श्री नव योगेश्वर संवाद प्रथम पुष्प!!
आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज
श्रीमद्भागवत रूपी कृपा समुद्र में अनंत मुक्ता मणि उपलब्ध हैं। आवश्यकता मात्र इतनी है कि उस समुद्र में भगवती श्री राधा रानी की कृपा को प्राप्त करके अवगाहन करने की सामर्थ्य प्राप्त हो जिससे उन मुक्ताओं का दर्शन प्राप्त किया जा सके। बहुत से ऐसे प्रसंग हैं श्रीमद्भागवत के जो व्यावहारिक, भौतिक, मानसिक, आध्यात्मिक संदर्भों को सर्वतोभावेन परिभाषित करते हुए जीवन को सकारात्मक रूप से किस प्रकार जिया जाए ऐसी गुणवत्ता स्थापित करते हैं।
ऐसा ही एक प्रसंग है श्रीमद्भागवत के एकादश स्कंध में नव योगेश्वर संवाद।
महाराज निमी के दरबार में उपस्थित हुए यह नव योगेश्वर भिन्न आध्यात्मिक प्रश्नों का उत्तर प्रदान करते हैं और मानव जाति को उत्तम प्रबोध प्रदान करने वाले कारक के रूप में सिद्ध होते हैं। यहां पर इस बात पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि जो ब्रह्म द्रव है उसको धारण करने वाला पात्र भी श्रेष्ठ होना चाहिए। जो अयोग्य हैं, अनुपयुक्त हैं, अधिकारी नहीं हैं, वे ब्रह्म द्रव प्राप्त करने के अधिकारी नहीं हो सकते। यह तथ्य भी श्रीमद् भागवत एवं उसमें निहित नव योगेश्वर संवाद स्थापित करता है।
इस प्रसंग को दृष्टिगत रखते हुए भी हम श्रीमद्भागवत के ऐसे बहुत से संदर्भों पर दृष्टिपात कर सकते हैं जो ईश्वर की अपेक्षा ईश्वर के भक्त अर्थात संतों की प्रतिष्ठा, महिमा एवं महत्व को परिभाषित करते हैं। जो विभिन्न वैष्णव टीका कार हैं, वह तो यहां तक कहते हैं कि भगवान के भक्तों का जिस ग्रंथ में वर्णन किया गया है, वहीं श्रीमद्भागवत है। इसका तात्पर्य यह हुआ प्रथम स्कंध से लेकर द्वादश स्कंध पर्यंत ऐसे बहुत से प्रसंग आते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि साक्षात ईश्वर के जो भक्त हैं या यूं कहें जो साक्षात ईश्वर दर्शन कर चुके हैं वह भी विचलित हो जाते हैं और उनको सन्मार्ग पर लाने के लिए उन में अनुशासन को प्रतिस्थापित करने के लिए भगवत भक्तों की अनिवार्यता ही सिद्ध होती है अर्थात ईश्वर की अपेक्षा उसके जो भक्त हैं- संत हैं उनके द्वारा प्रबोध प्रदान किए जाने पर उन व्यक्तित्व को प्रबोध, शांति और विवेक की प्राप्ति होती है।
कहीं-कहीं पर ईश्वर अपने भक्तों को भी श्रेय प्रदान करना चाहते हैं, अतः सफलता का मुकुट उनके मस्तक पर ही स्थापित करते हैं। एक बात और भी है कि अति परिचय होने पर अवज्ञा होना स्वाभाविक है। ईश्वर के समीप रह कर के भी कभी-कभी ईश्वर का तत्व समझ में नहीं आता है। अतः समीप रहने वाले उस ईश्वरीय तत्व को समझाने के लिए साक्षात ईश्वर को भी अपने भक्तों का आश्रय ग्रहण करना पड़ता है। जब वह भक्तजन – संत जन ईश्वरीय तत्व का उपदेश करते हैं तभी चित के भीतर का ज्ञान नष्ट होता है और जिस प्रकार से कुहासा हट जाने पर सूर्य का प्रकाश प्रदर्शित होता है उसी प्रकार से अज्ञान के अंधकार के हट जाने के उपरांत ब्रह्म तत्व का प्रकाश भी चतुर्दिक प्रस्फुटित होने लगता है।
नव योगेश्वर तत्व का जो बीज है, वह भगवान श्री कृष्ण के मन में आए, इस विचार से प्रस्फुटित होता है कि मेरे माता-पिता होते हुए भी वसुदेव और देवकी के हृदय में ईश्वर तत्व जम नहीं पाया। वह मोह से ग्रस्त रहे तो जब ईश्वर स्वयं किसी प्रकार का ज्ञान या उपदेश प्रदान नहीं कर पाते तो अपने भक्तों को प्रबोध प्रदान करने के लिए वह भी संत आश्रय ग्रहण करते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि इस अद्भुत संवाद को आध्यात्मिक रूप से परिभाषित किसके माध्यम से किया जाए तो भगवान शुकदेव कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त हैं श्री नारद जी, उनका कृष्ण प्रेम इतना प्रबल है कि बिना उनको देखे उन्हें चैन ही नहीं आता। उन्हें दक्ष का शाप है कि वह किसी भी स्थान पर दो घड़ी से अधिक टिक नहीं सकते किंतु द्वारिका में वह भगवान श्री कृष्ण के साथ निरंतरता में निवास करते हैं। अर्थात वह शाप जो किसी को भी बाध्य कर सकता है, ईश्वर की सान्निध्य में रहने पर प्रभावी नहीं होता। इसका तात्पर्य यह भी है कि समस्त बाध्यताएं समाप्त हो जाती हैं, जब व्यक्ति ईश्वर के नाम के साथ या ईश्वर के विग्रह के साथ अपना तादात्म्य स्थापित कर लेता है।
श्री कृष्ण के साथ मेरा सामीप्य निरंतरता में बना रहे, यही एकमात्र लालसा श्री नारद जी के चित् में सदैव बनी रहती है। क्योंकि श्रीमद्भागवत का एक सूत्र है वह कहता है कोई भी ऐसा व्यक्ति जो इंद्रिय युक्त है वह भगवान के चरण कमलों के रसास्वाद से स्वयं को पृथक कैसे रख सकता है अर्थात जो ऐसा करता है वह इंद्रियवान हो ही नहीं सकता।
जिस प्रकार से भागवत के श्रीमद्भागवत के प्रथम स्कंध में युधिष्ठिर के शोक को नष्ट करने के लिए वासुदेव कृष्ण ने भीष्म पितामह का चयन किया था , अर्थात जिस युधिष्ठिर को अनेकानेक महत् पुरुषों के द्वारा प्रदत्त आश्वस्त करने वाले वचन एवं प्रवचन संतुष्ट और आश्वस्त नहीं कर पाए उनको आश्वस्त करने एवं प्रबोध प्रदान करने के लिए श्री कृष्ण वासुदेव ने अपने परम भक्त भीष्म पितामह को श्रेय प्रदान करने के उद्देश्य से उनका चयन संपन्न किया।
उसी प्रकार से उन्होंने अपने पिता को प्रबोध प्रदान करने के उद्देश्य से जिन संत पुरुष का चयन किया वह श्री नारद थे।
श्री कृष्ण को मुकुंद भी कहा जाता है अर्थात वह जो मुक्ति प्रदान करता है, किस प्रकार से ? वह इस प्रकार से कि जब भगवान श्री कृष्ण अपने अनुपम सौंदर्य एवं विग्रह के प्रति भक्तों के चित् को आकृष्ट कर लेते हैं तो वह भौतिक शब्द, रूप, स्पर्श, गंध तथा पंचमहाभूतओं पृथ्वी, जल, तेज, वायु ,आकाश के प्रभाव से मुक्त हो जाता है और स्वयं को ईश्वर के सानिध्य में ही अनुभव करता है l इसके लिए मृत्यु का संपन्न होना आवश्यक नहीं है l इस जीवन में ही यदि हम ईश्वर उन्मुख हो जाएं और लौकिक संदर्भों से पृथक हो जाएं तो यह भी मुक्ति ही है।
श्री कृष्ण की प्रेरणा से श्री नारद जी वसुदेव के स्थान पर पधारे। उनको किसी प्रकार का कोई आमंत्रण प्राप्त नहीं हुआ था कि उन्हें किसी ने सम्मान पूर्वक बुलाया हो। वास्तव में ईश्वर की कृपा परिवर्षित होनी होती है, तब संत अपनी कृपा प्रदान करने के लिए तथा कर्म भोग को नष्ट करने के लिए स्वयमेव मनुष्य के जीवन में अवतरित होते हैं। नव योगेश्वर का यह प्रसंग आध्यात्मिक रहस्य से परिपूर्ण है एवं विशद भी है।
अतः आज मात्र यह पृष्ठभूमि। भविष्य के आलेखों में ठाकुर जी की कृपा एवं श्री राधा रानी के कृपा प्रसाद से इसका विस्तार करने का प्रयास करूंगा।
ll शुभम भवतु कल्याणम ll
एक परिचय
परम पूज्य संत आचार्य श्री अमिताभ जी महाराज राधा कृष्ण भक्ति धारा परंपरा के एक प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
श्रीमद्भागवत के सुप्रतिष्ठ वक्ता होने के नाते उन्होंने श्रीमद्भागवत के सूत्रों के सहज समसामयिक और व्यवहारिक व्याख्यान के माध्यम से भारत वर्ष के विभिन्न भागों में बहुसंख्यक लोगों की अनेकानेक समस्याओं का सहज ही समाधान करते हुए उनको मानसिक शांति एवं ईश्वरीय चेतना की अनुभूति करने का अवसर प्रदान किया है।
आध्यात्मिक चिंतक एवं विचारक होने के साथ-साथ प्राच्य ज्योतिर्विद्या के अनुसंधान परक एवं अन्वेषणत्मक संदर्भ में आपकी विशेष गति है।
पूर्व कालखंड में महाराजश्री द्वारा समसामयिक राजनीतिक संदर्भों पर की गई सटीक भविष्यवाणियों ने ज्योतिर्विद्या के क्षेत्र में नवीन मानक स्थापित किए हैं। किंतु कालांतर में अपने धार्मिक परिवेश का सम्मान करते हुए तथा सर्व मानव समभाव की भावना को स्वीकार करते हुए महाराजश्री ने सार्वजनिक रूप से इस प्रकार के निष्कर्षों को उद्घाटित करने से परहेज किया है।
सामाजिक सेवा कार्यों में भी आपकी दशकों से बहुत गति है गंगा क्षेत्र में लगाए जाने वाले आपके शिविरों में माह पर्यंत निशुल्क चिकित्सा, भोजन आदि की व्यवस्था की जाती रही है।
उस क्षेत्र विशेष में दवाई वाले बाबा के रूप में भी आप प्रतिष्ठ हैं ।
अपने पिता की स्मृति में स्थापित डॉक्टर देवी प्रसाद गौड़ प्राच्य विद्या अनुसंधान संस्थान तथा श्री कृष्ण मानव संचेतना सेवा फाउंडेशन ट्रस्ट के माध्यम से आप अनेकानेक प्रकल्पओं में संलग्न है
जन सुलभता के लिए आपके द्वारा एक पंचांग का भी प्रकाशन किया जाता है “वत्स तिथि एवं पर्व निर्णय पत्र” जिस का 23 वां संस्करण प्रकाशित होने की प्रक्रिया में है, यह निशुल्क वितरण में सब को प्रदान किया जाता है।