श्री नव योगेश्वर संवाद द्वितीय पुष्प!!
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
कभी-कभी भगवान वासुदेव कृष्ण की ऐसी कृपा परिवर्धित होती है कि भ्रम में तथा माया के आवरण से बंधा हुआ मनुष्य भी उनकी कृपा से उस आवरण से मुक्ति प्राप्त करने के उद्देश्य से ठाकुर जी के द्वारा प्रेषित संत को अपने समक्ष पाता है।
जब कृपा की अनुकूलता होती है, तब सामाजिक नियम- बंधन शिष्टाचार कोई मूल्य नहीं रखते हैं एवं जीवन को धन्यता की प्राप्ति होती है। साक्षात ईश्वर के पिता होने पर भी वासुदेव को तथा माता होने पर भी देवकी को वह ईश्वरीय तत्व का प्रबोध प्राप्त नहीं हो पाया जो अपेक्षित था। बात भी सही है। गंगा के क्षेत्र में निवास करने वाले व्यक्तियों के हृदय में गंगा के प्रति कोई विशेष सम्मान हो यह आवश्यक नहीं है। निकटता की अति भी कई बार अवज्ञा को, उपेक्षा को उत्पन्न करती है। प्रयाग में रहने वाले गंगा के प्रति इतने समर्पित नहीं हो सकते जितना कि मारवाड़ में, जहां पर जल का अभाव होता है, गंगा की प्रतिष्ठा एवं सम्मान होगा।
नारद जी के आगमन के तुरंत पश्चात ही वासुदेव जी ने अपने हृदय की बात अर्थात अपने भ्रम को दूर करने के लिए ईश्वरीय ज्ञान को प्राप्त करने की अपेक्षा प्रदर्शित नहीं की क्योंकि यह अतिथि धर्म के विरुद्ध है कि अतिथि आपके द्वार पर आए और आप उसकी सेवा करने के पूर्व ही अपनी इच्छा, अपनी अपेक्षा उसके समक्ष प्रकट कर दें। अतः पहले उन्होंने उनका षोडशोपचार पूजन संपन्न किया। उस पूजन के करने के उपरांत जब दोनों बैठे हैं, तब वासुदेव जी ने अप्रत्यक्ष रूप से अपनी बात को कहना प्रारंभ किया।
किसी भी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा के पूर्व जो शिष्टाचार होना चाहिए, उसका भली प्रकार से वासुदेव ने निर्वहन किया। उन्होंने साधु के हृदय की विशालता की चर्चा की। उन्होंने साधु की दयालुता के विस्तार पर अपने विचार व्यक्त किए तथा कहा कि जिन लोगों पर समाज की कोई दृष्टि नहीं होती, जिनसे किसी प्रकार के स्वार्थ की पूर्ति संभव नहीं है, जिन्हें समाज उपेक्षा की दृष्टि से देखता है, उनके प्रति भी साधु के चित में न विरोध होता है, न क्लेश होता है और न उनको किसी से कामना होती है। वह सर्वतोभावेन मानवता की मुक्ति के उद्देश्य से अपने ठाकुर के नाम का उच्चारण करते हुए संलग्न रहते हैं।
वासुदेव ने बड़ी श्रद्धा के साथ नारद जी से प्रश्न किया, अपनी उत्सुकता प्रकट की कि क्या आप मुझे अत्यंत पवित्र भागवत धर्म का उपदेश प्रदान करेंगे ? श्रद्धा पर बल इसलिए दिया जा रहा है क्योंकि अगर श्रद्धा नहीं होगी तो आप अपने मूल ऊर्जा स्रोत से पृथक हो जाएंगे। बल्ब कितना ही बड़ा क्यों न हो किंतु वह जलता है विद्युत के संयोजन के माध्यम से। यदि तार में कोई गड़बड़ी आ जाए या फ्यूज उड़ जाए तो बल्ब का जलना संभव नहीं होता। उसी प्रकार से श्रद्धा न केवल उस परमपिता के साथ संबद्धता को बनाए रखने का माध्यम है अपितु कष्ट में आने पर उसी स्रोत से पुनः ऊर्जा प्राप्त करके खड़ा होने की व्यवस्था भी है।
वासुदेव जी कहते हैं कि है नारद जी मैंने पूर्व कालों में ईश्वर का बहुत भजन और यजन संपन्न किया है। मेरी मूल वृत्ति मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करने की ही थी, किंतु ईश्वरीय माया के वशीभूत होकर जब स्वयं ठाकुर जी ने कहा कि तुम्हें हमारे माता पिता के रूप में ही धरा पर अवतरित होना होगा, तब उनकी माया से प्रभावित होकर के हमने उनको अपने पुत्र के रूप में स्वीकार कर लिया। वैष्णवी माया के आश्रय से नारायण ने अपना इतना मोहक स्वरूप प्रदर्शित किया कि हम उसके प्रभाव से मुक्त न रह सके तथा हमने अपने मुक्ति के या मोक्ष के लक्ष्य को विस्मृत कर दिया।
वह कहते हैं कि महाराज आप हमको भागवत धर्म का उपदेश प्रदान करिए क्योंकि हमारे अपने ज्ञान के अनुसार ईश्वर के तादात्म्य को प्राप्त करने के लिए सबसे सरल एवं सहज मार्ग भागवत धर्म के द्वारा ही प्रदान किया जाता है , अन्य सभी पथ बहुत कठिन है। अतः हे नारद जी भागवत धर्म के सुगम पथ से होकर मोक्ष को प्राप्त करने की दिशा में हमें प्रेरणा प्रदान करिए। हमारे ऊपर कृपा करिए!
ऐसा उपयुक्त एवं उत्तम प्रश्न सुनकर नारद जी प्रसन्न हो गए क्योंकि प्रश्न की गुणवत्ता व्यक्ति की दार्शनिक एवं आध्यात्मिक सामर्थ्य को भी परिलक्षित करती है कि वास्तव में उसके जीवन की प्राथमिकता तथा आत्यंतिक लक्ष्य क्या है ? आप यह पूछो कि धन कैसे मिलेगा ? पत्नी कैसे मिलेगी? गाड़ी कैसे मिलेगी ? बहुत बड़ी हवेली कैसे मिलेगी ? यह तो ठाकुर जी व्यक्ति की अपनी पात्रता के अनुसार उसको प्रदान करते ही हैं। प्रश्न जीवन में यह नहीं हो सकता कि यह सब हम कैसे प्राप्त करें ? इसके लिए तो ईश्वर की कृपा से संबंधित पुरुषार्थ का वरण करना पड़ता है, तदुपरांत सिद्धि प्राप्त होती है। किंतु प्रश्न वही है जो किन्हीं संत जन के चरणों में बैठकर के पूछा जाए कि ऐसी कृपा करो जिससे यह हो सके कि हम उस ईश्वर के साथ एकात्म भाव का अनुभव प्राप्त कर सकें तथा इस संसार में हम बंधे हुए हैं, उस संसार की जंजीरे हमको- हमारे व्यक्तित्व को – हमारी आत्मा को जकड़ न सके।
इस अद्भुत संवाद में एक गुप्त सूत्र भी है। वह यह है कि भगवान श्री कृष्ण ने पुत्र रूप में जन्म लेकर अपने पिता और मां की बहुत सेवा की। उन्होंने नाना प्रकार के यजन -पूजन -अनुष्ठान आदि संपन्न करवाएं किंतु उस स्थिति में भी वासुदेव जी भगवान श्रीकृष्ण से कहते हैं कि तुम तो ब्रह्म हो!
भगवान श्री कृष्ण ने कहा, पिताजी यह ब्रह्म तो आपके मेरे तथा सर्वत्र प्रत्येक प्राणी के भीतर विद्यमान है।अतः आप भी ब्रह्म हो और मैं भी ब्रह्म हूं। किसी भी प्रकार के भ्रम में मत पड़ो!
ऐसी स्थिति में ठाकुर जी सोचते हैं कि हमारी उपस्थिति भी इनको ज्ञानी नहीं बना सकी, इनके चित् को प्रशस्त नहीं कर सकी तो अब हम अपने भक्तों को यह अवसर प्रदान करते हैं। उनको यह गौरव प्रदान करते हैं कि वह हमारे स्वरूप का ज्ञान हमारे पिता को कराएं। और वैसे भी भागवत का सूत्र कहता है कि यह भगवान नहीं अपितु भगवान के श्रेष्ठ भक्तों की कथा का गायन करता है, जिन्होंने भगवान के चरणों के आश्रय से ईश्वर की सन्निधि में रहने वालों के चित् में भी भ्रम उत्पन्न होने पर उसको दूर कर दिया। अतः यह कह सकते हैं कि ठाकुर से भी बड़ा ठाकुर का नाम है, ठाकुर का ध्यान है, ठाकुर का कीर्तन है, उनका स्मरण है।
नारद जी भी अपने मन में यह सोचते हैं कि यह ठाकुर जी की कितनी बड़ी उदारता है, कितना विशाल हृदय हैं उनका कि वह यह श्रेय मुझे प्रदान करना चाहते हैं!
नारद जी ने कहा कि हे वासुदेव आपने अत्यंत प्रासंगिक तथा विश्व का कल्याण करने की सामर्थ्य रखने वाला प्रश्न पूछा है। अनेक धर्म ऐसे होते हैं जो व्यक्ति विशेष या विशेष अर्हता रखने वालों को अपनी कृपा प्रदान करते हैं l उन्हें शुद्ध करते हैं, किंतु भागवत धर्म ऐसा है जो सर्वांगीण है, अपनी प्रकृति में वह जाति और धर्म से परे, समुदाय और संप्रदाय से परे प्रत्येक प्राणी को शुद्ध करने की सामर्थ्य रखता है यदि वह उसका आश्रय ग्रहण करें तो!
किसी विद्वान पुरुष से ज्ञानी पुरुष से जब कोई बुद्धिमत्ता पूर्ण लोक का कल्याण करने की प्रेरणा प्रदान करने वाला प्रश्न पूछता है तो वह ज्ञानी पुरुष या वह संत अपने हृदय से अत्यंत प्रसन्न होकर के करुणा से आपूर्त हो जाता है कि आज उस के माध्यम से जो मैं कहूंगा वह मात्र इसका ही नहीं अपितु मानवता के अन्य संदर्भों का भी कल्याण संपन्न करेगा।
नारद जी ने कहा कि मैं तुम्हें एक प्राचीन इतिहास सुनाता हूं, जिसके माध्यम से तुम्हारे हृदय की ग्रंथि का उन्मूलन हो जाएगा। उन्होंने नव योगेश्वर की चर्चा प्रारंभ करने के पूर्व उनके महत्व एवं गुरुता को प्रतिस्थापित करने के उद्देश्य से उनके वंश का वर्णन पहले किया। उन्होंने कहा कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के पुत्र हुए स्वयंभू मनु, उनके पुत्र हुए प्रियव्रत, प्रियव्रत के पौत्र हुए नाभि, नाभि के पुत्र हुए ऋषभदेव।
महाराज ऋषभदेव के 100 पुत्र हुए। सभी परम विद्वान वेद के ज्ञाता, ब्रह्म ज्ञानी। इनमें जो सबसे बड़े थे, वह थे महाराज भरत जिनके नाम पर इस देश का नाम भरतखंड या भारतवर्ष पड़ा।
इनमें से जो 9 थे, वे तो नव द्वीपों के अधिपति हुए।
81 वेद वेदांग कर्मकांड तथा अन्य आध्यात्मिक संदर्भों के मर्मज्ञ हुए। जो 9 बचे, उन्होंने अपने जीवन में ही परम ब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त किया तथा अवधूत स्वरूप में संपूर्ण ब्रह्मांड का विचरण किया।
नारद जी विस्तार से योगेश्वरओ के व्यक्तित्व का, उनके वैशिष्ट्य का तथा उनके चिंतन का वर्णन करते हैं।
स्वतंत्रता के उपरांत इतने वर्ष बीत गए किंतु अभी भी हिंदी विशेषकर संस्कृत के अक्षरों का टंकण अत्यंत दुष्कर कार्य है। अतः मैं यहां पर उद्धरण के रूप में संस्कृत के श्लोकों का प्रयोग करने की अपेक्षा मात्र उनकी अर्थ की चर्चा करके ही आगे बढ़ने का प्रयास करूंगा।
यह नव लड़के या योगेश्वर बहुत विचारशील थे तथा परमात्म तत्व का निरंतर चिंतन करते हैं l जब भी कुछ कहते थे तो वह परमात्मा एवं परमार्थ के विषय में ही होता था।
उनके लिए श्रमण शब्द का प्रयोग हुआ है।
यह अधिक परिश्रम करने वालों को संकेत करता है अर्थात इन मुनियों ने अपने आत्मस्वरूप का साक्षात्कार करने के लिए बहुत परिश्रम किया है। इसके अतिरिक्त इन के लिए वातरसना शब्द का भी प्रयोग किया गया है अर्थात वात अर्थात वायु की रस्सी से बने हुए वस्त्रों को धारण करने वाले अर्थात दिगंबर।
यह सभी आत्मा विद्या विशारद हैं। अर्थात आत्मविद्या में प्रवीण हैं, निपुण है। विशारद विशेष स्थिति में चंद्रमा को संज्ञा दी गई है अर्थात यह आत्म विद्या के क्षेत्र में चंद्रमा के समान कांति को विकीर्ण करने वाले हैं। अब देवर्षि नारद ने इन मुनियों के नाम एवं उस नाम का संदर्भ स्पष्ट किया। उन्होंने सभी योगेश्वरओं के नाम क्रम से बताए। यह हैं कवि, हरि, अंतरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविरहोत्र,
द्रुमिल, चमस एवं करभाजन।
यह समस्त चर्चा अत्यंत गहन एवं गंभीर है। अतः आज के क्रम में यही पर विश्राम लेते हैं। आगामी संदर्भों की चर्चा आगामी अंशों में करेंगे।
ll शुभम भवतु कल्याणम ll
एक परिचय
परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है।
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।