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अमृत प्रभात : 11: “पत्रकारिता की दुनिया :32”:  रामधनी द्विवेदी :58:

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 72 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

“पत्रकारिता की दुनिया: 32”

गतांक से आगे…

संगम ने बुलाया: 11

“महेश जोशी “

महेश जोशी के बारे में कुछ अधिक लिखने का मन कर रहा है। उनसे भी मेरे गहरे संबंध रहे। जब वह अमृत प्रभात ज्‍वाइन किए तो अल्‍लापुर में छोटे भाई जगदीश के साथ रहते थे। कभी- कभी उनकी पत्‍नी आतीं जो पिथौरागढ़ में शिक्षिका थीं। बाद में जब महेश लखनऊ गए तो उनका तबादला लखनऊ में करा दिया। उस समय तक उत्‍त्‍राखंड नहीं बना था। जब भी उनकी पत्‍नी आतीं तो वह मेरे पूरे परिवार को अपने यहां खाने पर बुलाते, जब अकेले रहते तो मैंने न जाने कितनी बार उनके यहां भोजन किया है। पहाड़ की बाल मिठाई का स्‍वाद उन्‍होंने ही चखाया और जब भी पहाड़ से आते उसे जरूर लाते।

मैंने एक बार उनसे पहाड़ से थुलमा मंगाया जो आज तक मेरे पास है। यह पहाड़ी भेड़ों के लंबे बाल से बनता है। हाथ से कई लंबे लंबे आकार में पट्टे बनाकर जोड़कर कंबलनुमा थुलमा बनाया जाता है। मैदान में गांवों के गड़रिये भी भेड़ों के बाल से इसी तरह देसी कंबल बनाते हैं जो काले और सफेद रंग के ही होते हैं लेकिन थुलमा अमूमन गैरिक रंग का होता है जो प्राकृतिक रंग से रंगा जाता है। मैंने उनसे एक पहाड़ी खुखरी भी मंगाई थी जो आज भी मेरे पास गांव पर है। इसे उनके गांव के लोहार ने मूंठ सहित एक ही लोहे से बनाया था जिस पर अभी तक जंग नहीं लगा। यह ग्रामीण शिल्‍प का नमूना है। अमूमन मूंठ में लकड़ी लगाई जाती है जो इसमें नहीं है।

महेश जोशी ने बाद में खुर्रम नगर, लखनऊ में अपना घर बनवाया। उनके प्रयास से उस कालोनी में एक जलआपूर्ति व्‍यवस्‍था खुद कालोनी वालों ने बनाई जो लखनऊ की पहली निजी जलआपूर्ति व्‍यवस्‍था थी।उनके इस प्रयास की बहुत प्रशंसा हुई। अपनी और भाई बहनों की पढ़ाई और नौकरी आदि के लिए वह इलाहाबाद आए जरूर, लेकिन उनका मन पिथौरागढ़ में ही रमता। वह कई बार वहां से ही जीविका चलाने की कोशिश कर चुके थ। वहां उनका हिमालयन प्रिंटर्स नाम से प्रिंटिंग का काम था। वह मैदान से काम लेकर वहां जाते और कराकर लाकर यहां देते जो श्रमसाध्‍य तो था ही फायदेवाला भी नहीं था। लेकिन पहाड़ उन्‍हें अपने से अलग नहीं होने देता था। खुर्रमनगर में भी उन्‍होंने कंप्‍यूटर प्रिंटिंग का कुछ काम करना शुरू किया। वह कुछ बड़ा करना चाहते थे। उनके अंदर गजब की उद्यमिता थी। वह शांत बैठने वालों में नहीं थे।

उन्होंने नेट क्‍वालीफाई किया था लेकिन जैन दर्शन पर पीएचडी नहीं कर सके। मैंने भी इलाहाबाद युनिविसिर्टी में पीएचडी के लिए नामांकन कराया था लेकिन वह पूरी नहीं हो सकी। (इसपर आगे विस्‍तार से बात होगी)।

महेश जोशी की गजब जिजीविषा थी। मैं एक बार अल्‍लापुर के उनके कमरे में गर्मी में दोपहर को मिलने गया तो वह कंबल ओढ़े सो रहे थे। मैंने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त करते हुए पूछा कि गर्मी में कंबल!

वह हंसते हुए बोले, “कभी ऐसा करके देखिए। शुरू में गर्मी लगेगी लेकिन जब पसीना हेाता है और पंखे की हवा लगती है तो एसी की तरह ठंडक पहुचती है। मुझे लगता है कि मैं पहाड़ की ठंडी वादियों में हूं।”

पहाड़ को महसूस करने की यह गजब की भावना थी! हालांकिे मैने कभी उनका सुझाया प्रयोग नहीं किया। जब मैं बरेली जागरण में था तो गोस्‍वामी जी से पता चला कि उनको कैंसर हो गया है, गले का। मैं मिलने गया उनसे। वह दुबले तो थे ही और कमजोर हो गए थे। उन्‍होंने बीमारी का पूरा हाल बताया। मैं थोड़ी देर वहां रहा और वहीं से जगदीश के साथ नाश्‍ता करके लौटा। थोड़े दिनों बाद उनका शरीर छूट गया। लेकिन उनकी स्‍मृतियां पीछा करती रहती हैं। जब भी घर में इलाहाबाद की चर्चा होती है महेश जोशी की चर्चा के बिना अधूरी रहती है। बाद में उनके बेटे उज्‍ज्‍वल की शादी में लखनऊ जाने का अवसर मिला जो सबसे भेंट हुई।

वह वचन के कितने पक्‍के थे, इसे बताने के लिए एक घटना का उल्‍लेख करना जरूरी समझता हूं। एक बार अल्‍लापुर में एक मित्र के कमरे में पार्टी का आयोजन था, मैं अचानक पहुंच गया था। वहां सलाद, पनीर आदि रखा हुआ था और बोतलें खुली थीं। वे सब मुझसे जूनियर थे, इसलिए संकोच करने लगे। मैंने कहा कि आप लोग शुरू करें। उन लोगों ने सोचा कि शायद मैं भी लूं। मुझे जोड़कर गिलास बनने लगे। जब मेरे सामने गिलास आया तो मैंने मना कर दिया और कहा, आप लोग लें, मैं खाने वाली चीजें लेता रहूंगा। किसी ने जिद नहीं की।

लेकिन महेश जोशी ने कहा- एक घूंट ले लें, बस। मैंने कहा कि जब एक घूंट ले लूंगा तो पी ही लूंगा। मैं नहीं पीता, तो नहीं पीता। वह जिद करने लगे कि मुंह से लगा लीजिए, गिलास जूठा कर दीजिए।

मैंने नम्रता से मना किया तो वह जिद करने लगे और बोले,  “यदि आप एक घूंट भी नहीं लेंगे तो मेरी आपसे दोस्‍ती खत्‍म हो जाएगी!

मुझे अच्‍छा नहीं लगा। मैंने कहा, “यदि हमारी आपकी दोस्‍ती शराब पर है तो आज ही टूट जानी चाहिए। मैं ऐसी दोस्‍ती नहीं चाहता।”

उन्‍हें मेरी बात लग गई। वह बोले, “ऐसी बात है तो मैं भी आज से शराब नहीं पीऊंगा।

उन्‍होंने उस दिन नहीं पी। और बाद में भी छोड़ दी। जब मुझे पता चला कि वह सचमुच नहीं लेते तो मैंने कहा कि मैं वचन से मुक्‍त करता हूं, आप जब चाहें तो ड्रिंक ले सकते हैं। बहुत कहने पर वह तीज त्‍योहार तक ही सीमित रहे। वैसे भी वह रोजाना वाले लोगों में नहीं रहे।

उनमें आत्‍मबल बहुत था। जब रिसर्च के दौरान पुरानी किताबों को पलटने के कारण उनको गैस्ट्रिक अल्‍सर हो गया और डाक्‍टरों ने उन्‍हें चाय और तीखी चीजें बंद करने के लिए और सिर्फ दूघ रोटी खाने के लिए कहा तो उन्‍होंने एक साल सिर्फ यही खाया और चाय तो एकदम बंद कर दी। बहुत मन करने पर कॉफी ले लेते। ऐसा परहेज बिरले ही कर पाते हैं। और वह बिना दवा ठीक हो गए।

महेश का निधन लखनऊ में हुआ। आज भी वह बहुत याद आते रहते हैं।

उनके पिता जी का हाल में 104 साल की अवस्‍था में पिथौरागढ़ में देहांत हुआ। उनके पिता जी भी पहाड़ से, अपनी जमीन से बहुत प्‍यार करते थे। जगदीश और उनका परिवार लखनऊ में था लेकिन पिता जी का मन हमेशा पहाड़ पर ही रहता। वह अंतिम दिनों में वहीं पर थे। गांव में उनके छोटे भाई का परिवार रहता है, वही लोग उनकी देखरेख करते। लाख कहने पर भी लखनऊ आने के लिए तैयार नहीं थे।

जगदीश बताते कि हम लोग रोज सुबह चाचाजी से बात करते हैं, वह बताते कि दरवाजा खुला है तो संतोष होता। इसका अर्थ होता कि पापा जग गए हैं और नाश्‍ता कर लिए हैं। रात में जब सो जाते तब भी सूचना मिलती कि खा पीकर सो गए हैं। अपनी मिट्टी से इतना लगाव यदि सबका होता तो गांव चाहे मैदान के हों या पहाड़ के कभी वीरान नहीं होते।

जगदीश जोशी

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