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संपत्ति जब्ती मामले में यूपी को सुप्रीम कोर्ट की नोटिस

 

 

19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हुए विरोध प्रदर्शनों में सरकारी और निजी संपत्ति को कई नुकसान पहुंचाया गया जिसमें सरकारी बसें, मीडिया वैन, मोटर बाइक, आदि भी शामिल थी।

वरिष्ठ पत्रकार जे.पी. सिंह की कलम सेे

उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा राज्य में सीएए विरोध प्रदर्शनों के कारण सार्वजनिक संपत्तियों को हुए नुकसान की वसूली के लिए जारी की गई रिकवरी नोटिस को रद्द करने की मांग पर जवाब मांगा है।न्यायमूर्ति डी वाई चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति के एम जोसेफ की पीठ ने राज्य सरकार को नोटिस जारी कर चार हफ्ते के भीतर अपना जवाब दायर करने का निर्देश दिया है।
जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ और जस्टिस के एम जोसेफ की पीठ ने याचिकाकर्ता के इस सवाल पर उत्तर प्रदेश सरकार को नोटिस दिया कि वसूली के लिए प्रशासन द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट द्वारा ” डेस्टरेक्शन ऑफ पब्लिक एंड प्राइवेट प्रॉपर्टीज बनाम सरकार (2009) 5 SCC 212 के मामले में निर्धारित दिशानिर्देशों के अनुरूप नहीं है। नागरिकता संशोधन अधिनियम के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे व्यक्तियों ने उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर करके उत्तर प्रदेश प्रशासन के कथित रूप से सार्वजनिक नुकसान की वसूली करने के नोटिस को रद्द करने मांग की है ।
याचिका में दावा किया गया है कि उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा दावों से निपटने के लिए एक अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट नियुक्त किया गया है, जबकि उच्चतम न्यायालय का निर्णय यह कहता है कि किसी सेवानिवृत्त हाईकोर्ट जज को मामले को देखना चाहिए। यही नहीं कोई अपील करने का प्रावधान नहीं है। किसी आदेश के पारित होने के बाद याची कहां जाये? उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा अपनाई जा रही प्रक्रिया 2009 में शीर्ष अदालत के निर्णय के दिशा-निर्देशों के अनुरूप नहीं है।पीठ ने नोटिस जारी करते हुए चार सप्ताह के भीतर जवाब देने को कहा।
दिसंबर 2019 में नागरिकता संशोधन कानून और एनआरसी के खिलाफ के विरोध प्रदर्शनों के कारण सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान की भरपाई के लिए उत्तर प्रदेश के जिला प्रशासन द्वारा जारी नोटिस को रद्द करने की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है । कथित तौर पर, 19 दिसंबर, 2019 को लखनऊ और राज्य के अन्य हिस्सों में हुए विरोध प्रदर्शनों में सरकारी और निजी संपत्ति को कई नुकसान पहुंचाया गया जिसमें सरकारी बसें, मीडिया वैन, मोटर बाइक, आदि भी शामिल थी। मोहम्मद शुजाउद्दीन बनाम उत्तर प्रदेश में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के 2010 के फैसले के अनुसार ये नोटिस जारी किए गए जिसमें कहा गया था कि सरकार द्वारा नामांकित प्राधिकरण को नुकसान का आकलन और जनता से दावे प्राप्त करने हैं।

याचिका में कहा गया है कि उच्च न्यायालय का उक्त आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वत: संज्ञान लेकर दिए गए ” डेस्टरेक्शन ऑफ पब्लिक एंड प्राइवेट प्रॉपर्टीज बनाम सरकार (2009) 5 एससीसी 212 में पारित दिशानिर्देशों का उल्लंघन है। उस फैसले में उच्चतम न्यायालय ने यह कहते हुए दिशा-निर्देश जारी किए थे कि हिंसा के कारण इस तरह के हर्जाने की वसूली के लिए विधानमंडल की अनुपस्थिति में, उच्च न्यायालय अपने दम पर सार्वजनिक संपत्ति को बड़े पैमाने पर नुकसान की घटनाओं का संज्ञान ले सकता है और मुआवजे की जांच और हर्जाना देने के लिए मशीनरी की स्थापना कर सकता है।
दिशानिर्देशों में कहा गया है कि हर्जाने या जांच की देयता का अनुमान लगाने के लिए एक वर्तमान या सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश को दावा आयुक्त के रूप में नियुक्त किया जा सकता है। ऐसा कमिश्नर हाईकोर्ट के निर्देश पर सबूत ले सकता है। एक बार देयता का आकलन करने के बाद इसे हिंसा के अपराधियों और घटना के आयोजकों द्वारा वहन किया जाएगा।
याचिकाकर्ता ने दावा किया है कि उच्च न्यायालय का आदेश उच्चतम न्यायालय के फैसले के विपरीत है क्योंकि उच्चतम न्यायालय ने हर राज्य के उच्च न्यायालयों पर अभियुक्तों से नुकसान और वसूली के आकलन का जिम्मा सौंपा था जबकि इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने इसमें दिशा-निर्देश दिए हैं कि राज्य सरकार इन प्रक्रियाओं को शुरू करे। उनके अनुसार इसके गंभीर निहितार्थ हैं।

न्यायिक निरीक्षण / न्यायिक सुरक्षा एक प्रकार का सुरक्षा तंत्र है, जो मनमानी कार्रवाई के खिलाफ है। इसका मतलब है कि राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी अपने राजनीतिक विरोधियों या अन्य लोगों द्वारा विरोध के खिलाफ कार्रवाई कर सकती है।
याचिकाकर्ता ने कहा है कि नोटिस बहुत ही मनमाने तरीके से जारी किए गए हैं, क्योंकि जिन लोगों को नोटिस भेजे गए हैंं ,उनके खिलाफ एफआईआर या कोई आपराधिक मामला दर्ज नहीं किया गया है। याचिका में खुलासा किया गया है कि पुलिस ने 94 साल की उम्र में 6 साल पहले मरने वाले व्यक्ति बन्ने खान के खिलाफ मनमाने तरीके से नोटिस जारी किया था और साथ ही 90 साल की उम्र के 2 बुजुर्गों को भी नोटिस भेजा जिसका देश भर में प्रचार हुआ।
याचिकाकर्ता ने सीएए-एनआरसी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन के दौरान हुई घटनाओं की एक स्वतंत्र न्यायिक जांच कराने के लिए भी निर्देश मांगे गए थे।
याचिका में दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा नीत योगी आदित्यनाथ सरकार प्रदर्शनकारियों की संपत्ति जब्त कर, “सार्वजनिक संपत्ति को हुए नुकसान का बदला लेने के मुख्यमंत्री के वादे पर आगे बढ़ रही है ताकि अल्पसंख्यक समुदाय से राजनीतिक कारणों के लिए बदला लिया जा सके’।इसमें आरोप लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश में हिंसक प्रदर्शनों के संबंध में अब तक गिरफ्तार करीब 925 लोगों को तब तक आसानी से जमानत नहीं मिलेगी जब तक कि वे नुकसान की भरपाई नहीं करते क्योंकि उन्हें रकम जमा कराने के बाद ही सशर्त जमानत दी जाएगी।
याचिका में आरोप लगाया गया है कि उत्तर प्रदेश सरकार और उसका प्रशासन लोकतांत्रिक सरकार के तौर पर काम नहीं कर रहा क्योंकि इसने सीएए/ एनआरसी के खिलाफ प्रदर्शनों पर कार्रवाई की। पुलिस ने उत्तर प्रदेश प्रशासन के निर्देशों पर अत्यधिक बल का प्रयोग किया और सार्वजनिक जवाबदेही से इनकार किया।सीएए विरोधी प्रदर्शनों का ब्योरा देते हुए याचिका में दावा किया गया है कि उत्तर प्रदेश में “कानून का कोई शासन” नहीं रह गया है और संविधान के तहत सुनिश्चित मौलिक अधिकारों का पूरी तरह उल्लंघन हो रहा है।

गौरतलब है कि यूपी सरकार ने नागरिकता संशोधन कानून को लेकर अलग-अलग विरोध प्रदर्शन के दौरान सार्वजनिक संपत्तियों को नुकसान पहुंचाने वाले लोगों की पहचान कर उनसे वसूली करने का आदेश दिया है। इसी संबंध में राजधानी लखनऊ में चिह्नित 150 कथित आरोपियों को नोटिस जारी कर जवाब मांगा गया है। वहीं मुजफ्फरनगर में हुई हिंसा के मामले में 46 लोगों को चिह्नित करते हुए उन्हें नुकसान की क्षतिपूर्ति के लिए नोटिस जारी किए गए थे।

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