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‘रामायण में वर्णित पेड़ पौधों के सामाजिक सरोकार’ भाग: 9 प्रबोध राज चन्दोल

‘रामायण में वर्णित पेड़ पौधों के सामाजिक सरोकार’

भाग: 9

प्रबोध राज चन्दोल

संस्थापक, पेड़ पंचायत

लंका में अपने सभी काम पूरे करने के बाद हनुमानजी वापस लौटने के लिए अरिष्टगिरि पर्वत पर च़ढ़ गये, उस पर्वत पर पद्मक के पेड़ थे जो पद्म के समान नीले थे। पद्म को देववृक्ष माना जाता है जोकि अब विलुप्त होने की कगार पर है। इसकी लकड़ी काफी मजबूत होने के कारण दूसरे वाद्ययंत्र और कृषियंत्र बनाए जाते हैं। इसके फूल पत्ते और छाल आदि सभी कुछ उपयोगी हैं। इसकी छाल से रंग भी बनाया जाता है। इसके अतिरिक्त पद्मक के फल, बीज और गोंद सभी औषधीय उपयोगों में लिए जाते हैं।

अरिष्टगिरि पर्वत पर ऊँचे-ऊँचे देवदारू के वृक्ष थे। वहां सरकण्ड़ों के पेड़ थे। साल, ताल, कर्ण और बहुसंख्यक बांस वृक्ष उसे सब ओर से घेरे हुए थे। वह पर्वत लताओं और वृक्षों से आच्छादित था। स्वादिष्ट फलों से लदे हुए वृक्ष और मधुर कन्दमूल वहां बहुतायत में थे। अरिष्टपर्वत से छलांग लगाकर महाबलि हनुमान विशाल समुद्र पार करके महेन्द्रगिरि पर्वत पर कूद पड़े और वहां अपने दल के सभी वीर वानरों से मिलकर बड़े प्रसन्न हुए।

जाम्बवान के पूछने पर हनुमानजी ने अपनी लंका यात्रा का सारा वृत्तान्त कह सुनाया। हनुमानजी ने बताया कि जब कहीं भी देवी सीता का पता नहीं चला तो वे सोच में पड़ गये और उसी समय उन्हें एक गृह उद्यान दिखायी पड़ा जिसमें अशोक वाटिका बनी हुई थी। उस अशोक वाटिका के बीच में एक बहुत ऊंचा अशोक का वृक्ष खड़ा हुआ था जिसपर चढ़कर पास ही कदलीवन दिखाई दिया। इस वृक्ष के पास उन्हें देवी सीता के दर्शन हुए। हनुमानजी बताते हैं कि जिस अशोक वृक्ष के नीचे देवी सीता बैठी थी उसी अशोक वृक्ष के ऊपर वे अपने लघुरूप में स्थित हो गये।

 देवी सीता का पता लगाने के बाद हनुमान सहित सभी वानर दल किष्किंधा पहुंचे वहां हनुमानजी ने श्रीराम को सीता जी का समाचार कह सुनाया। वाल्मीकि रामायण में यहां सुंदर काण्ड समाप्त हो जाता है और इसके बाद युद्धकांड शुरू हो जाता है। देवी सीता का हाल जानने के बाद श्रीराम सहित समस्त वानर सेना ने समुद्र की ओर प्रस्थान किया। वे सभी पर्वत, तालाब, सरोवर, फल-फूलों से लदे हुए वनों को पार करते हुए तथा यात्रा के मार्ग में चम्पा, तिलक, आम, अशोक, सिंदुवार, तिनिश, करवीर, अंकोल, करंज, पाकड़, बरगद, जामुन, आँवले और नीप आदि के वृक्षों पर उछलते हुए तथा उन वृक्षों को तोड़ते हुए आगे बढ़ रहे थे।

मार्ग में पड़ रहे रमणीय पर्वत शिखरों पर सब ओर खिली हुई केतकी, सिंदुवार और वासंती लताएँ बड़ी मनोरम प्रतीत हो रही थी। माधवी लताएं सुगंध से भरी थीं और कुन्द की झाड़ियां फूलों से लदी थीं। चिरविल्व, मधूक (महुआ) वंजुल, बकुल, रंजक, तिलक, और नागकेसर भी खिले हुए थे। आम, पाडर, कोविदार, मुचुलिन्द, अर्जुन, शिंशपा, कुटज, हिंताल, तिनिश, चूर्णक, कदम्ब, नीला अशोक, सरल, अंकोल और पद्मक भी सुंदर फूलों से सुशोभित थे। मार्ग में पड़ रहे जलाशयों और बावड़ियों में सुगंधित कमल, कुमुद, उत्पल तथा जल में होने वाले भांति-भांति के अन्य पुष्पों से वहां के जलाशय बड़े रमणीय दिखाई दे रहे थे।

युद्धकांड के पांचवे सर्ग में ताल फल का उल्लेख आता है। ताल अथवा ताड़ एक ही नाम के दोअलग पेड़ हैं।असल में ताड़ परिवार में कई प्रकार के वृक्ष आते हैं, उनमें ताल भी एक वृक्ष है। रामायण में वृक्षों के जो नाम दिये गए हैं उनमें से अनेक वृक्ष ऐसे हैं जिनको अलग-अलग विद्वानों ने अलग-अलग पेड़ों के रूप में बताया है जैसे-शिंशपा नाम के पेड़ को कुछ विद्वानों ने शीशम का पेड़ बताया है तो अन्य ने इसे अशोक का पेड़ बताया है। इसी प्रकार रंजक का पेड़ है जिसे कुछ विद्वानों ने मेहन्दी का पेड़ बताया है तथा दूसरे विद्वानों ने इसे लाल चंदन या लाल मनके का पेड़ या रक्तचंदन या बड़ी गमची या बंगाली में रंजना बताया है। इसके आकर्षक लाल बीजों का उपयोग माला में मोतियों के रुप में किया जाता है। इसके नये पत्तों को उबालकर खाया जा सकता है। इसकी लकड़ी बहुत कठोर होती है जिससे फर्नीचर या नाव आदि बनाई जा सकती है। पारम्परिक चिकित्सा में इसके पिसे हुए बीजों का उपयोग फोड़े या सूजन के उपचार में, पत्तियों का काढ़ा गठिया में तथा छाल का उपयोग बाल धोने हेतु किया जाता था।

कुछ विद्वानों के अनुसार रंजक का दूसरा नाम मेहन्दी या हिना है। इसका प्रयोग त्वचा, बाल, नाखून तथा ऊन रंगने में किया जाता है। इसे हाथ व पैरों पर लगाया जाता है।

लंका जहां स्थित थी, वह स्थान समुद्र पार करने के बाद था। श्रीराम के द्वारा समुद्र की उपासना करने पर भी जब समुद्र प्रकट नहीं हुआ तो सेना सहित समुद्र कैसे पार करें यह समस्या सामने थी । श्रीराम ने जब क्रोधवश समुद्र को नष्ट करने का निश्चय किया तो समुद्र प्रकट होकर अपने जल पर नल नामक वानर की सहायता से पुल बनवाने का सुझाव दिया। यह कार्य करने के लिए नल सहर्ष तैयार हो गये। श्रीराम की आज्ञा से लाखों बड़े-बड़े वानर हर्ष और उत्साह से भरकर जंगलों में घुस गये तथा पर्वत शिखर से वृक्षों को तोड़कर समुद्र तट तक खींचकर लाने लगे।

वे साल, अश्वकर्ण, धव, बाँस, कुटज, अर्जुन, ताल, तिलक, तिनिश, बेल, छितवन, खिले हुए कनेर, आम और अशोक आदि वृक्षों से समुद्र को पाटने लगे। वे वानर इधर-उधर से ताड़ों, अनार की झाड़ियों, नारियल और बहेड़े के वृक्षों, करीर, बकुल तथा नीम को तोड़-तोड़ कर लाने लगे और अतिशीघ्र बाईस योजन लम्बा पुल बांध दिया।

युद्ध कांड के बाईस वें सर्ग में दिए गये वृक्षों में से अनेक का वर्णन पहले के अध्यायों में भी आ चुका है। इस अध्याय में वर्णित बहेड़े के पेड़ को संस्कृत में बिभीतकी भी कहा जाता है, जिसका अर्थ है कि जो बीमारियों से दूर रखता है। आयुर्वेद में त्रिफला चूर्ण का एक घटक बहेड़ा भी है। त्रिफला पेट की बिमारियों और कब्ज के प्रबंधन में उपयोग किया जाता है।

करीर या कैर एक छोटा पेड़ है जिसके कच्चे फलों से सब्जी या अचार बनाए जाते हैं। यह पोषण तथा औषधीय गुणों से भरपूर है। यह पौधा भूख को बढ़ाने वाला, पेट की बीमारी या कब्ज, अस्थमा गठिया आदि में उपयोगी है।

रावण के विरूद्ध युद्ध करने के लिए सुग्रीव ने जिन वानर वीरों को बुलाया था वे सब अपनी-अपनी सेना सहित आये थे। युद्धकांड के 26 वें सर्ग में राम की सेना में शामिल नल की सेना में वानरों का परिचय देते हुए लंकापति रावण के मन्त्री सारण ने कहा कि इनकी संख्या दस अरब और आठ लाख है। यह सब वानर चन्दन वन में निवास करने वाले वीर वानर हैं। कुमुद नामक यूथपति गोमती के तट पर नानाप्रकार के वृक्षों से युक्त संरोचन नामक पर्वत पर शासन करता है। आगे 27वें सर्ग में सारण बताता है कि जिस जामुन के वृक्ष के नीचे राजाधिराज कुबेर बैठा करते हैं उसी पर्वत पर वानर शिरोमणि श्रीमान क्रथन भी रमण करता है। सभी ऋतुओं में फल देने वाले महामेरू पर्वत अर्थात् उस पर्वत पर जहाँ ऐसे फलदार वृक्ष हैं जिनसे सदैव फलों की प्राप्ति होती रहती है वहां वानरों में प्रधान यूथपति केसरी रमण करते हैं। इसके बाद रावण के मन्त्री शुक ने गहन वृक्षों से युक्त किष्किंधा नामक दुर्गम गुफा में निवास करने वाले सुग्रीव के मंत्रियों का परिचय दिया। 

देवदार

बरगद

पाकड़

आंवला

31वें सर्ग में यह विवरण है कि रावण सीताजी को देखने के लिए अशोक वाटिका में गया,अशोक वाटिका, जहां शोक को हरने वाले अशोक के वृक्षों की अधिकता थीं उस वाटिका में रहकर भी सीताजी शोकमग्न थीं। रावण ने सीताजी को कहा कि मेरी सेना ने सैनिकों सहित तुम्हारे पति को मौत के घाट उतार दिया है। अपनी बात को कहते हुए रावण एक स्थान पर बताता है कि पनस नाम का एक वानर पककर फटे हुए पनस (कटहल) के समान पृथ्वीं पर पड़ा अपनी अंतिम सांसे ले रहा है। 32वें सर्ग में यह उल्लेख है कि यह सब सुनकर सीताजी बहुत दुखी हुई और कटी कदली के समान पृथ्वीं पर गिर पड़ी।

लंका की ओर प्रस्थान करते हुए श्रीराम और उनकी सेना ने सुवेल पर्वत पर चढ़कर वहां पर रात्रि विश्राम किया। इस पर्वत के शिखर से लंका के वन और उपवन दिखाई देते थे जो बड़े सुन्दर और विशाल थे। लंका नगरी-चम्पा, अशोक, बकुल, साल व ताल वृक्षों से व्याप्त, तमाल के वृक्षों से आच्छादित थी। लंकापुरी नागकेसरों, हिंताल, अर्जुन, नीप (कदम्ब), खिले हुए छितवन, तिलक, कनेर तथा पाटल आदि नानाप्रकार के दिव्य वृक्षों से, जिनके अग्रभाग फूलों के भार से लदे हुए थे तथा जिन पर लताबल्लरियाँ फैली हुई थी, इन्द्र की अमरावती के समान शोभा पाती थी।

युद्धकांड के 40वें सर्ग में यह उल्लेख है कि जब श्रीराम तथा सुग्रीव सुवेल पर्वत के सबसे ऊँचे शिखर पर चढ़कर दसों दिशाओं का अवलोकन कर रहे थे तो उन्हें उस नगर के गोपुर की छत पर राक्षसराज रावण बैठा हुआ दिखाई दिया। उसे देखकर क्रोध के वेग से युक्त सुग्रीव सहसा खड़े हुए और गोपुर की छत पर कूद पड़े और रावण से भिड़ गये। कुछ देर बाद दोनों खून से लथपत हो गये और एक-दूसरे की पकड़ में आने के कारण खून से लथपथ होकर खिले हुए सेमल और पलाश नामक वृक्षों के समान दिखाई देने लगे।

श्रीराम के साथ वानर सेना में जो भी वानर थे वे सब साल वृक्षों और पर्वत शिखरों को उखाड़कर तथा फेंककर प्रहार करने वाले थे। 42वें सर्ग में यह उल्लेख है कि वे सभी वानर वृक्षों, पर्वत शिखरों से लंका के दरवाजों को तोड़ने लगे। 

45वें सर्ग में इन्द्रजीत के बाणों से श्रीराम और लक्ष्मण के अचेत होने का विवरण है। उस अवस्था में उन दोनों भाइयों के अंगों में घाव होने से रक्त की धारा बहने लगी जिससे वे खिले हुए दो पलाश वृक्षों के समान शोभा पाने लगे। इसी प्रकार का विवरण 54वें सर्ग में आता है जब वज्रद्रंष्ट और अंगद का युद्ध हुआ, उन दोनों ने एक-दूसरे पर चोट की और उन दोनों के घावों से रक्त की धारा बहने लगी जिससे वे लाल फूलों से खिले हुए पलाश वृक्षों के समान शोभा पाने लगे। 56वें सर्ग में हनुमानजी के द्वारा अकम्पन के वध का विवरण है। इस युद्ध में वानरवीर हनुमान ने ऊंचे अश्वकर्ण नामक वृक्ष के पास जाकर उसे शीघ्रतापूर्वक उखाड़ लिया और उसे युद्धभूमि में घुमाना शुरू किया इस प्रकार कितने ही वृक्षों को तोड़कर उनसे राक्षसों को गहरी चोट पहुंचाई।

सेमल और पलाश के खिले हुए फूलों का रंग लालरंग की भांति ही दिखायी देता है। इसलिए महर्षि वाल्मीकि ने युद्ध भूमि में रक्तरंजित महाबलियों की घायलावस्था का वर्णन करते हुए सेमल तथा पलाश के खिले हुए पेड़ों से तुलना की है। रामायण के युद्धकांड के 58वें सर्ग में रक्त के प्रवाह से आच्छादित हुई युद्धभूमि की तुलना वैशाख मास में खिले हुए पलाश वृक्षों से ढ़की हुई वन्यभूमि से की गई है। इसी सर्ग में यह उल्लेख है कि महाकपि नील ने एक विशाल साल वृक्ष के द्वारा प्रहस्त के घोड़ों को मार ड़ाला।

59वें सर्ग में रावण और नील के द्वंदयुद्ध का वर्णन है जिसमें नील ने युद्धस्थल में अश्वकर्ण, साल, खिले हुए आम्र तथा अन्य नानाप्रकार के वृक्षों को उखाड़-उखाड़ कर रावण पर चलाना आरंभ किया।

67वें सर्ग में श्रीराम व कुंभकर्ण के मध्य हुए युद्ध का विवरण है। युद्धभूमि में कुंभकर्ण के प्रहार से व्यथित हुए वानर मूर्छित हो गए और रक्त से नहा उठे फिर कटे हुए पलाश वृक्ष की भांति पृथ्वीं पर गिर पड़े। श्रीराम ने कुंभकर्ण पर वज्र के समान वेग वाले बाणों की वर्षा की परन्तु वह राक्षस जरा भी व्यथित ना हुआ। श्रीराम यह देखकर आश्चर्यचकित थे कि जिन बाणों से श्रेष्ठ साल वृक्ष काटे गये और वानरराज वाली का वध हुआ वे कुंभकर्ण के शरीर को व्यथा ना पहुंचा सके। अपनी एक बाँह के कट जाने पर भी कुंभकर्ण ने एक ही हाथ से एक ताड़ का वृक्ष उखाड़ लिया और उसे लेकर रणभूमि में श्रीराम पर धावा बोल दिया।

                                                                                                                                क्रमशः

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