‘रामायण में वर्णित पेड़ पौधों के सामाजिक सरोकार’
भाग – – – दस
प्रबोध राज चन्दोल
संस्थापक, पेड़ पंचायत
युद्धकांड के 73वें सर्ग में इन्द्रजीत श्रीराम और लक्ष्मण के युद्ध का विवरण है। रणभूमि में पहुंचकर इन्द्रजीत ने अग्निदेव का पूजन किया। उसने अग्निवेदी के चारों ओर अपने शस्त्रों को इस प्रकार से बिछा दिया जैसे कुश या कास के पत्ते बिछा दिये हों। उसने बहेड़े की लकड़ी से समिधा का काम लिया। इस युद्ध में वानर वृक्षों से ही हथियार का काम लेते थे। अतः युद्ध आरंभ होने पर वानर सेना रावण कुमार पर शैल, शिखर और वृक्षों की वर्षा करने लगे। रणभूमि में इन्द्रजीत ने अपने ब्रह्मास्त्र से वानरसेना सहित श्रीराम और लक्ष्मण को मूर्छित कर दिया जिससे समस्त वानरसेना विषाद में डूब गई।
ऐसी स्थिति में बूढ़े जाम्बवान ने हनुमानजी को हिमालय पर्वत पर जाकर वहां स्थित औषधि पर्वत से चार प्रकार की औषधि लाने के लिए आग्रह किया। जाम्बवान ने उन चारों औषधियों के नाम इस प्रकार से बतायेः-मृतसंजीवनी, विशल्यकरणी, सुवर्णकरणी और संधानी जिससे श्रीराम और लक्ष्मण पुनः स्वस्थ हो जाए और वानरों को जीवनदान मिल जाए। यह विवरण युद्धकांड के 74वें सर्ग में मिलता है। अंगद और महाकपि सुग्रीव ने युद्ध करते हुए अश्वकर्ण तथा साल के वृक्षों को उखाड़ कर राक्षसों पर प्रहार किया इस तरह का उल्लेख 76वें सर्ग में आता है।
80वें सर्ग में रावण की आज्ञा से इन्द्रजीत का घोर युद्ध करने से पूर्व हवन करने के लिए यज्ञ भूमि में जाकर अग्नि की स्थापना करने का वर्णन है जिसमें इन्द्रजीत ने बहेड़े की लकड़ी को समिधा के लिए उपयोग किया। इन्द्रजीत के तीखे बाणों से घायल होकर दोनों वीर दशरथ कुमार श्रीराम और लक्ष्मण रक्तरंजित हुए पलाश वृक्षों की भांति प्रतीत होते थे।
इन्द्रजीत युद्ध में आने से पहले कर्मानुष्ठान करता और बलि चढ़ाता था जिससे उसकी तमाम आसुरी शक्तियों को बल मिल जाता था। 87वें सर्ग में विभीषण, लक्ष्मण को वह स्थान दिखाते हैं जहांपर जाकर रावण कुमार अनुष्ठान किया करता था। वहां एक बरगद का पेड़ था, विभीषण ने लक्ष्मण को सुझाव दिया कि बरगद के पेड़ के नीचे पहुंचने से पूर्व ही रावण कुमार को नष्ट कर दो।
88वें सर्ग में लक्ष्मण और इन्द्रजीत के बीच भयंकर युद्ध का विवरण देते हुए उनके बारे में कहा गया है कि उन दोनों वीरों के क्षत-विक्षत शरीर वन में पत्रहीन एवं लाल पुष्पों से भरे हुए पलाश और सेमल के वृक्षों के समान सुशोभित होते थे। इन दोनों के बीच भंकर युद्ध का वर्णन 90वें सर्ग में देते हुए बताया गया है कि लक्ष्मण और इन्द्रजीत दोनों के शरीर लहूलुहान हो गए। रणभूमि में वे दोनों वीर फूले हुए पलाश के वृक्षों की भांति शोभा पा रहे थे। 89वें सर्ग में हनुमानजी द्वारा साल वृक्ष उखाड़कर उससे सहस्त्रों राक्षसों के वध का वर्णन है।
राम-रावण के युद्ध में रावण के पराक्रम से लक्ष्मणजी घायल होकर पृथ्वीं पर गिर पड़े। युद्धकांड के 101वें सर्ग में वर्णन किया गया है कि श्रीरघुनाथ प्रिय भाई को इस अवस्था में देख विलाप करते हुए शोक में डूब गये। उस समय शुषेण ने आश्वासन देते हुए कहा कि लक्ष्मण का मुख अभी कांतिमान है और वह अभी मरे नहीं हैं और तब शुषेण ने पास ही खड़े हनुमानजी को पुनः उसी पर्वत पर जाने को कहा जिसका पता जाम्बवान जी ने पहले बताया था और वहां से लक्ष्मण जी की प्राण रक्षा हेतु चार महाऔषधियों यथाः-विशल्यकरणी, सावर्णयकरणी, संजीवकरणी तथा संधानी लाने हेतु कहा। इनमें पहली औषधि शरीर में धंसे हुए बाणों आदि को निकालकर घाव भरने और पीड़ा को दूर करने वाली है, दूसरी शरीर में पहले जैसी रंगत वापस लाने वाली है, तीसरी मूर्छा दूर कर चेतना प्रदान करने वाली है तथा चौथी टूटी हुई हड्डियों को जोड़ने वाली है। यह सुनकर हनुमानजी महोदयगिरि नामक औषधि पर्वत पर गये।
राम-रावण युद्ध में श्रीराम के बाणों ने रावण को भेद डाला जिससे उसके सारे शरीर में रक्त की धारा बहने लगी। उस समय राक्षसराज रावण लाल फूलों से भरे हुए अशोक वृक्ष के समान दिखाई दे रहा था। इसके बाद रावण अत्यन्त क्रोधित हो गया और उसने सहस्त्रों बाणों से श्रीराम को रक्त से नहला दिया जिससे श्रीराम का शरीर खिले हुए पलाश के वृक्ष की भांति दिखायी देने लगा। 106वाँ सर्ग राम-रावण युद्ध का है जिसमें वर्णन है कि श्रीराम और रावण में बड़ा भारी युद्ध चल रहा था तथा रावण की पराजय के संकेत मिलने लगे थे। रावण जिस मार्ग पर जाता उसी मार्ग में गीध मंडराने लगते, वहां की भूमि डोलने लगती। जपा (अड़हल) के लाल फूल जैसे रंग वाली संध्या के समय लंकापुरी की भूमि जलती हुई सी दिखायी देती थी। जपा को हिन्दी में गुड़हल भी कहते हैं, इसके फूल लाल घण्टाकार तथा बडे होते हैं।
इस युद्ध में श्रीराम ने रावण का वध करने के लिए अनेक प्रकार के बाणों का प्रयोग, यहां तक कि जिन बाणों से मारीच, खर-दूषण, वाली के प्राण लिए तथा साल वृक्ष और पर्वतों का विदीर्ण किया वे भी रावण पर निस्तेज हो गये यह देखकर श्रीराम बड़े आश्चर्यचकित थे। अंततः श्रीरामजी ने ब्रह्माजी के अस्त्र का प्रयोग करके रावण के प्राण हर लिए। इसके बाद श्रीराम ने विभीषण को समझाकर रावण की अंत्येष्टि संस्कार करवाने का आदेश दिया। रावण की अंत्येष्टि के लिए मलयकाष्ट (सफेद चंदन), पद्मक, उशीर (खस) तथा अन्य प्रकार के चन्दनों की लकड़ी से चिता बनाई। उशीर स्वाद में कड़वा तथा शीतलता से युक्त होता है। यह पित्त या ज्वर से हाने वाली पीड़ा को दूर करता है तथा जल को सुगंधित करता है। पद्मक पेड़ की छाल और बीजों का उपयोग उपचार के लिए किया जाता है। यह रक्तश्राव विकारों, त्वचा रोगों तथा जलने आदि के लिए उपयोगी है।
विभीषण के राज्याभिषेक के पश्चात श्रीराम ने सीता, लक्ष्मण, सुग्रीव, विभीषण तथा वानरों सहित पुष्पक विमान से अयोध्याजी के लिए प्रस्थान किया। श्रीराम ने मार्ग में सीताजी को वे सभी स्थान दिखाये जहां-जहां वे सीताजी की खोज में गये थे। समुद्रतट, पम्पा सरोवर, केले के कुँजों से घिरा हुआ महर्षि अगस्त्य का आश्रम, गोमती और भयानक साल वन, नन्दीग्राम के निकट खिले हुए वृक्ष तथा साल के वनादि I अयोध्याजी में श्रीराम के साथ आये हुए सभी लोगों का भव्य स्वागत हुआ। श्रीरामाज्ञा से भरतजी ने अशोक वृक्षों से घिरा हुआ विशाल भवन सुग्रीव को ठहरने के लिए दिया। राज्याभिषेक के उपरान्त श्रीराम ने ग्यारह हजार वर्षों तक राज्य किया। उनके राज्यकाल में वृक्षों की जड़े सदा मजबूत रहती थीं तथा सभी वृक्ष फूलों और फलों से लदे रहते थे।
श्रीराम के राज्यारूढ़ होने के बाद अनेकानेक ऋषि-मुनि उनका अभिनन्दन करने के लिए अयोध्या पुरी आये। ऋषिश्रेष्ठ अगस्त्यजी भी अनेक ऋषियों के साथ वहां पधारे। उन सभी को प्रणाम करके श्रीराम ने उनके बैठने के लिए आसन दिये जोकि सोने के बने हुए थे तथा उनके ऊपर कुश के आसन के ऊपर मृगचर्म बिछाये गए थे।
श्रीराम और ऋषियों के मध्य वार्तालाप में रावण के साथ युद्ध में रावणपुत्र इन्द्रजीत का वध उन ऋषियों के लिए आश्चर्य की बात थी। इन्द्रजीत के वध पर ऋषि-मुनि इतने आचर्श्यचकित क्यों थे इस रहस्य को बताने के लिए श्रीराम ने ऋषियों से अनुरोध किया। रघुनाथजी के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए महर्षि अगस्त्यजी ने रावण के कुल, जन्म तथा वरदान प्राप्ति आदि का प्रसंग विस्तार से सभा में सुनाया। यह सारा प्रसंग वाल्मीकि रामायण में उत्तरकांड के दूसरे सर्ग से प्रारम्भ होता है।
अपनी माता केकसी के कहने पर रावण ने भाइयों सहित अनुपम तपस्या की, उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और उन्होंने दशग्रीव को वर मांगने के लिए कहा। इस प्रकार रावण और विभीषण को वर देने के उपरान्त जब कुंभकर्ण को वर देने का अवसर आया तो सभी देवता चिंतित हो गये क्योंकि कुंभकर्ण दुर्बुद्धि और तीनों लोको में सभी को त्रास देता था। तब ब्रह्माजी ने देवी सरस्वती को कुंभकर्ण की जिह्वा पर विराजमान होने के लिए कहा। जिसके प्रभावस्वरूप कुंभकर्ण ने अनेक वर्षों तक सोते रहने का (निद्रासन) वरदान मांगा। इसके बाद तीनों भाई श्लेषमातकवन (लिसोड़े के वन) में गए और वहां सुखपूर्वक वास करने लगे। समय बीतने के साथ राक्षसों के समझाने के बाद रावण ने कुबेर से लंकापुरी राक्षसों को सौंपने के लिए कहा। ऐसे में कुबेर के पिता ऋषि विश्रवा ने कुबेर को अनुचरों सहित लंका को छोड़कर कैलाश पर्वत पर नगर बसाकर रहने का परामर्श दिया जहां पर मन्दाकिनी नदी बहती है जिसका जल सूर्य के समान प्रकाशित होने वाले कमलों, कुमुदों, उत्पलों और दूसरे-दूसरे सुगंधित कुसुमों से आच्छादित रहता है।