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श्रीमद् भागवत कथा : नव योगेश्वर संवाद – पंचम पुष्प : आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

श्री नव योगेश्वर संवाद पंचम पुष्प!!

आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज

जब संतों के साथ मुमुक्षु भक्तों की गंभीर धार्मिक चर्चा प्रारंभ होती है, तब उसमें से बहुत से सूत्र निकल कर के आते हैं और बहुत सी आशंकाओं और बहुत सी शंकाओं का समाधान स्वयमेव होता चला जाता है।

महाराज निमी को समझाते हुए योगेश्वर कवि कहते हैं कि व्यक्ति को अपने आध्यात्मिक जीवन की यात्रा प्रारंभ करने के पूर्व अपने इष्ट का चयन करना चाहिए तथा उसके नाम का भजन प्रारंभ करना चाहिए l ऐसा व्रत अपने जीवन में ले लो और फिर उस नाम के उच्चारण को करते हुए इतने तन्मय हो जाओ कि निरंतरता में उसका श्रवण और कीर्तन चलता चले और तुम्हारा स्वर निम्न है या उच्च है तुमको इसका भी भान है या नहीं इससे कोई अंतर नहीं पड़ता l बस तुम उस स्वरूप के साथ एकाकार हो जाओ l भगवान के नाम की या अपने इष्ट के नाम की निरंतर निरंतर स्मरण करने की प्रक्रिया उच्च स्वर में हृदय को द्रवीभूत करती हैं l अंदर से हृदय उस भक्ति की ऊष्मा से उष्ण हो जाता है तथा उसमें स्थित समस्त आकृतियां पिघलने लगती हैं l चाहे वह पत्नी की हो, बच्चे की हो, मित्र की हो, शत्रु की होो, प्रतिद्वंद्वी की हो, सब आकृतियां पिघलने लगती हैं और द्रवीभूत हो करके एकाकार हो जाती हैं ईश्वर के स्वरूप के साथ l कहीं पर कोई भेद शेष नहीं रहता l जिस प्रकार से स्वर्ण के विभिन्न आभूषणों की आकृति भिन्न होने पर भी अग्नि में गरम किए जाने पर पिघला हुआ शुद्ध स्वर्ण प्रकट हो जाता है l उसी प्रकार से यह समस्त आकृतियां द्रवीभूत हो करके ईश्वर के साथ एकाकार हो जाती हैं l भेदभाव की समाप्ति हो जाती है l ठाकुर के चरण कमल हृदय में स्थापित हो जाते हैं।

यह बात मैं इसलिए कह रहा हूं क्योंकि जो भी विकार हैं वह बाहर से अंदर नहीं आते वह अंदर स्थापित है और वहां से बाहर आते हैं l उदाहरण के तौर पर आपके घर में या कार्यालय में किसी कर्मचारी ने कोई साधारण सी वस्तु त्रुटि के कारण तोड़ दी l ₹200 या ₹500 की चीज थी किंतु आप को बहुत क्रोध आया l आपने न केवल उसको सबके सामने अपमानित किया बल्कि उसकी 1 दिन की तनख्वाह भी काट ली l किंतु आपके घर पर आपके किसी अपने ने विदेश से लाया हुआ आपका एक आर्टीफैक्ट, कला का नायाब नमूना उसी त्रुटि के आधार पर गिरा करके तोड़ दिया l किंतु आपको क्रोध नहीं आया l नैसर्गिक न्याय के आधार पर तो ₹500 की वस्तु के टूटने पर जितना क्रोध आया था उससे कहीं बहुत ज्यादा क्रोध इस नमूने के टूटने पर आना चाहिए था क्योंकि दोनों वस्तुएं बाहर की थी l किंतु ऐसा नहीं हुआ l स्पष्ट है कि चाहे क्रोध हो या काम हो यह सभी भीतरी समस्याएं हैं और अपने हृदय में ठाकुर को स्थापित करके ही इन दुर्गुणों से और इन प्रदूषित करने वाली स्थितियों से मुक्त रहा जा सकता है।

योगेश्वर कभी कहते हैं भगवान श्री कृष्ण कालचक्र के नियंता हैं l उनके विभिन्न जन्मों की कथा का श्रवण करना, उसका अनुभव करना, जहां संभव हो विद्वत जनों से श्रवण करना यह भक्ति को प्राप्त करने की दिशा में अग्रसर होने का एक कदम हो सकता है l वह कहते हैं कि अपनी भावनाओं को भक्ति के क्षेत्र में प्रकट करने के लिए देव भाषा का ही प्रयोग किया जाए यह आवश्यक नहीं है l आप लोगों की भाषा में भी अपनी भावना को अभिव्यक्ति प्रदान कर सकते हैं l कबीर ने तुलसी ने अपनी अपनी भाषाओं में ही भावों को अभिव्यक्ति प्रदान की है l यह तो भक्ति की गाथा है, भक्ति का गीत है इसका गायन करने में काहे की लज्जा ? खुलकर के दोनों हाथ उठाकर के

हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ll

का उद्घोष यदि करोगे तो हृदय की सारी ग्रंथियां खुल जाएंगी और ग्रंथि रहित होकर के ईश्वर के साथ ही तुम्हारा ग्रंथि बंधन संपन्न हो जाएगा जिसके साथ बंध जाने के बाद फिर किसी और से बंधना शेष नहीं रहता l

किंतु यहां पर समस्या यह है नाम उच्चारण करने में बहुत संकोच और लज्जा का अनुभव होता है और हाथ उठाना तो दूर हिलाना भी अच्छा नहीं लगता जबकि क्लबों में लेट नाइट पार्टीज में नाना प्रकार से नृत्य और संगीत का आनंद लेने पर भी कोई संकोच का अनुभव नहीं होता l

योगेश्वर कवि के द्वारा भागवत धर्म का यह संक्षिप्त विवरण सुनकर के महाराज निमी के हृदय में बहुत शांति की अनुभूति उत्पन्न हुई अब उन्होंने प्रश्न किया के जो भगवान के भक्त हैं उन के क्या लक्षण हैं तथा उनकी क्या श्रेणियां हैं?

अब इस प्रश्न का उत्तर द्वितीय योगेश्वर हरि के द्वारा प्रदान किया जाता है l अब यहां पर एक बात समझें अपने हृदय के भाव के अनुसार तो साक्षात हरि ही तो बता सकते हैं कि उनके भक्तों में क्या-क्या वैशिष्ट्य होता है तथा क्या श्रेणियां होती हैं ?

योगेश्वर हरी सर्वप्रथम जो सबसे श्रेष्ठ भक्त होते हैं उनके लक्षण के विषय में चर्चा करते हैं l वह कहते हैं कि जो संसार के प्रत्येक संदर्भ में, प्रत्येक प्राणी और प्रकृति के प्रत्येक सूत्र में ईश्वर का दर्शन करता है तथा ईश्वर में बाकी समस्त संदर्भों का दर्शन करता है वहीं सर्वश्रेष्ठ भगवद भक्त होता है l संसार से उसको ईश्वर का भेद समझ में ही नहीं आता है l वह स्वयं को ईश्वर में और ईश्वर को स्वयं में ही अनुभव करता l सब के प्रति उसकी समान दृष्टि होती है l ना कहीं राग है ना कहीं द्वेष है सर्वत्र समभाव है l

ऐसी वृत्ति के साथ ईश्वर भजन करने वाला ही सर्वश्रेष्ठ भक्त होता है l किसी भी स्थिति या परिस्थिति में उसको ना द्वेष होता है ना उसको हर्ष होता है और वह समस्त संसार को विष्णु माया के रूप में स्वीकार करता हुआ अपने भजन में, अपने भाव में अपने चिंतन में ,अपने भगवान नाम गायन में रत रहता है l

वास्तव में जो श्रेष्ठ भक्त होता है उसको ठाकुर जी से किसी प्रकार की अपेक्षा नहीं होती l मुक्तिया चार प्रकार की हैं वैष्णव ग्रंथों के अनुसार सालोक्य, सारूपय, सामीप्य एवं सायुज्य l

जब ठाकुर जी प्रसन्न होकर के भक्तों को यह प्रदान करना चाहते हैं तो भक्त कहता है कि हमको तो इसकी कोई आवश्यकता नहीं है l हम तो बस आपके नाम का उच्चारण करते हुए भक्ति भाव से जीवन यापन करना चाहते हैं l वृंदावन के कई भक्त तो इतने अद्भुत हुए हैं कि भगवान नाम उच्चारण करते हुए बाबा के समक्ष ठाकुर जी प्रकट हुए तो बाबा ने कहा व्यवधान मत डाला करो भजन के समय l जाओ- जाओ अभी हमको भजन करने दो l बाद में तुमसे बात करेंगे l यह भक्ति का भाव है जो कितना अद्भुत है।

तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जो श्रेष्ठ भक्त है उसको ईश्वर ही चाहिए, ईश्वर के नाम के साथ अपनी संबद्धता चाहिए उसे ईश्वर से कुछ नहीं चाहिए l

इसके उपरांत वह द्वितीय श्रेणी के भक्तों की चर्चा करते हैं कहते हैं कि यह भक्त कुछ अलग प्रकार का होता है l इस के हृदय में कतिपय वर्गीकरण होते हैं अर्थात यह सब को एक ही दृष्टि से नहीं देखता l वह ईश्वर से तो बहुत प्रेम करता है, ईश्वर के जो भक्त हैं उनसे तथा उनके प्रति मैत्री भाव रखता है l इस संसार में जो कष्ट का भोग कर रहे हैं , पीड़ित हैं उनके ऊपर कृपा करताt है तथा जो द्वेष युक्त हैं , जो ईश्वर के प्रति समर्पित नहीं है उनकी उपेक्षा कर देता हैl

यह द्वितीय श्रेणी का भक्त है क्योंकि यह प्रत्येक प्राणी में ईश्वर दर्शन करने की सामर्थ्य से रहित है l किंतु फिर भी इस श्रेणी से निम्न श्रेणी की भक्ति सामाजिक, आध्यात्मिक एवं दार्शनिक संदर्भों में युक्तियुक्त नहीं मानी जा सकती l क्योंकि इस भेद का कारण यह है कि हम अपनी भावना अपने विचार अपनी जीवन पद्धति औरों पर आरोपित करना चाहते हैं l बिना यह विचार किए हुए कि यह मनुष्य के निजी स्वतंत्र का हनन करना होगा l किसी से अपने अनुरूप आचरण की अपेक्षा करना ही उपेक्षा एवं कष्ट का मूलभूत कारण बन जाता है अतः अभाव, प्रभाव एवं दुर्भाव से बचते हुए स्व भाव में ही रहना चाहिए l

योगेश्वर हरि तृतीय श्रेणी के भक्तों का वर्णन करते हैं l वह मात्र मूर्ति पूजन संपन्न करता है l मूर्ति में ही ईश्वर दर्शन करता है l अर्थात अन्य प्राणियों में वह ईश्वर का दर्शन नहीं करता l जो ईश्वर के भक्त हैं उनसे मैत्री भी नहीं करता l अन्यान्य प्राणियों में जो ईश्वर विद्यमान है उसके प्रति भी उसका कोई सद्भाव नहीं है l बस वह मूर्ति को पकड़ कर के बैठा हुआ है।

भिन्न रूप से कहे तो किसी भी व्यक्ति का पूजन उसके पूजा ग्रह से खींच कर के जब तक समाज के बीच में नहीं लाया जाएगा तब तक वह पूजा विशुद्ध आध्यात्मिक संदर्भों में निष्फल जैसी ही है l क्योंकि वासुदेव प्रत्येक प्राणी के हृदय में निवास करते हैं और लोगों के कष्टों का निवारण करने में कम से कम अपनी न्यूनतम सामर्थ्य का विनियोग ही मानव धर्म की प्रतिष्ठा के लिए अत्यंत अनिवार्य है l किंतु संभावनाएं समाप्त नहीं होती l हमको यह संतोष करना चाहिए कि कम से कम न्यूनतम आधार पर उसने भक्ति के इस प्रासाद में प्रवेश करने के लिए प्रथम सोपान पर अपना चरण तो रखा l ठाकुर जी की कृपा होगी, गुरु कृपा होगी, उसका अपना संकल्प होगा तो वह निश्चित रूप से भक्ति के अन्य चरणों पर आरोहण करता हुआ ईश्वर कृपा अवश्य प्राप्त करेेगा।

इस अंश में मात्र इतना ही शेष संवाद विस्तार आगामी अंक में।

ll शुभम भवतु कल्याणम ll

एक परिचय

परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है।
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।

मानव सेवा माधव सेवा आपके जीवन का मूल उद्देश्य है।

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