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सुभाष राय की ‘जाग मछन्दर जाग’ का लोकार्पण २९ को

‘जाग मछन्दर जाग’ के लोकार्पण कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे वरिष्ठ अलोचक वीरेंद्र यादव। विषय प्रवर्तन की जिम्मेदारी संभालेंगे वरिष्ठ पत्रकार एवं वायस आफ लखनऊ के संपादक रामेश्वर पांडेय। प्रख्यात कथाकार एवं तद्भव के संपादक अखिलेश, वरिष्ठ कवि एवं इग्नू में प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव, कथाकार शीला रोहेकर, वरिष्ठ पत्रकार एवं झांसी विवि के पूर्व प्रोफेसर बंशीधर मिश्र, युवा कवि एवं आलोचक अनिल त्रिपाठी एवं प्रखर युवा आलोचक नलिनरंजन सिंह के व्याख्यान होंगे। कार्यक्रम का संचालन युवा कवि ज्ञानप्रकाश चौबे के हाथ में होगा।

लखनऊ ।

‘इस लाक्षागृह‌ को किसी न किसी दिन कोई लपट घेरेगी ही, बस चिंता है तो उन लोगों की, जो रास्ता भूल गये, जो पथ भटक गये, जिन्हें लालच ने जकड़ लिया और इस नाते अपनी सहज मानवीयता से वंचित हो गये।’…’चारों ओर बदलाव की आकांक्षाएँ हैं लेकिन किस दिशा में हो बदलाव, कौन नेतृत्व करे इन आकांक्षाओं का? एक बड़ा शून्य दिखता है। इसी का फायदा उठाकर सत्ताएं मनमानेपन पर आमादा हैं। भिड़ना होगा उनसे।’

ये टुकड़े हैं, अमन प्रकाशन, कानपुर से आयी वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि सुभाष राय की नयी पुस्तक ‘जाग मछन्दर जाग’ में संकलित लेखों के। इस पुस्तक का कैफी आजमी एकेडमी में २९ सितम्बर, दिन रविवार को शाम ४ बजे लोकार्पण होना है। इसमें श्री राय द्वारा जनसंदेश टाइम्स में लिखे गये चुनिंदा अग्रलेख शामिल हैं। अपने आरम्भिक दिनों में जनसंदेश टाइम्स प्रत्येक रविवार को एक समृद्ध साहित्यिक परिशिष्ट देता था।‌ आठ पृष्ठों के इस परिशिष्ट में एक विचार का पृष्ठ हुआ करता था, जिसमें हर रविवार श्री राय का एक अग्रलेख होता था।

‘जाग मछन्दर जाग’ के लोकार्पण कार्यक्रम की अध्यक्षता करेंगे वरिष्ठ अलोचक वीरेंद्र यादव। विषय प्रवर्तन की जिम्मेदारी संभालेंगे वरिष्ठ पत्रकार एवं वायस आफ लखनऊ के संपादक रामेश्वर पांडेय। प्रख्यात कथाकार एवं तद्भव के संपादक अखिलेश, वरिष्ठ कवि एवं इग्नू में प्रोफेसर जितेंद्र श्रीवास्तव, कथाकार शीला रोहेकर, वरिष्ठ पत्रकार एवं झांसी विवि के पूर्व प्रोफेसर बंशीधर मिश्र, युवा कवि एवं आलोचक अनिल त्रिपाठी एवं प्रखर युवा आलोचक नलिनरंजन सिंह के व्याख्यान होंगे। कार्यक्रम का संचालन युवा कवि ज्ञानप्रकाश चौबे के हाथ में होगा।

परिचय

सुभाष राय का जन्म जनवरी 1957 में उत्तर प्रदेश के जनपद मऊ के गांव बड़ागांव में हुआ। उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध साहित्य संस्थान के.एम.आई. से हिंदी भाषा और साहित्य में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उत्तीर्ण किया।

उत्तर भारत के विख्यात संत कवि दादूदयाल के रचना संसार पर डाक्टरेट की। चार दशकों से पत्रकारिता से जुड़े हैं। अमृत प्रभात, आज और अमर उजाला जैसे अखबारों में वरिष्ठ पदों पर काम किया।

सम्प्रति लखनऊ में जनसंदेश टाइम्स के प्रधान संपादक के रूप में कार्यरत।

 

हिंदी क्षेत्र की लगभग सभी प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं जैसे पहल, वागर्थ, परिकथा, वर्तमान साहित्य, अभिनव कदम, अभिनव प्रसंगवश, धरती, लोकगंगा, मधुमती, रेवांत, युगतेवर, सृजन सरोकार, आजकल, वसुधा, शोध-दिशा, समन्वय आदि में रचनाएँ प्रकाशित। साहित्यिक पत्रिका समकालीन सरोकार का सम्पादन किया।

शिल्पायन से एक सम्पादित पुस्तक क्यों लिखती हैं स्त्रियाँ प्रकाशित। बोधि प्रकाशन से एक काव्य संग्रह सलीब पर सच प्रकाशित हो चुका है। उन्हें नयी धारा रचना सम्मान से सम्मानित भी किया जा चुका है।

अपने छात्र जीवन में आपातकाल के दौरान अभिव्यक्ति की आजादी पर लगे प्रतिबंधों के खिलाफ जयप्रकाश नारायण के आह्वान पर आंदोलन करते हुए जेलयात्रा भी की है।

( ‘जाग मछन्दर जाग’ वरिष्ठ पत्रकार एवं कवि सुभाष राय की दूसरी पुस्तक है। इसके पहले बोधि प्रकाशन से प्रकाशित उनका कविता संग्रह ‘सलीब पर सच’ काफी चर्चित रहा। ‘जाग मछन्दर जाग’ अमन प्रकाशन कानपुर से प्रकाशित है। इस पुस्तक पर हिंदी के जाने- माने आलोचक प्रोफेसर अरुण होता की एक टिप्पणी प्रस्तुत है।)

सुभाष राय की चिंताओं, सरोकार और लेखकीय दृष्टि से परिचित कराती ‘ जाग मछन्दर जाग’

अरुण होता

कहा जाता है कि शिवजी पार्वती को योग एवं ज्ञान के गूढ तत्व बता रहे थे तो एक मत्स्य ने सब कुछ सुन लिया था। ज्ञान प्राप्त कर लिया था। उसे शिवजी का अभिशाप मिला था कि वह ज्ञानी तो होगा लेकिन जीवन के उत्तरार्ध में भोग-विलास, काम-वासना आदि में आकंठ डूबा रहेगा। मत्स्येन्द्रनाथ ने अपने शिष्य गोरखनाथ को समुचित ज्ञान और योग की शिक्षा प्रदान करने के पश्चात शिवजी का अभिशाप फलीभूत हुआ। गोरखनाथ ने अपने गुरू को राजकीय वैभव, विलास,कामना-विलास, भोग की दुनिया से उद्धार किया था। उन्हें जगाया और लोक-कल्याण के मार्ग का अवलंबन करने हेतु प्रेरित किया। मत्स्येन्द्रनाथ ने अपने पुत्र मीननाथ के साथ पुनः योगमार्ग पर चल पड़े। इस संदर्भ में कहा गया है –“जाग मछन्दर गोरख आया’’ अथवा ‘’जाग मछन्दर जाग’’।

आज के संदर्भ में मछन्दर प्रतिकार्थ के रूप में प्रयुक्त हुआ है। भूमंडलीकरण के दौर में अधिकांश बुद्धिजीवी, लेखक, कलाकार, चित्रकार, आम आदमी सभी भोग-विलास में मतवाले बने हुए हैं। राजनेता और उनके अनुयायियों का क्या कहना ? हमारा समाज अपना ज्ञान, विद्या, बुद्धि और विवेक की तिलांजलि देकर सर्वनाश की राह पर अग्रसर हो रहा है। ऐसी स्थिति में कवि एवं पत्रकार सुभाष राय की ‘जाग मछन्दर जाग’ शीर्षक पुस्तक की उपादेयता को अस्वीकारा नहीं जा सकता है। विवेकहीन समय और समाज में हमारी सुप्तावस्था को जाग्रत करना अत्यंत आवश्यक है। इस संदर्भ में ‘जाग मछन्दर जाग’ का विशेष महत्व प्रतिपादित होता है।

इस पुस्तक में हमारे समकालीन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य को मूर्त करने का प्रयास है। साथ ही, इन समकालीन मुद्दों पर हम लेखक की चिंता, सरोकार और दृष्टि से रू-ब-रू हो सकते हैं। पूंजी, सत्ता और बाज़ार की चालाकियों को उद्घाटित करते हुए लेखक ने जनतंत्र के असली चेहरे को उजागर किया है। मीडिया की भूमिका को प्रश्नांकित किया है। जिस मीडिया को जन-प्रहरी के रूप में अपनी सतत जागरूकता का परिचय देना थावह पूरी तरह सत्ता को सुहानेवाली ‘स्टोरीज़’ बनाने को अपना कर्म, धर्म और उद्देश्य समझ रहा है। ऐसी स्थितियाँ निर्मित की जा रही हैं कि आम आदमी आँख मूँदे सब कुछ सह रहा है अथवा भयानक चुप्पी साधे बैठा है। आम जन बहुराष्ट्रीय कंपनियों के चक्रव्यूह का शिकार बना हुआ है। उसकी लाचारी और विवशताओं को लेखक रेखांकित करता है। ऐसा प्रतीत होता है कि गहरी निद्रा में डूबे मछन्दरों को जगाने, जागरूक बनाने और विवेकवान होकर कार्य करने हेतु प्रेरित करने के उद्देश्य की पूर्ति के लिए ‘जाग मछन्दरजाग’ की रचना हुई है। कहना न होगा कि लेखक ने तमाम सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक,सांस्कृतिक, पर्यावरणीय स्थितियों के साथ समय और समाज की विसंगतियों और अंतर्विरोधों के माध्यम से समकालीन परिदृश्य का जीवंत चित्रण प्रस्तुत किया है।
इस पुस्तक में लेखक ने अपने समय और समाज को खुली आँखों से देखा है और खुले मन-मस्तिष्क से अपनी आंखन देखी को प्रस्तुत किया है। बिना किसी शाब्दिक आडंबर के अपनी चिंता और चेतना को विभिन्न लेखों के माध्यम से अभिव्यक्त किया है। यहाँ किसी तरह का कोई पांडित्य प्रदर्शन नहीं है। आम जन की भाषा में गजब की प्रवाहशीलता से सम्पन्न इन आलेखों में आद्योपांत पठनीयता बनी हुई है। लेखों को पढ़कर पाठक को एक तरह का अपनापन महसूस होता है। फलस्वरूप, चिंतनपरक छोटे-छोटे निबंधों से गुजरते हुए पाठक अपनी तथा समाज की वस्तुस्थिति से परिचित होता जाता है और उसकी चेतना जाग्रत होती है।

इस पुस्तक में संकलित लेखक के तमाम विचारों में से मुक्ति का सवाल सबसे महत्वपूर्ण है। प्रथम आलेख का शीर्षक ‘मुक्ति के मायने’है तो अंतिम का ‘कृष्ण को कैद से निकालें’। इन दो लेखों के बीच संगृहीत निबंधों में मुक्ति के बाधक तत्वों से परिचित कराया गया है। समानता की स्थापना में बाधा पहुंचाने वाली मानव और मानवता विरोधी शक्तियों की छलनाओं और प्रवंचनाओं से शिद्दत के साथ परिचित कराया गया है। बहरहाल, लेखक की मुक्ति संबंधी अवधारणा में मध्यकालीन मोक्ष का कोई स्थान नहीं है जहां व्यक्ति अपनी मृत्यु के बाद ही मुक्ति प्राप्त करता है। उसका स्पष्ट मानना है कि मुक्ति जीवित व्यक्ति की होती है। अपनी मुक्ति के साथ-साथ दूसरों की मुक्ति के लिए संग्राम हो तो मुक्ति के मायने व्यापक हो जाते हैं। अपने कई निबंधों में लेखक ने धार्मिक कुसंस्कारों, अंधविश्वासों, दक़ियानूसी विचारों से भी मुक्त होने का आग्रह किया है। सत्ता की चालाकियों का शिकार बनकर रहना भी एक तरह का बंधन है।पूंजीवादी पाखंड से आध्यात्मिक पाखंड को लेखक कम खतरनाक नहीं मानता है। अतः इनसे भी मुक्ति चाहिए। बाज़ार और विज्ञापन की चमक-दमक से लुभाकर भोग-विलास की वस्तुओं में अपने को डुबाये रखना भी बंधन है। विकास के नाम पर विनाश की लीला रचना और प्रकृति तथा पर्यावरण के समक्ष संकट उत्पन्न करना इंसानियत के सामने बड़ी चुनौती है। असहिष्णुता के दौर में सत्ता तरह तरह के भय, जुल्म और अन्याय का वातावरण उत्पन्न कर रही है ताकि उसकी तानाशाही और मनमानी कायम रहे। लेखक की दृष्टि में भय से मुक्ति परम आवश्यक है। इसलिए वह लिखता है –“ बाकी है आजादी का संग्राम।“ सुभाष राय अंधेरे के नहीं उजाले के अभिलाषी हैं। वे अपने एक छोटे से लेख ‘अंधेरे के खिलाफ’ में लिखते हैं—

“ समाज में, देश में असल रोशनी तो तब होगी जब देश का कोई नागरिक भूखा न रहे, कोई इलाज के बिना न मरे, कोई न्याय में देर के चलते अन्याय की पीड़ा सहन करने को मजबूर न हो, किसी का हक न मारा जाय,मेहनत करने वाला भी अपने बच्चों को पढ़ा सके, अपनी बीबी को ठीक-ठाक कपड़ा पहना सके, जब किसी को अपने जंगल के लिए बंदूक न उठानी पड़े, अपनी जमीन के लिए दर-दर न भटकना पड़े। “

लेखक ने आजाद भारत में दूसरों की भाषा, संस्कृति, वस्तुओं की गुलामी से भी मुक्ति की कामना की है।क्योंकि इससे हमारे अंदर एक तरह का बनावटीपन और छद्म का जन्म होता है। साथ ही लेखक ने अपनी भाषा और अस्मिता को बचाए रखने की आवश्यकता पर विशेष बल दिया है। आज जनतंत्र ने लूट तंत्र का स्थान ले लिया है। चारों ओर लूट मची हुई है। जो जितना बड़ा लुटेरा वह उतना महान बना हुआ है। बाजारवादी अर्थव्यवस्था में लूट की बारीकियों से परिचित कराता आलेख है ‘कौनों ठगवा नगरिया लूटल हो । ‘

इस पुस्तक में एकाधिक आलेखों में मिथकीय संदर्भों को समकालीन परिदृश्य में प्रस्तुत किया गया है। लक्ष्मण रेखा के पार , आस-पास लाक्षागृह, कृष्ण को कैद से निकालें आदि में यह चिंता व्यक्त होती है कि आज के इस विकराल और भयानक दौर में स्थितियाँ पौराणिक काल से कहीं अधिक मारक बन चुकी हैं । परंतु, जनता या तो सुप्तावस्था में है अथवा तटस्थ । इसलिए, इस जनता रूपी मछन्दर को जगाने का वक्त आ गया है। उदाहरण के तौर पर लेखक ने अपने भीतर ‘कृष्ण’ को जगाने का आग्रह करते हुए कहा है –“ कृष्ण नाम है किसी भी जुल्म के विरुद्ध पहल का, दमनकारी ताकतों के खिलाफ संगठित प्रतिरोध का, शोषक और निष्क्रिय व्यवस्था के खिलाफ युद्ध के श्रीगणेश का, ईमानदारी और मेहनत से अपना जीवन चलाने वाले आमजन की पक्षधरता का और सकारात्मक जनकल्याण की दिशा में परिवर्तन का। “

लगभग सभी आलेखों में लेखक ने महत्वपूर्ण सूक्तियों, काव्य-पंक्तियों,श्लोकों , मुहावरों और कहावतों का प्रयोग किया है। इससे जहां एक ओर लेख विस्तार से बच गए हैं वहाँ प्रभावान्विति से युक्त हो गए हैं। कबीर, सूर, तुलसी, मीरा की लोक में प्रचलित काव्यपंक्तियों के प्रयोग से न केवल रोचकता उत्पन्न की गई है बल्कि इससे लेखकीय दृष्टि का भी परिचय मिलता है।
संक्षेप में कहा जा सकता है कि ‘जाग मछन्दर जाग’सुभाष राय की चिंताओं, सरोकार और लेखकीय दृष्टि से परिचित कराती है। उनकी सचेतनशील, प्रगतिशील, मनुष्यप्रेमी दृष्टि न केवल समकालीन समय की कुरूपताओं और समस्याओं को प्रस्तुत करती है बल्कि इनसे निजात पाने की राह की तलाश भी करती है। इसलिए यह पुस्तक पढ़ी जानी चाहिये। इसका चिंतन भी आवश्यक है।

समीक्षक : अरुण होता

2 एफ, धर्मतल्ला रोड, कस्बा, कोलकाता – 700 042
मोबाइल -9434884339

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