंदु है। यहां पर सनातन धर्म पुष्पित पल्लवित हुआ है। ब्रह्मा के चारों पुत्र सनक, सनातन, सनंदन, सनतकुमार सभी ने वेदव्यास से शिक्षा पाई और सनातन धर्म के प्रवर्तक बने।
इस सनातन धर्म के कारण ही भारत कभी विश्व गुरु बना। तत्कालीन ऋषि केवल जटा जूट रखने वाले संन्यासी मात्र नहीं थे, वे एक उच्च कोटि के वैज्ञानिक थे और इन्होंने जो लोगों में संस्कार पैदा किया, वे संस्कार ही सृष्टि के लिए, संपूर्ण विश्व के लिए कल्याणकारी बने। भारतीय संस्कृति का संदेश रहा है, आचारो परमो धर्म:। सत्यम वद धर्मं चर स्वाध्यायात मां प्रमाद:, अर्थात सत्य पर चलो, धर्म का आचरण करो और स्वाध्याय के प्रति निरंतरता बनी रहे यही जीवन का मूल तत्व है।
मनीषियों ने हमें यही संदेश दिया है और जब तक भारत धर्म का आचरण करता रहा, तब तक संपूर्ण विश्व के गुरु रूप में प्रतिष्ठित रहा। परंतु धीरे-धीरे हम पाश्चात्य संस्कृति की तरफ उन्मुख होते गए और अपने वेदों, पुराणों, स्मृतियों तथा उनमें भरे पड़े अपार ज्ञान को भूलते चले गए। प्रातः उठना ब्रह्म मुहूर्त में उठकर परमात्मा की आराधना चिंतन अपने प्रतिदिन के कार्य के बारे में सोचना तदनुसार कार्य करना, माता पिता का सम्मान, गुरु का सम्मान घर परिवार के लोगों का सम्मान, यही तो भारतीय संस्कृति है। ब्राह्मण ज्ञान के प्रति समर्पित, क्षत्रिय का दायित्व समाज की रक्षा करना वही वैश्य वर्ग के लोगों द्वारा अर्थव्यवस्था के दायित्व को संभालना और अन्य वर्ग विशेष के द्वारा सबसे कठिन काम सेवा का कार्य करना था।
‘वेदों अंखिलो धर्म मूल:, हमारे वेद संपूर्ण धर्मों के मूल में है, यह सब कुछ हम भूल गए। हम अपनी वर्ण व्यवस्था को भूल गए अपने दायित्वों को भूल गए, जिसका परिणाम है हम भी तरह-तरह के रोगों से ग्रस्त होते जा रहे हैं। समाज रूग्ण होता जा रहा है। हमारे ऋषियों ने स्वस्थ समाज की परिकल्पना की थी और स्वस्थ समाज तभी संभव है जब हम अपने सनातन धर्म के अनुकूल चलें।
कोरॉना ने याद दिलाया
आज एक छोटी सी संक्रामक महामारी कोरोना चारों ओर व्याप्त है, विश्व के अनेक देश भयभीत हैं। अपने आप को असमर्थ समझ रहे हैं। संदेश दे रहे हैं कि प्रत्येक एक घंटे बाद साबुन से हाथ धोना, किसी के संपर्क में ना आना, दूरी बना कर रखना, स्पर्शास्पर्श से दूर रहना, अनेक लोग एक साथ न रहें और न ही जमात में इकट्ठा हो। घर में साफ सफाई रखें, कपड़ों को गर्म पानी से धोएं। यही तो हमारी संस्कृति रही है, यही तो ऋषि मुनि हमें संदेश देते रहे हैं।
प्रातः उठकर स्नान ध्यान पूजा पाठ करना, किसी का स्पर्श किया हुआ रास्ते का चला भोजन नहीं करना, दूरी बनाकर रखो, दृष्टि पुतं न्य षे द पादम,वस्त्र पू तम जलम पिवेत। देख कर के पैर रखना और कपड़े से छानकर पानी पीना। यही तो भारतीय संस्कृति का संदेश था। परंतु हम सब कुछ भूल गए और आज जब बीमारी सामने आई तो फिर से वही स्थिति, वहीं संदेश जो भारत का मूल तत्व है, उसी की ओर सरा विश्व भागता नजर आ रहा है।
योग करो व्यायाम करो शरीर की क्षमता को बढ़ाओ व्रत उपवास आदि को महत्त्व दो। तुलसी, नीम, गिलोय, काली मिर्च, हल्दी,हर्बल काढा आदि का प्रयोग करो, यही बात तो हजारों वर्षों से हमारे मनीषियों का चिंतन था।
‘ सिया राम मय सब जग जानी’
नेम धर्म आचार तप ज्ञान जग्य जप दान,भेषज पुनि कोटिन्ह नहि, रोग जाहि हरि जान।।
हमने हमेशा से विश्व को अपने से पृथक नहीं किया, इसी लिए हम विश्व गुरु थे।
मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में –
संसार को पहले हमी ने ज्ञान भिक्षा दान की-आचार की, व्यापार की, व्यवहार की, विज्ञान की।।
डाक्टर रामनरेश त्रिपाठी, प्रयागराज ९४१५२३५१२८