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बिहार के “सुशासन बाबू” नीतीश का “सातवां सफर”

बिहार से ‘श्रृगाल संस्कृति’ पर विराम का संदेश

रतिभान त्रिपाठी

सरकारें जब काम करती हैं, तब यह जरूरी नहीं हुआ करता कि सब कुछ अच्छा अच्छा ही हो जाए, लेकिन जनता यह देखा करती है कि उसकी सरकार जो काम कर रही है, उसके पीछे उसकी नीयत क्या है? बिहार के चुनाव परिणाम इस बात की ओर इशारा करते हैं कि नीतीश कुमार की सरकार ने जितना भी काम किया, उसके पीछे उसकी नीयत साफ है, जनहित दिख रहा है। जरूरी नहीं है कि उन कामों को करने के लिए बनाई गई नीतियां बहुत अच्छी हों। दूसरी सरकारें उनसे अच्छी नीतियां बनाकर काम कर सकती थीं, लेकिन नीयत अच्छी नहीं थी। बिहार की जनता को इसका कटु अनुभव है। इसीलिए वैसी सरकारें बनाने वाली पार्टियों को अबकी भी मौका नहीं दिया। उनको ऐसा सबक सिखाया कि अब वह चिल्लाने लायक भी नहीं बचे। बिहार अगर वैसी ताकतों के हाथ एक बार फिर आ जाता तो वहां का क्या हाल होता, पूर्व के काले और कटु अनुभव से इसका अंदाजा लगाया जाना कठिन नहीं है। देश में एक बार फिर ‘श्रृगाल संस्कृति’ जोर पकड़ती और केंद्र समेत अनेक प्रदेशों में जो संदेश जाता, वह राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को सांसत में डालने वाला ही होता।

यह सर्वविदित है कि नीतीश कुमार सातवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री बने हैं। उनका राजनीतिक कद बिहार में अब तक के नेताओं में बेशक सर्वाधिक लोकप्रिय नेता का माना जा सकता है लेकिन बिहार के बाहर के नेताओं के लिए यह सुशासन बाबू का राजनीतिक आचरण अनुकरणीय कहा जा सकता है। बिहार को जंगलराज के दायरे से बाहर कर नीतीश कुमार ने जो रास्ता दिखाया है, उसी का नतीजा है कि जनता उन्हें बार बार चुन रही है। सवाल नीयत का ही है कि मोदी जाप करने के बावजूद बिहार ने रामबिलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी को हवा में उड़ा दिया तो लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल का नेतृत्व करने वाले उनके बेटों तेजस्वी और तेज प्रताप यादव को कुछ ताकत देकर भी सत्ता से बाहर रखा। इतना ही नहीं, जिस कांग्रेस के पास चालीस साल वहां राज करने का रिकॉर्ड है, उसे लगभग मिट्टी में मिला दिया। सवाल इसके पीछे भी नीयत का ही है। जिन लालू प्रसाद यादव ने बिहार को लूटकर अपने घर का खजाना भरा, पूरे बिहार को जातिवाद की कोख में डाल दिया, अपहरण जैसे जघन्य कृत्य को उद्योग में तब्दील किया, बलात्कार और अपराधिक गतिविधियों को प्रश्रय दिया और सरकारी खजाने की जिस लूट के कारण उसी कांग्रेस के राज में वह जेल गए, सजा पाई। उसी कांग्रेस ने सत्ता की मलाई चाटने के लिए लालू प्रसाद यादव की पार्टी से साझेदारी की। इसलिए अपने भाषणों में जनता को ‘जनार्दन’ कहने वाले कांग्रेस या राजद के नेता इस चुनाव परिणाम पर कठघरे में खड़ा ही नहीं कर सकते।
लोक जनशक्ति पार्टी के नेता रहे रामबिलास पासवान आजाद भारत के इतिहास में राजनीतिक मौसम विज्ञान के मास्टर माइंड कहे जाते हैं। चुनाव और राजनीति के अनेक रिकॉर्ड उनके नाम हैं। दुर्भाग्य से बीच चुनाव ही वह परलोक सिधार गए। उनके पुत्र और उत्तराधिकारी चिराग पासवान ने वह सारे जरूरी उपाय किए जिससे कि उनकी पार्टी को चुनावी फायदा हो लेकिन बिहार की जनता ने सहानुभूति नहीं दिखाई। रामबिलास पासवान के निधन के बाद सहानुभूति पाने के लिए उन्होंने पिण्डदान और श्राद्धादिक कर्म भी किए, पासवान अपने जीवन काल में जिनका समय समय पर विरोध किया करते थे। चिराग ने “मोदी से बैर नहीं, नीतीश की खैर नहीं” जैसा नारा भी खूब चलाया लेकिन जनता जब ‘जनार्दन’ है तो उसे यह सब समझते कितनी देर लगती है। कहा यह भी जाता है भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व ने इस चुनाव में नीतीश कुमार के खिलाफ चिराग पासवान का बड़ी चतुराई से इस्तेमाल कर लिया। लेकिन जो भी हो, जनता को जो फैसला देना था, दिया।

चुनावी गठबंधन और जोड़ तोड़ की राजनीति में नीतीश कुमार अबकी बार बेशक कमजोर मुख्यमंत्री के रूप में दिखाई दे रहे हैं। उनका जनता दल यूनाइटेड अब तक के चुनावों में बड़े भाई की भूमिका में रहता था, इस सहयोगी भारतीय जनता पार्टी के मुकाबले छोटे भाई की हैसियत में है, लेकिन यह राजनीतिक गठबंधन धर्म का तकाजा था कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा गया था इसलिए भाजपा नेतृत्व को सत्यता उनके हाथों में सौंपनी ही थी। यह अलग बात है कि उनके इस बार के नेतृत्व को लेकर अनेक तरह की कनबतियां चल रही हैं।

आगे क्या होगा, क्या नहीं होगा यह विषय अलग है लेकिन जातिवाद, मुस्लिम तुष्टिकरण जैसे विषयों के आधार पर देश भर में हल्ला मचाने वालों की बोलती तो फिलहाल बंद हो गई है। आगे पश्चिम बंगाल और फिर उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर ये ताकतें जिस तरह की ‘श्रृगाल संस्कृति’ फैलातीं, उस पर तो विराम लग ही चुका है। लोकतंत्र का नाम लेकर, उसकी ताकत का हवाला देकर श्रृगाल संस्कृति के अगुआ जिस तरह से हल्ला काटते, उसकी कल्पना ही भयावह है।

इसमें दो राय नहीं कि सरकार किसी भी पार्टी की हो, अगर जनता से विश्वासघात करती है, उसे पदच्युत कर देना ही जागरूक लोकतंत्र का सत्कर्म है। यह सत्कर्म बार बार लगातार करते रहना चाहिए। समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे नेता यह बात हमेशा कहा करते थे। डॉ. लोहिया ने तो केरल सरकार के मामले में यह आचरण दिखाया भी था लेकिन उन्हीं के अनुयाई बनकर लालू प्रसाद यादव और मुलायम सिंह यादव जैसे नेताओं ने पिछड़ों को अगड़ा बनाने का नारा तो दिया पर आचरण में भ्रष्टाचार और जातिवाद फैलाया। पहले यही नेता सिद्धांतों का नाम लेकर सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस का विरोध किया करते थे लेकिन जब जब निजी लाभ का अवसर देखा, उसी कांग्रेस की गोद में जाकर बैठ गए। कभी उसे ताकत दी तो कभी उसी से ताकत हासिल की। सिद्धांत के नाम पर सांप्रदायिकता की मुखालिफत का लबादा ओढ़ लिया करते थे।

हम जिस नीयत की चर्चा कर रहे हैं, इनकी वही नीयत बारम्बार देखने को मिली। कदम कदम पर समाजवाद की दुहाई देने वाले इन नेताओं ने समता समानता जैसे शब्दों को अपने आचरण से ज़मींदोज़ कर दिया। दूसरी पिछड़ी जातियों और मुस्लिमों का सहारा तो लिया लेकिन सत्ता में सिर्फ परिवारवाद को बढ़ावा दिया। एक बार भी ऐसा आचरण नहीं दिखाया पिछड़ेवाद के नाम पर जिन पिछड़ी जातियों को जोड़कर वोट हासिल करते रहे, उनमें से किसी और जाति के नेता को मुख्यमंत्री की कुर्सी सौंपते या किसी मुस्लिम को यह जिम्मेदारी देते। जिस परिवारवाद के लिए कांग्रेस को बदनाम करने में कभी कोई कोर कसर नहीं छोड़ा करते थे। और इधर जब से खुद परिवारवाद के पुरोधा बनकर उभरे, परिवारवाद शब्द भी इनकी डिक्शनरी से गायब हो गया।

बिहार का चुनाव परिणाम जिस तरह का है उससे ऐसा भी नहीं है कि सत्ताधारी निष्कंटक राज्य करें। इस परिणाम में “अंधों में काने राजा” का संदेश भी ध्वनित होता है। सत्तापक्ष के लिए यह संकेत भी है कि कुछ खास करना होगा। ‘अंत भला तो सब भला’ कहकर नीतीश कुमार एक बार तो सहानुभूति बटोर चुके हैं। आगे इससे काम नहीं चलने वाला है। विरोधियों के पराभव और चौतरफा कमजोर होने के बाद सत्ताधारियों, खासतौर पर भारतीय जनता पार्टी की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। वह जिम्मेदारी सिर्फ चुनाव जीतने की नहीं बल्कि जनता के लिए बेहतर नीतियां बनाने की है ताकि उन मुद्दों को संबोधित किया जा सके, जो चुनावों में बेशक मुद्दा नहीं बन पाते और जिन्हें मुद्दा होना ही चाहिए। मसलन बेरोजगारी और भ्रष्टाचार इस देश की सबसे गंभीर समस्या के रूप में हैं। इन पर गंभीरता से काम होना चाहिए। बिहार के चुनाव में राजद का नेतृत्व करने वाले तेजस्वी यादव ने 10 लाख लोगों को नौकरियां देने का वादा किया था। जाहिर है कि यह दिवास्वप्न है, बावजूद इसके नीतीश सरकार को इस दिशा में काम करना ही चाहिए। यह सही है कि इतनी बड़ी संख्या में सरकारी नौकरियां नहीं दी जा सकतीं लेकिन नीतियां बनाकर रोजगार के अवसर इससे भी ज्यादा पैदा किए जा सकते हैं। भ्रष्टाचार, जो सिस्टम का अविभाज्य हिस्सा सा बन चुका है, उस पर करारी चोट होनी चाहिए। दिखावे के लिए नहीं, बल्कि आचरण में उतारकर। और यह काम राजनीतिक नेतृत्व ही कर सकता है। यह मुद्दे देश भर लिए अनिवार्य होने चाहिए।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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