बाला साहब ठाकरे ने कभी यह कल्पना नहीं कि होगी कि उनके उत्तराधिकारी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस और शरद पवार के पीछे चलते नजर आएंगे।
लेखक डॉ दिलीप अग्निहोत्री स्वतंत्र पत्रकार हैं
बाला साहब ठाकरे ने कांग्रेस की तुष्टिकरण नीतियों के जबाब में शिवसेना की स्थापना की थी। वह सदैव हिंदुत्व के मुद्दों को मुखरता से उठाते रहे। उन्होंने स्वयं सत्ता में जाना स्वीकार नहीं किया।
भाजपा के साथ गठबंधन के बाद शिवसेना का आधार भी व्यापक हुआ था। जब पहली बार इस गठबंधन को सरकार बनाने का अवसर मिला तब बाला साहब को मुख्यमंत्री बनाने का प्रस्ताव किया गया था। लेकिन उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। इसके बाद शिवसेना के मनोहर जोशी मुख्यमंत्री बने थे।
उसी समय दो बातें तय हो गई थी, पहली यह कि भाजपा और शिवसेना महाराष्ट्र के स्वभाविक साथी है। यह गठबंधन स्थायी रहेगा। दूसरी बात यह कि दोनों में जिस पार्टी के विधायक अधिक होंगे, उसी पार्टी को मुख्यमंत्री पद मिलेगा।
बाला साहब ठाकरे ने कभी यह कल्पना नहीं कि होगी कि उनके उत्तराधिकारी मुख्यमंत्री की कुर्सी के लिए कांग्रेस और शरद पवार के पीछे चलते नजर आएंगे।
यह सही है कि परिवार आधारित पार्टियों में उत्तराधिकार की व्यवस्था ही चलती है। लेकिन इसके लिए मर्यादा की सभी सीमाएं लांघना अनुचित है। उद्धव ठाकरे इस समय यही कर रहे है। पुत्र मोह में उन्होंने आखों पर पट्टी बांध ली है। वह अपने पुत्र आदित्य को मुख्यमंत्री बनाना चाहते है, परिवार आधारित पार्टियों में इसका चलन भी रहा है। लेकिन संसदीय व्यवस्था में संख्या बल के आधार पर ही ऐसे मोह पर अमल किया जा सकता है।
उद्धव पुुत्र मोह में तो पूरी तरह जकड़े है, लेकिन विधानसभा का संख्याबल उनके अनुकूल नहीं है। लेकिन वह नैतिक ही नहीं संवैधानिक भावना का उल्लंघन कर रहे है। भाजपा के साथ चुनाव लड़ना फिर स्वार्थ में चुनाव बाद गठबंधन से अलग हो जाना,अनैतिक है। क्योंकि इसका कोई सैद्धान्तिक या नीतिगत आधार नहीं है। आधार केवल यह कि भाजपा से करीब आधी संख्या कम होने के बाबजूद उद्धव अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनवाना चाहते है।
फिफ्टी फिफ्टी की बात भी तभी लागू होती है जब गठबन्धन के दलों के बीच संख्या का मामूली अंतर रहे। लेकिन भाजपा के पास उनके मुकाबले करीब दोगुनी संख्या है।
दूसरी बात यह कि उद्धव ने अपनी विश्वसनीयता भी समाप्त कर ली है। फिफ्टी फिफ्टी में भी वह तभी तक रहते जब तक उनके पुत्र को मुख्यमंत्री बनाये रखा जाता। भाजपा के साथ कर्नाटक में देवगौड़ा और उत्तर प्रदेश में मायावती ऐसा ही व्यवहार कर चुकी है। उद्धव पर भी विश्वास का कोई कारण नहीं था।
इस संदर्भ में हरियाणा और जम्मू कश्मीर का उदाहरण दिया जा रहा है। जम्मू कश्मीर में भाजपा और पीडीपी ने एक दूसरे के विरोध में चुनाव लड़ा था। बाद में दोनों ने गठबन्धन सरकार बनाई थी। इसी प्रकार अभी हरियाणा में भाजपा और दुष्यंत चौटाला की पार्टी ने एक दूसरे के खिलाफ विधानसभा चुनाव लड़ा था। बाद में इन्होंने भी मिल कर सरकार बनाई है।
इन उदाहरणों से शिवसेना अपना बचाव नहीं कर सकती। जम्मू कश्मीर में भाजपा ने सरकार बनाने में कोई जल्दीबाजी नहीं दिखाई थी। कांग्रेस, पीडीपी और नेशनल कॉन्फ्रेंस को गठबन्धन सरकार पर विचार का पूरा अवसर मिला। लेकिन इनके बीच सहमति नहीं बन सकी। इसके बाद दो ही विकल्प थे। पहला यह कि पीडीपी व भाजपा के बीच गठबन्धन हो, दूसरा यह कि यहां राष्ट्रपति शासन लगाया जाए। राष्ट्रपति शासन के बाद चुनाव में भी ज्यादा उलटफेर की संभावना नहीं थी। जम्मू क्षेत्र में भाजपा का वर्चस्व था। घाटी में कांग्रेस, पीडीपी और नेशनल कांफ्रेंस को लड़ना था। ऐसे में भाजपा और पीडीपी ने न्यूनतम साझा कर्यक्रम तैयार किया। फिर सरकार बनाई। पीडीपी की संख्या ज्यादा थी, इसलिए महबूबा मुफ्ती मुख्यमंत्री बनी थी।
हरियाणा में भी किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिला। भाजपा सबसे बड़ी पार्टी थी। दुष्यंत चौटाला ने समर्थन दिया। इस तरह बहुमत की सरकार कायम हुआ।
दूसरी ओर महाराष्ट्र में जनादेश बिल्कुल स्पष्ट था। मतदाताओं ने भाजपा के नेतृत्व में शिवसेना गठबन्धन को पूर्ण जनादेश दिया था। लेकिन शिवसेना प्रमुख का पुत्रमोह जनादेश पर भारी पड़ा। उन्होंने मतदाताओं के फैसले का अपमान किया है। अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनाने के लिए उद्धव ने चुनाव पूर्व गठबन्धन को ठुकरा दिया। वह उन विरोधियों के पीछे दौड़ने लगे जिनकी नजर में शिवसेना साम्प्रदायिक थी।
ज्यादा समय नहीं हुआ जब उद्धव अयोध्या आये थे। तब उनका कहना था कि सरकार कानून बनाकर जन्मभूमि पर मंदिर निर्माण करे। तब उद्धव ने यह भी कहा था कि बाबरी ढांचा शिवसैनिकों ने गिराया था। इसका उन्हें गर्व है। ऐसी पार्टी पुत्र मोह में कांग्रेस एनसीपी के करीब जाने की कोशिश में है। जबकि जनादेश भाजपा शिवसेना के पक्ष में है।
उद्धव इस कदर बैचैन है कि उन्हें कांग्रेस एनसीपी की सच्चाई भी दिखाई नहीं दे रही है। यदि ये पार्टियां आदित्य को मुख्यमंत्री बनाने को तैयार हो जाये तब भी शिवसेना को उन्हीं की कृपा पर निर्भर रहना पड़ेगा। कांग्रेस और शरद पवार का साथ शिवसेना को कहीं का नहीं छोड़ेगा।