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श्रीमद् भागवत कथा : नव योगेश्वर संवाद – चतुर्थ पुष्प : आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

श्री नव योगेश्वर संवाद चतुर्थ पुष्प!!

आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

सत्संग का अवसर सुलभ हो, नव योगेश्वर जैसे महान संत उपदेश प्रदान करने के लिए तत्पर हो और महाराज निमी जैसा सुपात्र उसको अपने कर्ण पात्रों में धारण करके अपने हृदय में स्थापित करने के लिए तत्पर हो, इससे सुंदर और पवित्र संयोग दूसरा कोई नहीं हो सकता है।

महाराज निमी कहते हैं कि योगेश्वर आप हमको अद्भुत भागवत धर्म का उपदेश प्रदान करिए, क्योंकि ईश्वर को प्राप्त करने के लिए भक्ति के किस पथ का अनुसरण किया जाए तथा किस पद्धति को स्वीकार कर गतिशील हुआ जाए, भागवत धर्म के द्वारा स्पष्ट रूप से यह ज्ञान प्राप्त हो सकता है तथा यह सबसे सहज एवं उपयुक्त पद्धति है ईश्वर के चरणों को प्राप्त कर अपने हृदय में स्थापित करने के लिए।

इतना कुछ कहने के बाद महाराज निमी थोड़ा संकुचित हो गए ऐसा लगा जैसे कि वह कुछ अपेक्षा कर रहे हैं। जबकि संत के समक्ष प्रणिपात पूर्वक उपदेश की प्रार्थना की जानी चाहिए न कि किसी विषय विषय के विषय में ज्ञान को प्रदान करने की इच्छा का प्रदर्शन। उन्होंने बात को संभालने का प्रयास किया और कहा कि यदि आपको ऐसा प्रतीत होता है कि हम उस महान विषय का श्रवण करने की योग्यता रखते हैं तब आप हम को उसके विषय में ज्ञान प्रदान करें।

यहां से यह संवाद एक सुव्यवस्थित स्वरूप को ग्रहण करता है। महाराज निमि ने नव योगेश्वरओं से 9 प्रश्न किए जिनका कवि, हरि, अंतरिक्ष प्रभृति ने क्रमशः उत्तर प्रदान किया है।

प्रथम प्रश्न महाराज निमि ने योगेश्वर कवि से भागवत धर्म के विषय में पूछा। ऐसे कल्याण की चर्चा जिसके बाद कुछ और प्राप्त करना शेष न रह जाए अर्थात आत्यंतिक क्षेम।

नव योगेश्वर ने कहा के महाराज निमि आपका यह प्रश्न लोक हितकारी है अर्थात यह आपके व्यक्तिगत स्वार्थ की पूर्ति मात्र नहीं करता, अपितु आप के माध्यम से मानव जाति को भी कल्याण का पथ निर्दिष्ट करता है। योगेश्वर कवि कहते हैं कि इस संसार में निवास करने वालों का जो कष्ट है, उसका मूल कारण यह है कि जो निरंतर परिवर्तनशील है, जिसमें प्रतिक्षण गति है, जो वस्तुतः किसी का भी नहीं है l ऐसे साधनों को, ऐसे संबंधों को, ऐसे सम्मान को व्यक्ति अपने अहंकार के कारण अपना मान कर जकड़ लेना चाहता है, जबकि यह सब किसी के भी हाथ में, किसी की भी मुट्ठी में टिके रहने वाले नहीं हैं। जो सदैव सरकता रहता है अर्थात स्थिर नहीं होता वही संसार है। हमारा उद्वेग बढ़ता जाता है, हमारी अंदर की दुश्चिंता बढ़ती जाती है कि जो कुछ हमने अपने हाथ में पकड़ रखा है, वह टिकेगा कि नहीं? इस मूल कारण के कारण उद्वेग बढ़ता जाता है किंतु आश्चर्य का विषय यह है कि हमको अपनी व्याधि का ज्ञान ही नहीं होता! हम प्रदर्शित यही करते हैं कि हम प्रत्येक प्रकार की श्रृंखला से मुक्त हैं और हमारे ऊपर किसी का प्रभाव नहीं है। न किसी ने हमको पकड़ा है, ना हमने किसी को पकड़ा है। किंतु व्याधि ही की जटिलता तो इस बात से ही स्पष्ट होती है कि जिसको हो उसको उसका ज्ञान ही प्राप्त ना हो पा रहा हो।

आप किसी मानसिक रोगी को यह बताइए कि वह अस्वस्थ है तब वह इस बात को कभी भी स्वीकार नहीं करेगा और अपने तर्कों से आपको ही अस्वस्थ सिद्ध करने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार से संसार के मोह चक्र में फंस कर के व्यक्ति अपने उद्वेग, अपने कष्ट, जिसके कारण वह अनेकानेक व्याधियों से ग्रस्त होता है, को पहचान ही नहीं पाता है।

एकमात्र औषधि सत्संग ही है जिसके माध्यम से चित्त वृत्ति शांत हो सकती है और जीवन के सत्य की प्राप्ति हो सकती है।

चिकित्सा विज्ञान भी इस बात को पुष्ट कर चुका है, सिद्ध कर चुका है कि अधिकांश व्याधियों का मूल कारण मनोवेग ही होते हैं, मनोविकार ही होते हैं। चिंतन यदि पारदर्शी हो, स्वस्थ हो आक्रामक न हो तो बहुत सी व्याधियों से बचा जा सकता है। मैं एक प्रतिष्ठित मेडिकल संस्थान की रिसर्च रिपोर्ट देख रहा था जिसमें उन्होंने सिद्ध करने का प्रयास किया है कि अत्यधिक तनाव के कारण विभिन्न प्रकार के त्वचा रोग भी उत्पन्न हो सकते हैं। भागवत धर्म चित् को शांत करने, चित् को सुव्यवस्थित करने और स्थिर बनाने का प्रयास करता है जिससे मनुष्य के जीवन को अर्थवत्ता की प्राप्ति होती है।

हमारी बुद्धि स्थिर ही नहीं होती है। बार-बार कर कूद करके करके कभी यहां कभी वहां, कभी इस लक्ष्य पर कभी उस लक्ष्य पर, कभी इस चिंतन पर कभी उस चिंतन पर, असंख्य शाखाओं पर जा कर के फुदकती रहती है और उसके इस प्रकार से गतिशील होने के कारण हमारा व्यक्तित्व भी स्थिरता से रहित हो जाता है।

योगेश्वर कवि कहते हैं भगवान के जो चरण कमल हैं उनकी उपासना करो। उनके सुगंधित रस का पान करोगे तो बुद्धि अपने आप स्थिर हो जाएगी, भटकना बंद हो जाएगा, उद्वेग शांत हो जाएगा और तुम स्वयं को स्थिर भाव में पाओगे।

पूरा न सही, आभासी रूप में उसके एक अंश का ही स्पर्श तो करो। ऐसी परिस्थिति में भी पूर्ण आनंद की प्राप्ति होगी। एक छोटा सा बालक अपने पिता या बाबा के साथ कंपनी बाग में या किसी बड़े बाग में प्रातः कालीन भ्रमण के लिए जाता है तो वह अपने बाबा की मात्र उंगली पकड़े रहता है। न बाबा ने उसको पूरा पकड़ा हुआ है, न उसने बाबा को पूरा पकड़ा हुआ है। किंतु उस एक उंगली के स्पर्श बंधन से ही वह बाबा के साथ बंध करके पूरे सुरक्षा भाव के साथ रहता है कि उसके ऊपर बाबा का छत्र है, आश्रय है।

उसी प्रकार से ईश्वर के किसी भी पद का स्पर्श प्राप्त हो जाए: चार पद हैं उनमें से किसी का भी चाहे हिरण्यगर्भ हो, चाहे तुरीय ही स्पर्श हो जाए तो उसी आनंद की उसी भक्ति की प्राप्ति होती है जिसकी अपेक्षा प्राणी मात्र के द्वारा की जाती है। जो लौकिक प्राणी है, जिनको मात्र धन और संसाधनों की ही अपेक्षा है, उनको यह बात समझ में नहीं आएगी। जबकि उन्होंने अपने जीवन में भी देखा है कि जिनके पास यह साधन और सामर्थ्य थी वह सब समय बीतते बीतते या तो चली गई या वह स्वयं उसका उपयोग उपभोग करने के लायक नहीं बचे।

श्रीमद्भागवत कहती है कि यदि ईश्वर की आराधना करोगे तो जिस प्रकार से अपने पिता के संरक्षण में बालक सुरक्षित रहता है, उसी प्रकार से तुम भी ईश्वर के संरक्षण में न केवल सुरक्षित रहोगे अपितु विवेक युक्त होकर अपने जीवन को सकारात्मक रूप से गतिशील भी कर पाओगे।
अतः बड़ी स्पष्ट सी बात है कि यदि हम चाहते हैं कि दुखी ना हो, मृत्यु के भय से मुक्त हो जाएं, हमें कोई मूर्ख ना बना पाए और हम प्रत्येक प्रकार के भेद से – मोह से रहित हो जाए तो उसका एकमात्र साधन है कि हम भक्ति के पथ का अनुसरण करें। भागवत धर्म का प्रारंभ यहीं से होता है।

भागवत धर्म में कर्मकांड की प्रधानता नहीं है। यहां पर भाव की प्रबलता की प्रधानता है। हमने किस उपकरण से यज्ञ किया ? कौन से रंग का विशिष्ट वस्त्र धारण करके कौन से विशिष्ट आसन पर बैठकर के पूजन किया ? कितनी बार घंटी बजाई ? कौन कौन से मंत्र पढ़े ? किस क्रम में षोडशोपचार या पंचोपचार पूजन संपन्न किया ? यह सब कर्मकांड के क्षेत्र में विशेष रुप से आता है अर्थात यदि किसी प्रकार का कोई व्यतिक्रम हो जाए तो पूजन में विघ्न के रूप में उसको स्वीकार करते हैं किंतु भागवत धर्म में भाव की प्रबलता में यदि अटपटी पूजा भी संपन्न हो जाए तब भी कोई समस्या नहीं है।

क्योंकि हम जिसको चाहते हैं, उससे हमारी कोई चाहत नहीं है। किसी लक्ष्य- स्वार्थ की पूर्ति के लिए पूजन नहीं कर रहे हैं। अतः सहज रूप से भी उस पूजन की संपन्नता को हम संपादित कर सकते हैं।

इसको थोड़ा और स्पष्ट करें तो इसका तात्पर्य होता है कि हम सर्वांग रूप से अपने व्यक्तित्व के समस्त अंगों से ठाकुर जी की उपासना संपन्न करें। वही भागवत धर्म है। भक्ति के मार्ग में गिरने का कोई भय नहीं होता न्यूनता होने पर भी आगे बढ़ने का पथ अवरुद्ध नहीं होता जबकि अन्य अन्य साधनों में थोड़ा सा भी कुछ सामर्थ्य प्राप्त हो जाए तो अहंकार ही व्यक्ति को आगे बढ़ने से रोक देता है।

भागवत धर्म का नियम यह नहीं है कि कोई सुनिश्चित कर्म ही संपन्न किया जाए, अपितु भागवत धर्म का नियम यह है कि कर्म को ईश्वर को समर्पित किया जाए भले ही वह लौकिक कर्म क्यों ना हो? कर्म को ईश्वर को समर्पित किया जाना ही अनिवार्य है भागवत धर्म में।

अब हम अपने शरीर से जो काम करें वह किसी को कष्ट देने के लिए न हो। उससे लोगों का हित संपन्न हो। इस बात का ध्यान रखें कि हमारी वाणी से अशुभ, आक्रामक और अशुद्ध न निकले। हमारी वाणी किसी को अपमानित न करें। हम उससे भगवत भजन करें , सद वाक्यों का प्रयोग करें तथा सकारात्मक चिंतन करें। हमारे नेत्र अशुभ दर्शन न करें, वह छिद्र अन्वेषण न करें। जो देखे वह शुद्ध हो, शुभ हो। हमारे हाथ उत्तम कार्यों को संपादित करें। उनका प्रयोग किसी को कष्ट देने में न हो। हम भोजन भी निर्मित करें तो वह ईश्वर को भोग लगाने के उद्देश्य से निर्मित करें।

बिना भोग लगाए तो वह मात्र निष्क्रिय भोजन मात्र ही होगा। इसी प्रकार से हम अपने जीवन को ईश्वर के भाव के प्रति समर्पित कर देंगे तो पूरा जीवन ही ईश्वरमय हो जायेगा तथा उनकी कृपा से प्रसादित हो जाएगा। वह स्वयं में ही ईश्वरार्चन हो जाता है।

ऐसा करने से संपूर्ण व्यक्तित्व स्वयं पवित्र होकर मंदिर में परिणत हो जाता है तथा ईश्वर का अनुसंधान करने के लिए उसका अनुभव प्राप्त करने के लिए कहीं बाहर जगत में खोजने की आवश्यकता नहीं होती। हम भगवान की माया से ग्रस्त हैं। माया मोह उत्पन्न करती है। मोह भय का मुख्य कारक है। वह ईश्वर, वह नारायण जो माया को नियंत्रित करता है। यदि हमारे जीवन में हमारे अध्यवसाय से, गुरु की कृपा से, परंपरा से संबद्ध हो जाता है तब मोह की स्वयमेव निवृत्ति हो जाने के कारण हम भय से रहित हो जाते हैं।

हमारा भय इसलिए है कि हम लक्ष्य आधारित तथा प्रतिदान आधारित व्यवस्था में विश्वास करते हैं। जो कुछ हमने बनाया, चाहे साधन हो, चाहे संपर्क हो, चाहे परिवार हो, वह सब हमारे साथ रहे। या यूं समझो कि वह हमारे नियंत्रण में रहे। कुछ भी हमसे छूटे नहीं। जब यह भाव उत्पन्न होता है तो भय की स्वयमेव उत्पत्ति हो जाती है क्योंकि यह तो आप भी जानते हो कि स्थिर तो कुछ भी नहीं है। जो आज दृष्टिगोचर हो रहा है, वह कल नष्ट हो जाएगा। यहां तक कि आप भी जो आज हो, वह कल नहीं थे तथा आगामी दिवस में वह नहीं रहोगे जो आज हो। जल की धारा का दर्शन जब हम करते हैं तो वह निरंतरता में प्रवहमान प्रतीत होता है, किंतु वास्तव में हर क्षण जल के कण परिवर्तित होते रहते हैं। हमको मात्र निरंतरता के कारण एकरूपता का दर्शन होता है।

इस अंश में मात्र इतना ही शेष संवाद विस्तार आगामी अंक में।

ll शुभम भवतु कल्याणम ll

एक परिचय

परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है।
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।

मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।

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