प्रस्तुति : प्रमोद शुक्ल पत्रकार प्रयागराज
लेखक: दिलीप पाण्डेय
एक अश्व… उस पर एक योद्धा… बहुत तेज़ी से भरतपुर जाने वाले रास्ते की तरफ बढ़ा चला जा रहा था । उस योद्धा के शरीर पर अनगिनत घाव थे । उसके सुनहरे जूतों से खून टपक रहा था । उसके राजसी वस्त्र के सुंदर रंग खून से लाल हो गए थे । सबसे गहरा घाव सिर पर लगा था… काफी खून बहकर पहले ही निकल चुका था । किसी राजकुमार सा सजीला दिखने वाला वो नौजवान दौड़ते हुए अश्व की पीठ पर अचेत अवस्था में औंधे मुंह लेटा हुआ था । उस योद्धा की कमर और पेट को तलवारों से बुरी तरह गोदा गया था । कच्ची सड़क पर दौड़ रहे उस अश्व को लोग बहुत आश्चर्य से देख रहे थे । भीड़ लगती जा रही थी… लोग घोड़े के पीछे-पीछे कौतुहल से भाग रहे थे । वो जानना चाहते थे कि आखिर ये राजपुरुष कौन है ?
आज से पहले जब ये योद्धा अश्व पर बैठकर निकलता था तो गांव के गांव झूम उठते थे । एक झलक पाने के लिए लोग उसके पीछे ये कहते हुए भागते थे कि देखो ये संसार के सबसे वीर पुरुष बाजीराव और संसार की सबसे सुंदर स्त्री मस्तानी का पुत्र है… शमशेर । अपने माता-पिता के सर्वोच्च गुण शमशेर बहादुर को जन्म से ही मिले थे । वो अपनी माँ मस्तानी की तरह सुंदर था और अपने पिता बाजीराव की तरह वीर था । लेकिन अब वो अचेत योद्धा अपने प्राणघातक घावों के साथ भरतपुर के राजा सूरजमल की राजधानी में दाखिल हो चुका था ।
घाव युद्ध में पाया हुआ सबसे बड़ा सम्मान होता है । और ऐसे अनगिनत सम्मान शमशेर बहादुर ने अपने जीवन में हासिल किए थे । लेकिन किसी इतिहासकार…. किसी कहानीकार और किसी उपन्यासकार… ने कभी इन सम्मानों और इन घावों पर अपनी स्याही खर्च नहीं की । बुंदेलखंड के प्रतापी राजा छत्रसाल शमशेर बहादुर के नाना थे… पूरी भारत भूमि से मुगलों के राज को उखाड़ फेंकने वाले पेशवा बाजीराव… शमशेर बहादुर के पिता थे लेकिन शमशेर बहादुर को कभी सार्वजनिक जीवन में वो सम्मान हासिल नहीं हुआ जिसके वो हक़दार थे । एक ब्राह्मण का पुत्र होने के बाद भी शमशेर को ब्राह्मणों के द्वारा ही अपमानित और तिरस्कृत किया जाता रहा । बचपन में स्वयं श्रीमंत बाजीराव ने उसको हिंदू नाम दिया… कृष्णा राव लेकिन ये नाम हिंदू समाज में ही किसी ने स्वीकार नहीं किया । आखिरकार उसका नाम बदलकर शमशेर बहादुर रखना पड़ा जो कि एक मुस्लिम नाम था । इतना अपमानित होने के बाद भी उसकी धमनियों में पेशवा बाजीराव जैसे देशभक्त का रक्त बह रहा था इसलिये उसने पूरे जीवन ना सिर्फ इस्लामिक आक्रमणकारियों से संघर्ष किया… उनसे लोहा लिया बल्कि विजय श्री भी हासिल करता रहा ।
साल 1758 में शमशेर बहादुर ने अपने भाई रघुनाथ राव (काशीबाई से जन्म लेना वाला पेशवा बाजीराव का सबसे छोटा पुत्र) के साथ मिलकर पेशावर, मुल्तान और अटक में भगवा लहरा दिया था । पृथ्वीराज चौहान के बाद से ये सभी जगहें हिंदुओं के अधिकार से बाहर चली गई थीं । लेकिन हिंदुओं का सदियों पुराना सपना शमशेर बहादुर ने पूरा किया था । शमशेर बहादुर ने अफगान बादशाह अहमद शाह अब्दाली की दुर्रानी सेना को पंजाब और सिंध से भगा दिया था । जो सपना छत्रपति शिवाजी महाराज और श्रीमंत पेशवा बाजीराव ने देखा था… उस सपने को पूरा करने में महत्वपूर्ण योगदान शमशेर बहादुर का भी था । वो उसी भारत वर्ष की विजय के लिए आजीवन संघर्षरत रहा जिस भारत वर्ष के लोगों ने उसे कभी सम्मान की निगाह से नहीं देखा । शमशेर बहादुर को एक यवनी का पुत्र कहकर उलाहना दी जाती रही । किसी भी मांगलिक अवसर पर पोंगापंथी ब्राह्मणों ने उसकी उपस्थिति पर नाक भौंह सिकोड़ी । लेकिन इसके बाद भी अपने जीवन की आख़िरी लड़ाई… पानीपत के तीसरे युद्ध में भी सिर्फ 27 साल के शमशेर बहादुर ने वीरता से युद्ध करते हुए अपने प्राण त्याग दिये । ऐसी तपस्या… देशभक्ति… स्वाभिमान… गौरव किसी एक व्यक्ति में देखा जाना अभूतपूर्व है ।
1761 में जब पानीपत के युद्ध का मैदान सजा हुआ था । तब मराठों के सेनापति सदाशिव राव भाऊ के दाईं तरफ तीसरे नंबर की टुकड़ी का नेतृ्त्व शमशेर बहादुर ने किया था । इस युद्ध में कौन जीता और कौन हारा ? ये आज भी विवादित है । अब्दाली जो चाहता था उसको जीत के बाद भी हासिल नहीं हुआ… मराठे जो चाहते थे वो हारने के बाद भी उनको हासिल हुआ । खुद अब्दाली ने ही मुगलों पर मराठों की हुकूमत को स्वीकार कर लिया । अब्दाली पुणे पर कब्जा करने का ख़्वाब देख रहा था लेकिन मराठी तलवारों का स्वाद चखने के बाद वो उल्टे पाँव भारत से भाग गया और फिर कभी वापस नहीं लौटा ।
लेकिन इतिहासकारों ने धोखा किया… भारतीय इतिहास के इन सच्चे नायकों को तिरस्कृत कर दिया गया । स्कूल की किताबों में मराठा इतिहास को एक पैराग्राफ में समेट दिया गया । टीपू सुल्तान की प्रशंसा में कई पन्ने काले कर दिये गए । कब तक इस अन्याय को सहा जायेगा ? ये हम सबको सोचना होगा !
दिलीप पाण्डेय
वसुधैव कुटुंबकम… वंदेमातरम…