Home / Slider / “हुनर हाट”: रंगीन कुरुई, छोटी कुरुई, बड़ी कुरूई, सादी कुरुई, रंग बिरंगी कुरुई और मौना: रामधनी द्विवेदी

“हुनर हाट”: रंगीन कुरुई, छोटी कुरुई, बड़ी कुरूई, सादी कुरुई, रंग बिरंगी कुरुई और मौना: रामधनी द्विवेदी

जो बहू जितनी अधिक और जितनी अच्‍छी कुरुई लाती, उसे उतना ही एडवांस माना जाता। उस समय तांबे,पीतल के कुछ बर्तन बेटियों को दिए जाते, साथ में कई कुरुई कभी- कभी तो दर्जन भर भी और मऊनी- मौना भी। यह उनके मायके की याद दिलाती। लड़कियां अपनी ससुराल वालों को गर्व से बतातीं, यह मैने बनाई, यह मेरी भाभी ने और बड़ी वाली मेरी मां ने।

मध्‍यांतर

वरिष्ठ पत्रकार रामधनी द्विवेदी

शाम को आफिस से लौटते समय मेरी सबसे छोटी लाड़ली बेटी दिव्‍या दिल्‍ली के जवाहरलाल नेहरू स्‍टेडियम में केंद्रीय अल्पसंख्यक मंत्रालय द्वारा लगाए गए “हुनर हाट” से एक कुरुई लाईं। बहुत खुश थीं। कहने लगीं, “पापा इसे देख कर गांव की याद आ गई। हम लोग गांव जाने पर इसी में भूजा खाया करते थे। मेहमानों के आने पर इसी में उन्‍हें मिठाई, गुड़,भूजा आदि दिया जाता था। बहुत अच्‍छी लगी, इसी से ले लिया। सौ रुपये में मिली। दूकानदार ने डेढ़ सौ मांगे थे। हम कई सहेलियां थीं तो मोलभाव कर सौ में लिया।”

दिव्या ने कुछ और सजावटी सामान भी लिया, लेकिन वह कुरुई को लेकर बहुत ही उत्‍साहित थी। आजकल के बच्‍चे जो गांव के संपर्क में नहीं हैं, खासतौर से पूरबी यूपी और बिहार के वे इस कुरुई के बारे में कम ही जानते हैं। महानगरों के लोगों के लिए यह सजावटी सामान हो सकती है लेकिन कभी यह हमारे परिवारों की अनिवार्य वस्‍तु थी।

मुझे याद आता है कि मेरी मां और बाद पत्नी भी बहुत अच्‍छी कुरुई बनाती थीं। गर्मी की दोपहर यही करते बीतता था। घर और आसपास की महिलाएं दोपहर को ओसारे मे बैठ जातीं सुखा-दुखा, अड़ोस-पड़ोस की बतकही होती और साथ में कुरुई भी बनाई जाती। तरह तरह की रंगीन कुरुई, छोटी कुरुई, बड़ी कुरूई, सादी कुरुई, रंग बिरंगी कुरुई, मौना (गोल ढक्‍कन सहित पात्र जिसमें सामान रखा जाता था) कुरुआ (कुरुई का बड़ा भाई जो आकार में बड़ा और सादा हेाता) बनाया जाता। इसमें महिलाओं की कला देखी जाती। जो कुरुई जितनी साफ, महीन और रंग बिरंगी हेाती,वह उतनी ही अच्‍छी मानी जाती। जिन लड़कियों की शादी की बात चल रही होती, वह भी इसे बनाना सीखतीं और उनकी माएं, भाभियां उनके दहेज के रूप में इसे बनाकर रखतीं।

जो बहू जितनी अधिक और जितनी अच्‍छी कुरुई लाती, उसे उतना ही एडवांस माना जाता। उस समय तांबे,पीतल के कुछ बर्तन बेटियों को दिए जाते, साथ में कई कुरुई कभी- कभी तो दर्जन भर भी और मऊनी- मौना भी। यह उनके मायके की याद दिलाती। लड़कियां अपनी ससुराल वालों को गर्व से बतातीं, यह मैने बनाई, यह मेरी भाभी ने और बड़ी वाली मेरी मां ने।

जब मेहमानों को इसमें भूजा आदि खाने को दिया जाता तो वे भी पूछते- यह बड़ी पतोह के यहां का है कि छोटी के यहां का।

सासें गर्व से बतातीं कि छोटकी पतोह के यहां से आया था।

कभी कभी ये कुरुई अड़ोस पड़ोस में मेहमान आने पर मंगनी भी जाती। जिन घरों में अच्‍छी कुरुई नहीं होती वे बिचारे मांग जांच कर ही काम चला लेते। मेरी बहू पूर्णिमा भी अपने मायके से कुछ कुरुई लाई थी।

मेरी मां के पास एक बड़ा मौना था। मैंने उसे तब देखा जब मेरी शादी हुई थी। मां उसमें अपने कुछ निजी सामान रखती। यह गोलाकार बडा़ सा लगभग तीन फीट व्‍यास का था जिसे रंग बिरंगे कपड़े से सजाया गया था और उसके ढक्‍कन में ताला लगाने की भी व्‍यवस्‍था थी। उन दिनों लोहे के बक्सों का चलन कम था। इसी मौने में ही महिलाए अपने सामान रखतीं। मेरी मां जब पहली बार ससुराल आई तो इस तरह के दो मौने उसे मिले थे। वह बताती थी कि इनमें से एक उसकी ननद को बिदाई में दे दिए गए और एक उसके पास रह गया। वह बताती कि इसे उसकी मां और चाची ने मिल कर पूरे एक सीजन में तैयार किया था। कुरुई तो कई थीं लेकिन मौना दो ही थे। मेरी तीनों बहने भी इसे बना लेती हैं। वे सब भी बड़ी भाभी के साथ गर्मी में इसे बनाना सीखतीं और हर साल कई कुरुई और दो एक छोटे मौने तैयार ही कर लेतीं। मेरी मां भी बहुत अच्‍छी कुरुई बनाती। मूंज को भिगो भिगो को छोटे सूजे से इसे बनाया जाता। इसकी पेंदी बनाना सबसे कठिन हेाता और बाद में गोल आकृति देना। बड़ी भाभी इसमें दक्ष थीं। वह अब भी गर्मी में इसे बनाती हैं।मूंज को तरह तरह के रंग में रंगने की भी अपनी विधि होती है जिससे वह रंग सालों तक चटक बना रहता है और पानी में भीगने पर भी हल्‍का नहीं होता।

मेरी पत्‍नी जब आईं तो उन्‍होंने भी मां और भाभी से इसे बनाना सीखा। उन्‍होंने भी कई कुरुई और मौनी बनाई है। लेकिन जब से शहर में रहने लगीं तब से सब छूट गया।

आज दिव्‍या के हाथ में कुरुई देख कर वह भी आनंदित हुईं और यह कैसे बनती है, बताने लगीं। मेरी बड़ी बेटी दीप्ती काफी दिनों गांव में रही जिससे अपनी आजी से यह बनाना सीख लिया था लेकिन तृप्ति और दिव्‍या नहीं सीख पाईं। दिव्‍या के लिए तो आज यह किसी खोए खिलौने को पाने जैसा था।

पता चला है की यह हुनर हाट एक मार्च तक रहेगी। काफी समय है। मुझे भी वहां पर जाने की उत्सुकता हो रही है। पुरानी स्मृतियां ताज़ी होंगी, अपनी सांस्कृतिक जड़ों की याद आयेगी। अवश्य जाऊंगा।

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