लघुकथा –2
“गणेशचौथ”
डॉ. ऋचा शर्मा
गणेश चौथ का व्रत था| सासूजी सुबह से ही नहा-धोकर नयी साड़ी पहनकर तैयार हो गईं| तिल के लड्डू, तिलकूट और भी बहुत कुछ घर में बन रहा था| सासूजी खुद तो व्रत रखती ही थीं आस-पड़ोसवालों से भी पूछती रहतीं – आज गणेश चौथ है आप भी व्रत होंगी ?
नहीं या हाँ के उत्तर के बाद एक प्रश्न दग जाता – और आपकी बहू ?
उसके लड़का नहीं है ना ? लड़के की माँ ही गणेशचौथ और अहोई का व्रत रखती है |
ना चाहते हुए भी सिया के कानों में आवाज पड़ ही जाती थी | तभी उसने सुना छोटी बेटी आस्था दादी से उलझ रही है – दादी! लड़के के लिए व्रत रखती हैं आप, लड़की के लिए कौन-सा व्रत होता है ?
ऐं — लड़कियों के लिए कोई व्रत रखता है क्या ? दादी बोलीं।
पर क्यों नहीं रखता – रुआँसी होती आस्था ने पूछा |
अरे, हमें का पता| जाकर अपनी मम्मी से पूछो, बहुत पढ़ी-लिखीं है वही बताएंगी|
आस्था रोनी सूरत बनाकर सिया के सामने खड़ी थी| आस्था के गाल पर स्नेह से हल्की चपत लगाकर वह बोली – ये व्रत, पूजा सब संतान के लिए होती है|
संतान मतलब ?
हमारे बच्चे और क्या ।
आस्था के चेहरे पर भाव आँख – मिचौली खेल रहे थे | सासूजी रात में गणपति जी की पूजा करने बैठीं | उन्होंने अपने बेटे को टीका लगाया और आरती उतारी | सिया ने अपनी बेटियों को टीका लगाकर, आरती उतारी और उनकी दीर्घायु की कामना की | अदिति, आस्था खिल उठीं | तिलकूट की सौंधी महक घर भर में पसर गई थी |
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पता –
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