“बहुगुणा जन्म शताब्दी वर्ष 25 अप्रैल पर विशेष”
“हेमवती नंदन बहुगुणा के सपनों का भारत”
डा. रामनरेश त्रिपाठी, वरिष्ठ पत्रकार, ज्योतिषाचार्य एवं भारतीय संस्कृति के अध्येता
निदेशक भारतीय विद्या भवन, प्रयागराज एवं भरवारी
प्रयाग की माटी में कुछ तो है जो कहीं अन्यत्र नहीं है। यहां के त्रिवेणी संगम के जल में कोई ऐसी ऊर्जा तो है जो संपूर्ण विश्व को एक शक्ति एवं प्रेरणा प्रदान करती है। माघ, अर्ध कुंभ एवम् कुंभ की परंपरा में कुछ तो है, जो विश्व खिंचा चला आता है। यही कारण है कि समय-समय पर इस धरती में ऐसे सपूत पैदा होते या पल पोष कर बड़े हुए जिन्होंने विश्व के क्षितिज पर एक नई क्रांति पैदा की है। शिक्षा ,प्रशासन आध्यात्म एवम् राजनीति के प्रयागराज सदा सर्वदा से अग्रणी रहा है यहां के सपूतों की श्रंखला अनंत हैं जिसकी चर्चा हम करते रहेंगे।
परंतु इस माटी में उपजा एक ऐसा राजनीतिज्ञ जिसने गरीबी की दुनिया में जन्म लिया और प्रयाग की धरती में पल_पोष कर सारे देश और विश्व के राजनैतिक क्षितिज पर छा गया। यह नाम है स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा का। इनकी चर्चा हम इसलिए करने जा रहे हैं क्योंकि 25 अप्रैल 2020 को उसको इस धरती पर आए हुए 100 वर्ष पूरे हो चुके हैं और यह शताब्दी वर्ष की श्रंखला में उनके प्रति एक सम्मानजनक श्रद्धांजलि होगी।
भारत के राजनीतिक क्षितिज पर एक जाज्वल्यमान नक्षत्र की भांति चमकने वाले हेमवती नंदन बहुगुणा भारत की माटी से जुड़े हुए थे । उनके चिंतन में सपनों का एक भारत बसा हुआ था। वे भारतीय राजनीति को एक ऐसी मिसाल देना चाहते थे जो विश्व के चिंतन में सर्वोपरि हो। वे चाहते थे देश विश्व का एक अग्रणी देश बनकर उभरे और विश्व गुरु के चिंतन को प्रतिस्थापित कर सके । उनके मन में भारत के दलित वर्ग, असहाय, किसान, खेतिहर _मजदूर तथा श्रमिकों के प्रति अगाध श्रद्धा थी। वे देश में किसी को गरीबी रेखा के नीचे नहीं देखना चाहते थे । देश के वह शायद वे पहले नेता थे जो किसी दूरदराज के गांव के व्यक्ति द्वारा लिखे हुए पत्र का जवाब तत्काल दिया करते थे। किसी की बेटी, किसी की बहन और किसी के छोटे से भी छोटे उत्सव, दुख दर्द में हाथ बटाने वाला कोई अगर नेता उस जमाने में दिखाई देता था तो वह थे हेमवती नंदन बहुगुणा ।
भारत की प्राचीन चिंतन परंपरा रही है कि कोई भी युग पुरुष कभी जन्म नहीं लेता, वह ईश्वर प्रदत्त होता है। बहुगुणा के साथ भी यह उक्ति सच्चे अर्थों में चरितार्थ होती है। वे भी शायद एक देवदूत के रूप में आए थे । उनके पिता रेवती नंदन की पहली पत्नी अर्थात बहुगुणा जी की मां के कोई संतान नहीं थी परंतु देवी के प्रसाद स्वरूप हेमवती नंदन बहुगुणा का जन्म हुआ। उनकी मां देवी के दर्शनार्थ गई हुई थी। मां को पुजारी ने प्रसाद स्वरूप फल भेंट किए और उस फल का परिणाम एक बालक के रूप में प्रगट हुआ। बहुगुणा जी के पूर्वज कभी बंगाल से बद्रीनाथ की यात्रा पर आए थे। वे कुशल वैद्य थे। तत्कालीन रानी की सफल चिकित्सा के फलस्वरूप राजा ने वहीं रोक दिया और उन्हे बहुगुणा उपाधि से अलंकृत किया।
13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग का हृदय विदारक कांड और 25 अप्रैल 1919 को तत्कालीन पौड़ी जिले के बुधाणी गांव में एक बालक का जन्म, जिसका नाम रखा गया हेमवती नंदन। घर की परिस्थितियों से जूझते हुए देहरादून रहकर प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद इलाहाबाद आकर अपनी पढ़ाई शुरू की और विद्यार्थी जीवन काल में ही वे राजनीत के अग्रणी नेता बन गए ।वही समय था जब राजकीय इंटर कॉलेज में उन्होंने रणजीत पण्डित के साथ मिलकर छात्र सांसद का गठन किया और ब्रिटिश हुकूमत की जमकर खिलाफत की ।अपने अध्ययन काल के समय ही वे तत्कालीन अग्रणी नेता शांति के प्रतीक लाल बहादुर शास्त्री के संपर्क में आए और उनके राजनैतिक क्षितिज की एक ऊंचाई का दौर शुरू हुआ ।
1936 से लेकर 42 तक वे छात्र आंदोलन से जुड़े रहे और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जमकर हिस्सा लिया इलाहाबाद उस समय आजादी की लड़ाई में सर्वोपरि था, यहां का स्वराज भवन राष्ट्रीय राजनीति का केंद्र बिंदु था । महात्मा गांधी से लेकर सुभाष चंद्र बोस, लाल, बाल, पाल सहित जाने कितने देश के कर्णधार प्रयाग की धरती पर आते रहे है। हेमवती नंदन बहुगुणा उनके विचारों से प्रभावित होकर आगे बढ़ते रहें । प्रयाग वह शहर है, जहां पर सर अयोध्या नाथ पंडित मदन मोहन मालवीय, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, सर सुंदरलाल, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनगिनत महापुरुष देश के प्रति समर्पित थे । वे आजादी की लड़ाई में खुलकर हिस्सा ले रहे थे ।
नेहरू परिवार बराबर उस लड़ाई का हिस्सेदार था। पंडित मोतीलाल नेहरू उनके बाद विजय लक्ष्मी पंडित, जवाहरलाल नेहरू ये सभी इसी माटी की देन है। यह वह शहर है जहां शांति और क्रांति दोनों प्रकार के राजनेता उभर कर सामने आ रहे थे । एक ओर शहीद चंद्रशेखर आजाद जैसे क्रांतिकारी, जो चंद्रशेखर आजाद पार्क में नाटबाबर की गोलियों का शिकार होने से पूर्व ही गोली मारकर अपनी शहादत दी थी, आज भी वह पार्क 1927 में हुए इस शहादत का गवाह है।
हेमवती नंदन बहुगुणा अपने छात्र जीवन में एक क्रांतिकारी छात्र नेता की भूमिका अदा कर रहे थे । उसी समय उनके संपर्क में कमला बहुगुणा आई थी जो महिलाओं के लिए आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका अदा करने में लग गई थी। कमला जी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रामप्रसाद त्रिपाठी की पुत्री थी ।बहुगुणा के क्रांतिकारी जीवन का ही परिणाम था कि 1942 के आंदोलन में जिस समय ब्रिटिश हुकूमत ने जिला कचहरी पर छात्रों के जुलूस पर गोलियां बरसाई, उस समय बहुगुणा सबसे आगे थे। और जैसे ही उन्हें शूट करने का आदेश हुआ, शहीद लाल पदमधर आगे आ गए और गोली उनके सीने पर लगी और शहीद हो गए । आज भी इलाहाबाद विश्वविद्यालय के छात्र संघ भवन के सामने लाल पद्मधर उस क्रांतिकारी शहादत के प्रत्यक्ष गवाह के रूप में प्रतिमा स्वरूप विद्यमान है ।
बहुगुणा के क्रांतिकारी जीवन और राष्ट्रभक्ति को देखते हुए अंग्रेजों ने उन्हें जिंदा और मुर्दा पकड़ने के लिए ₹5000 का इनाम रखा था और वह किसी प्रकार उनके हाथ नहीं लगे। परंतु 1943 में दिल्ली की जामा मस्जिद के पास से वे गिरफ्तार हुए और 1945 में उनकी रिहाई हुई। नैनी केंद्रीय कारागार मैं जिस समय बहुगुणा बंद थे उस समय उन्हें यातना के फलस्वरूप प्लूरिशी हो गई थी जिसकी सूचना इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार पी डी टंडन ने जेल से पंडित विजय लक्ष्मी पंडित को दी और उन्होंने प्रयास कर उन्हें इलाज के लिए डॉक्टर भेजा और उनका स्थानांतरण सुल्तानपुर जेल के लिए हुआ। फलस्वरूप उनका जीवन बचा । ऐसे थे ये आजादी के लिए समर्पित क्रांतिकारी नेता।
बहुगुणा एक कांग्रेसी ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और सच्चे राष्ट्रभक्त थे । यह सब कुछ उन्हें इलाहाबाद की धरती से मिला था । देवभूमि उत्तराखंड में जन्म लेने वाले बहुगुणा का राजनैतिक कैरियर प्रयागराज की धरती से शुरू हुआ जो उस समय राजनीति का गढ़ था। आचार्य नरेंद्र देव, डॉ राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, आचार्य कृपलानी, सुचेता कृपलानी, चंदशेखर, नारायणदत्त तिवारी, राजमंगल पांडेय, बीपी सिंह जैसे राजनीतिज्ञों ने इसी धरती पर राजनीत की और पार्टियों के माध्यम से नए-नए प्रयोग किये।
प्रयाग की धरती वह धरती है जहां से भारतीय जनता पार्टी का भी उदय होता है गुरु गोलवलकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय में थे और उन्हें राष्ट्रीय स्वयंसेवक का दायित्व निर्वाह करने के लिए भेजने वाले महामना पंडित मदन मोहन मालवीय थे और प्रभुदत्त ब्रह्मचारी के अनुरोध पर गुरु जी ने तत्कालीन राजनीतिक क्षितिज पर उभरने वाले अटल बिहारी बाजपेई जैसे राजनेताओं को जनसंघ जैसी पार्टी में शामिल होने कीअनुमति प्रदान की थी। सच पूछिए इस धरती ने देश के निर्माण में जो योगदान दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता और देश का इतिहास लिखा जाए उसमें इलाहाबाद का नाम ना हो तो इतिहास ही अधूरा रह जाएगा। देश को पांच पांच प्रधानमंत्री तथा 6 भारत रत्न देने वाला एक मात्र शहर इलाहाबाद है।
1947 में देश आजाद हुआ । हेमवती नंदन बहुगुणा ट्रेड यूनियन के एक सक्षम नेता बने: छिवकी, बिजली घर, गवर्नमेंट प्रेस, जैसे प्रतिष्ठानों के वे नेता थे, मजदूरों की लड़ाई लड़ी। उनकी जिंदगी जमीन से जुड़ी हुई थी।बहुगुणा की गरीबी के वे दिन जब वे सायकिल का पंचर जोड़ कर खर्च चलाया करते थे। बहुगुणा जी एवं कमला जी खुद बताया करते थे, जब उनकी बेटी रीता बहुगुणा जोशी जो वर्तमान में सांसद हैं, जब वह पैदा हुईं, तब कमला नेहरू अस्पताल से उन्हें
घर लाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे। घर ले जाने के लिए बहुगुणा जी मुहूर्त का बहाना बनाते रहे। अंत में कमला बहुगुणा अपने कंगन बेंच कर बच्ची को घर लेकर आई।
1952 से लेकर वे लगातार कांग्रेस कमेटी के सदस्य रहे और कांग्रेस के कर्मठ कार्यकर्ता के रूप में उनकी गणना की जाती रही। वह एक आस्थावान व्यक्ति थे । पिता के अलावा वे राजनीति के पुरोधा कमलापति त्रिपाठी जी के पैर छुआ करते थे। सी बी गुप्ता जैसे राजनीति के महारथी को उन्होंने चुनाव में पराजित कर यह साबित कर दिया था कि वह एक राजनीतिज्ञ एवं कुशल कूटनीतिज्ञ नेता थे ।
उनकी दृष्टि भविष्य के भारत और भविष्य की राजनीति पर थी। कहा जाता है कि एक बार वे लखनऊ में जब पंडित गोविंद बल्लभ पंत मुख्यमंत्री थे, वह उस समय उनसे मिलने गए हुए थे और जब उनसे मिलकर वापस लौट रहे थे तो उनके कार्यालय में उनके बैठने के लिए खाली पड़ी कुर्सी को वे टकटकी लगाकर देखते रहे और जब लोगों ने पूछा कि आप इसे क्यों देख रहे हैं तो उन्होंने उस समय कहा था कि यह कुर्सी मेरे लिए है और एक दिन मुझे इस कुर्सी पर बैठना है । इतने दूरदर्शी थे हेमवती नंदन बहुगुणा।
बहुगुणा के बारे में एक बात स्पष्ट थी कि पहाड़ टूट सकता है लेकिन झुक नहीं सकता। जीवन में वह किसी के सामने झुके नहीं। यही कारण है कि 1975 में इंदिरा गांधी और संजय गांधी के हस्तक्षेप को लेकर उन्होंने अपने वसूलों से समझौता नहीं किया। वे बराबर अपने दृढ़ संकल्प पर अडिग रहें और 1977 में राजनीति के पुरोधा बाबू जगजीवन राम जैसे महारथी को कांग्रेस से अलग कर कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी बनाई और उससे 28 सीटें निकाली ।
यह बहुगुणा की ही हिम्मत थी जो उन्होंने उस समय के शीर्षस्थ नेतृत्व करने वाली इंदिरा गांधी के विरुद्ध बगावत की। इंदिरा गांधी ने १९८२ में गढ़वाल के चुनाव में उन्हें हराने की कोई कोर कसर नहीं छोड़ रखी। उस समय उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बी पी सिंह थे, परंतु बहुगुणा पराजित नहीं हुए और शेरे गढ़वाल के नाम से जाने गए। इंदिरा गांधी ने उनके मुख्यमंत्रित्व काल में उनके विरुद्ध अपने निकट के यशपाल कपूर को लगा रखा था जिसे उन्होंने राजनीत की हैसियत से बिल्कुल तवज्जो नहीं दी। उनके मुख्यमंत्री काल में ही जयप्रकाश नारायण की आंधी चली और उन्होंने उन्हें उत्तर प्रदेश आने पर राज्य अतिथि का सम्मान दिया। इससे इंदिरा गांधी नाराज हो गई और उन्हें मुख्यमंत्री की कुर्सी से हाथ धोना पड़ा।
बहुगुणा ने अपने जीवन में कभी भी देश की अस्मिता के साथ समझौता नहीं किया और ना ही अपने विचारों पर किसी के विचारों को लादे जाने की अनुमति दी। 1980 में वे पुनः कांग्रेस में शामिल हुए और गढ़वाल से जीते थे। उपचुनाव 1982 में इलाहाबाद की सीट से जीते परंतु 1984 में अमिताभ बच्चन से चुनाव हार गए थे ।
मुझसे एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि मैं एक राजनेता हो सकता हूं लेकिन अभिनेता नहीं। इलाहाबाद की जनता इस बार राजनीति की तुलना में फिल्मी सितारे की तरफ अधिक रुचि दिखा रही है, यह बात उन्होंने चुनाव की मतगणना से 15 दिन पूर्व ही कह दिया था। उस समय भी उनका सम्मान कम ना था। नारे लग रहे थे,‘ हेमवती नंदन इलाहाबाद का चंदन’ लेकिन अमिताभ के सामने एक भी नहीं चली। हार के बाद बहुगुणा ने अपने टोपी न पहनने का संकल्प लिया था और वह जब तक रहे तब तक टोपी धारण नहीं किया। संकल्प था इलाहाबाद की जनता ही उन्हें दुबारा टोपी पहनाएगी।
इस हार के बाद बहुगुणा को सिर्फ एक बात का मलाल था कि उन्होंने संचार मंत्री रहते हुए इलाहाबाद में उद्योगों की स्थापना मुख्य मंत्री रहते हुए, यहां के विकास में जो योगदान किया, उस पर यहां के लोगों ने पानी फेर दिया।
1957 से 1969 तक और 1974 से 1977 तक बहुगुणा उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे । 1971 में अखिल भारतीय कांग्रेस महासमिति के महासचिव । वे एक अनुभवी नेता थे। उन्होंने 1957 में डॉक्टर संपूर्णानंद के मंत्रिमंडल में सभा सचिव के पद को गौरवान्वित किया था। 1958 में वे उद्योग विभाग में उप मंत्री तथा 1962 में श्रम विभाग के उप मंत्री के पद पर कार्य किया और 1967 में वित्त एवं परिवहन मंत्री तथा वर्ष 1971 से 77 और 1980 में लोकसभा के सदस्य रहे। 2 मई 1971 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में संचार राज्यमंत्री और 8 नवंबर 1973 से 4 मार्च तक तथा दूसरी बार 5 मार्च 1974 से 29 नवंबर 1975 तक उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे ।
31 मई 1972 को बहुगुणा जी के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी से हरिजनों के लिए और ज्यादा संख्या में आईएएस तथा पीसीएस के परीक्षण केंद्र खोलने का अनुरोध किया जिसके तहत नए केंद्र खोले गए। केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री के रूप में बहुगुणाजी ने इस मंत्रालय के अन्तर्गत आने वाले सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में यह व्यवस्था कराई कि वह 3 से 5 साल के कार्यक्रम बनाएंगे जिसके तहत स्कूलों और भाई व्यावसायिक शालाओं और विद्यालयों के होनहार हरिजन आदिवासी छात्रों को चुनकर उन्हें विशेष सहायता दी जाएगी जिससे वे अपनी उच्च शिक्षा जारी रख सकें । वह मुख्यमंत्री के रूप में उत्तर प्रदेश जैसे विशाल प्रदेश को एक नया स्वरूप देना चाहते थे और हरिजनों आदिवासियों विमुक्त जातियों के लिए कुछ नया करना चाहते थे l
बहुगुणा की वैश्विक दृष्टि
बहुगुणा जी कीअपनी वैश्विक दृष्टि थी। वे भारत को विश्व के मानस पटल पर सर्वोच्च स्थान दिलाना चाहते थे। वह नहीं चाहते थे कि कश्मीर और पंजाब जैसी कोई समस्या भारत में उत्पन्न हो। इसीलिए वे हमेशा से कश्मीर समस्या के समाधान हेतु तत्पर थे । कश्मीर को वह ऐतिहासिक नजरिए से देखते थे और 14वीं शताब्दी से लेकर उसके धार्मिक इतिहास और उसके अंतर्द्वंद पर हमेशा चर्चा किया करते थे। 1८५९ में मुगल शासन तथा उसके पश्चात राजवंश के इतिहास पर वह हमेशा दृष्टिपात करते थे और यह मानते थे के कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है उसे भारत से अलग नहीं किया जा सकता है।
उन्होंने 1983 में 7 अक्टूबर को बुलाए गए एक अधिवेशन में कश्मीर के महत्व पर महत्वपूर्ण चर्चा की थी। १८३४ में वे महाराजा गुलाब सिंह डोगरा तथा राजा रणजीत सिंह तक के पृथक अस्तित्व में आए राज्य सेलेकर पश्चात 1946 _४७ में राजा हरी सिंह की स्वतंत्र राज्य की जिद और बाद में १५ अक्टूबर १९४७ को भारत सरकार को लिखे गए पत्र इतिहास पर वे भली भांति प्रकाश डालते थे। कालांतर में 1947 के विभाजन के बाद कश्मीर को भारत के हंथों सौंपने, पाक द्वारा कब्जे की पहल, पटेल एवम् नेहरू की रणनीति का विस्तृत इतिहास उनके मस्तिष्क पर था। वे मानते थे की 1932 में शेख अब्दुल्लाह ने मुस्लिम कान्फ्रेंस बाद में नेशनल कान्फ्रेंसकी स्थापना की, शेखर को नेहरू जी का समर्थन मिला और शेख अब्दुल्ला को स्वतंत्र प्रधानमंत्री का सम्मान मिला।
बहुगुणा 1982 में वहां की सरकार द्वारा मुस्लिम सेटलमेंट बिल लाए जाने के विरोध में थे और उन्होंने इस संबंध में वहां के मुख्यमंत्री को पत्र भी लिखा था। उनका मानना था कि रीसेटलमेंट बिल का कोई बहुत बड़ा औचित्य नहीं होगा। इस संबंध में एस एम अब्दुल्ला तथा बहुगुणा के बीच हुए पत्राचार आज भी ऐतिहासिक धरोहर के रूप में विद्यमान है । पंजाब में उभरे तनाव खालिस्तान की मांग की वे धुर विरोधी थे और वह सिखों के बहादुरी और उनके कुर्बानियों के भली भांति समर्थक थे। वे चाहते थे के उन्हें सम्मान मिले परंतु वे राष्ट्र का सम्मान करें। वे विश्व के अनेक देशों के संपर्क में थे।उनकी विदेश नीति अपने आप में अनूठी थी। वे पड़ोसी देशों से अच्छे संबंध रखने के पक्ष में थे, उनका मानना था एक देश की हवा दूसरे देश में जाती है तो कोई कहे हम इससे सांस नहीं लेंगे? नदी का पानी एक मुल्क से बहकर दूसरे में जाता है कोई कहे हम वहां से आया पानी नहीं पिएंगे?
बहुगुणा केंद्र और राज्य के बीच में संबंधों को सर्वाधिक महत्व देते थे और तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए उनका मंतव्य था कि राज्यों और केंद्रीय सरकार के बीच ऐसे सामंजस्य हो ताकि देश निरंतर आगे बढ़ता रहे ।विपक्ष तथा सत्तापक्ष दोनों लोकतंत्र की धुरी का काम करते हैं, अतः दोनों में सामंजस्य होनी चाहिए। वे चुनी हुई सरकारों को पूरा सम्मान देने के पक्ष में थे और राज्यों के अधिकार सुनिश्चित करना चाहते थे ताकि किसी प्रकार का दोनों के बीच मतभेद ना रहे । वे चुनाव प्रणाली को अत्यधिक खर्चीली मानते थे और चाहते थे की एक ऐसी चुनाव प्रणाली की व्यवस्था हो जो कम खर्च में जनता के बीच रहकर जन प्रतिनिधि एक सच्चे सेवक की भूमिका अदा कर सकें। उनकी मंशा थी यही सच्चा स्वराज्य होगा जिसके लिए हमारे तमाम स्वतंत्रता सेनानियों ने कुर्बानी दी, लड़ाइयां लड़ी, तमाम मां बहनों ने अपने मांग का सिंदूर खोया। वे स्वराज्य घर-घर तक पहुंचने के पक्ष में थे ताकि हर आदमी देश की आजादी, देश की प्रगति, देश के विकास में अपनी सहभागिता का अनुभव कर सकें।
मुझे स्मरण है कि देश में इमरजेंसी लगी तो बहुगुणा ने किसी सीमा तक लागू ना करने के लिए इंदिरा गांधी को सलाह भी दी थी। परंतु उनका प्रयास विफल रहा। इंदिरा गांधी ने बहुगुणा से नाराज होकर उन्हें जिस समय पत्र भेजा, उस समय वह इलाहाबाद में अपने आवास पर पत्रकार वार्ता कर रहे थे और एक विशेष दूत ने आकर उन्हें पत्र दिया। उनके चेहरे पर बिल्कुल घबराहट नहीं थी। थोड़ा सा विनम्र होते हुए उन्होंने कहा था ‘मेरे लिए देश सर्वोपरि है।’
1977 में केंद्रीय मंत्रिमंडल में रसायन तथा उर्वरक मंत्री के रूप में उन्होंने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की ।उस समय देश पेट्रोलियम के लिए एक गंभीर समस्या से जूझ रहा था। उन्होंने देश को पेट्रोलियम में सक्षम बनाने में महत्वपूर्ण कदम उठाए। नेहरू मंत्रिमंडल में प्रयाग के ही केशव देव मालवीय ने देश को लगभग 60% तेल में सक्षम बनाने का प्रयास किया था। उसके पश्चात अगर किसी इस दिशा में प्रयास किया तो वह थे हेमवती नंदन बहुगुणा। शनै: शनै: बहुगुणा कमजोर होते गए। बार-बार अपमान को सहते हुए भी कभी वे झुके नहीं। सच्चे अर्थों में उन्होंने अपने आपको ‘पर्वत पुरुष‘ के रूप में निरूपित किया । उन्हें अपने देश की माटी से बहुत अधिक प्यार था । मैं ने अपनी पुस्तक, जिसमें मेरी सहयोगी के रूप में डॉ रीता बहुगुणा जोशी भी हैं, हेमवती नंदन बहुगुणा: एक व्यक्तित्व’ में लिखा है ।जब वे विदेश के लिए अपना ऑपरेशन कराने के लिए जाने लगे उस समय एयरपोर्ट पर अपनी पत्नी कमला जी से विमान में बैठने से पहले पत्नी से कहा था ‘कमला थोड़ी देर के लिए रुको, मैं इस देश की माटी को अपने माथे पर लगा लूं, कहीं ऐसा ना हो कि फिर मैं इस माटी का दर्शन ना कर सकूं?’
और ऐसा ही हुआ बहुगुणा एक धर्म पारायण व्यक्ति थे, वह प्रकृत में पैदा हुए और प्रकृति से उनका अटूट संबंध था, प्रेम था । वह गंगा को अपनी मां की तरह मानते थे ।गंगा हिमालय से निकली थी, हिमालय ने बहुगुणा को जन्म दिया और गंगा जहां यमुना से संगम है, प्रयाग की धरती पर, वहां उन्हें काम करने का अवसर दिया पाला पोषा और बड़ा किया। देवभूमि के 14 प्रयागों के आशीर्वाद स्वरूप तीर्थराज प्रयाग में वे पले-पोषे और बड़े हुए, राजनीति के शिखर पर पहुंचे और देश का सम्मान बढ़ाया । कोई भी माघ कुंभ, अर्ध कुंभ के महीने की अमावस्या नहीं होती थी, जब बहुगुणा प्रयाग न आते रहे हो और मौन स्नान न करते रहे हों। यह उनकी गंगा के प्रति अगाध श्रद्धा का प्रतीक है । शायद यही कारण है कि उन्होंने अपनी अंतिम इच्छा व्यक्त की थी कि ‘मेरा अंतिम संस्कार संगम के तट पर किया जाए’। उनका पार्थिव शरीर प्रयाग लाया गया और संगम के तट पर ही उन्हें मुखाग्नि दी गई। गंगा जैसे गोमुख से निकलकर गंगोत्री और हरिद्वार होते हुए प्रयाग में आकर यमुना से मिलती है, ठीक उसी प्रकार से उस पर्वत पुरुष ने अपने पार्थिव शरीर को इस प्रयागराज की धरती पर सदा सर्वदा के लिए गंगा में आत्मसात कर दिया । अमर बहुुुगुणा अपना नाम छोड़कर सदा, के लिए विदा हो गए ।
वे आज हमारे बीच नहीं है, परंतु उनकी स्मृतियां, उनका संकल्प, उनकी राजनीत उनकी आस्था, उनका देश प्रेम, राष्ट्रभक्ति और उनके सपनों का भारत आज भी देशवासियों के मन में है देश की नई पीढ़ी को एक संदेश दे रहा है।
जय हिंद जय भारत
डॉक्टर रामनरेश त्रिपाठी
वरिष्ठ पत्रकार
प्रयागराज 9415 23518