“काल के भाल पर कुंकुम उकेरने वाले सिद्धपुरुष का नाम है, स्वामी विवेकानन्द।
नैतिक मूल्यों के विकास एवं युवा चेतना के जागरण हेतु कटिबद्ध, मानवीय मूल्यों के पुनरुत्थान के सजग प्रहरी, अध्यात्म दर्शन और संस्कृति को जीवंतता देने वाली संजीवनी बूटी, भारतीय संस्कृति एवं भारतीयता के प्रखर प्रवक्ता, युगीन समस्याओं के समाधायक, अध्यात्म और विज्ञान के समन्वयक, वेदान्त के विख्यात और प्रभावशाली आध्यात्मिक गुरु हैं स्वामी विवेकानन्द।”
महाभारत आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व हुआ था ।श्री कृष्ण ने लड़ाई मै भाग नही लिया सिर्फ सारथी थे। जब बर्बरीक के कटे सिर से पूछा (जिसने युद्ध देखा धा ) आपको पान्डव की ओर से किस योद्धा ने सबसे् जयादा प्रभावित किया। बर्बरीक ने कहा मैंने युद्धस्थल मे #श्रीकृष्ण को अकेले ही लड़ते व पूरी कौरव सेना का संहार करते देखा है।
आज से 1500 साल या उससे ज्यादा साल बाद जब प्रश्न उठेगा अंग्रेज किसके डर से भागे, उत्तर होगा #स्वामी_विवेकानंद के डर से।
1897 से 1947 तक, पूरे 50 वर्ष अकेले स्वामीे विवेकानन्द ने लड़ाई लड़ी।
आप कृपया अति गंभीरता से गौर करे, 1897 मे एक भाषण मे स्वामी विवेकानन्द ने युवाओं से कहा,
(1) आज भगवान व भक्ति को समुद्र मे डुबो दो, सिर्फ तुम्हें सामने भारत माँ नजर आना चाहिए
(2) अपने को कायस्थ बतलाते हुए उन्होंने कहा, उत्तिष्ठ जाग्रत,,,,अर्थात उठो जागो और रूको नहीं जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जावे।
उन्होंने कहा एक विचार को अपना जीवन बनाओ उसके लिए सोचो उसके सपने देखो उसके लिये जियो अपने मस्तिष्क मान्शपेशियो को नसों यहाँ तक पूरे शरीर को उसमे डुबा दो कोई दूसरा विचार दिमाग से हटा दो। ब्रम्हाण्ड तुममें समाया है, तुम सब कर सकते हो। मै कमजोर हू कहना पाप है तुम्हारा आत्मविश्वास ही तुम्हारी शक्ति है । अंत मे अगर तुम्हारे दिल व दिमाग मे संघर्ष हो तो दिल की सुनो।
इन वाक्यों से लगभग 5 लाख क्रांतिकारी त्यागी वलिदानी व देश भक्त पैदा हुए और अंग्रेजो को जाना पड़ा। सुभाष चन्द्र बोस के विवेकानन्द प्रेरणास्रोत थे । उनहोंने ICS की डिग्री लोटाते हुए कहा मै विवेकानन्द का अनुयायी देश को गुलाम बनाने वाले अंग्रेजो की नोकरी केसे कर सकता हूँ ।
#नेताजी #सुभाषचन्द्र_बोस ने स्वामी विवेकानंद को “राष्ट्रीय आन्दोलन का #आध्यात्मिक_पिता” कहा।
जब लार्ड एटली 1956 मे भारत आए। उनसे जब पूछा गया कि आपको 1960तक भारत को स्वतंत्र करने की अवधि UNO से निर्धारित थी, आप क्या महात्मा गाँधी के डर गये? उनहोंने कहा नहीं सुभाष चन्द्र बोस से….. फिर पत्रकार ने कहा कैसे सुभाष चन्द्र बोस बोस मर गये थे उनकी आजादहिंद फौज के सैनिकों को आपने बन्दी बना दिया था। लार्ड एटली ने कहा आजाद हिंद फौज पर मुकदमा चलाने के बाद नौ सेना ने विद्रोह कर दिया था अतः कोई विकल्प नहीं था।
दोस्तों विवेकानन्द #कायस्थ थे। कायस्थ जागो अपने को पहचानो ये सदी मे कायस्थो को बड़ी भूमिका निभानी है।
विचार मेरे मौलिक है । स्वामी विवेकानन्द की जयन्ती व युवा दिवस 12 जनवरी कोटि कोटि नमन।
स्वामी_विवेकानंद_जयंती
“स्वामी विवेकानन्द” – युवा दिवस
” मैं सिर्फ और सिर्फ प्रेम की शिक्षा देता हूं”
स्वामी विवेकानंद के जन्म , मृत्यु और मानव जीवन के विषय में हम आगे बात कर लेंगे,
क्योंकि मेरा ऐसा मानना है कि विवेकानंद जन्म मृत्यु के बंधन से बहुत आगे हैं और जब तक हिंदू सनातनी परंपरा जीवित है विवेकानंद उसके कण-कण में जीवित रहेंगे !
एक ऐसा सन्यासी जिसने 500 वर्षों के मुगल शासन और 100 से अधिक वर्षों के अंग्रेजों के शासन के बाद हिंदू संस्कृति और सनातनी परंपरा को पुनर्जीवित कर उसमें से रूढ़िवादिता को हटाकर , युवा भारत के परिपेक्ष में पुनर्स्थापित किया!
आज हम उनके जीवन के प्रेरक प्रसंग और उनके द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत जो कि आने वाली कई सदियों तक न सिर्फ हिन्दू वरन समस्त मानव जीवन के आधार स्तंभ रहेंगे , उन पर बात करेंगे!
(१) स्वामी विवेकानंद को एक राजा ने अपने महल में बुलाया और कहा , “तुम हिन्दू लोग मूर्ती की पूजा करते हो! मिट्टी, पीतल, पत्थर की मूर्ती की ! पर मैं ये सब नही मानता। ये तो केवल एक पदार्थ है।”
उस राजा के सिंहासन के पीछे किसी आदमी की तस्वीर लगी थी। विवेकानंद जी कि नजर उस तस्वीर पर पड़ी। विवेकानंद जी ने राजा से पूछा, “राजा जी, ये तस्वीर किसकी है?”
राजा बोला, “मेरे पिताजी की।”
स्वामी जी बोले, “उस तस्वीर को अपने हाथ में लीजिये।”
राजा तस्वीर को हाथ मे ले लेता है।
स्वामी जी राजा से : “अब आप उस तस्वीर पर थूकिए!”
राजा : “ये आप क्या बोल रहे हैं स्वामी जी?”
स्वामी जी : “मैंने कहा उस तस्वीर पर थूकिए!”
राजा (क्रोध से) : “स्वामी जी, आप होश मे तो हैं ना? मैं ये काम नही कर सकता।”
स्वामी जी बोले, “क्यों? ये तस्वीर तो केवल एक कागज का टुकड़ा है, और जिस पर कूछ रंग लगा है। इसमे ना तो जान है, ना आवाज, ना तो ये सुन सकती है, और ना ही कूछ बोल सकती है। इसमें ना ही हड्डी है और ना प्राण। फिर भी आप इस पर कभी थूक नही सकते। क्योंकि आप इसमे अपने पिता का स्वरूप देखते हो। और आप इस तस्वीर का अनादर करना अपने पिता का अनादर करना ही समझते हो।
वैसे ही, हम हिंदू भी उन पत्थर, मिट्टी, या धातु की पूजा भगवान का स्वरूप मान कर करते हैं। भगवान तो कण-कण मे है, पर एक आधार मानने के लिए और मन को एकाग्र करने के लिए हम मूर्ती पूजा करते हैं।” तब राजा ने स्वामी जी के चरणों में गिर कर क्षमा माँगी।
(२) स्वामी विवेकानंद जी से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया,” माँ की महिमा संसार में किस कारण से गायी जाती है? स्वामी जी मुस्कराए, उस व्यक्ति से बोले, पांच सेर वजन का एक पत्थर ले आओ | जब व्यक्ति पत्थर ले आया तो स्वामी जी ने उससे कहा, ” अब इस पत्थर को किसी कपडे में लपेटकर अपने पेट पर बाँध लो और चौबीस घंटे बाद मेरे पास आओ तो मैं तुम्हारे प्रश्न का उत्तर दूंगा |”
स्वामी जी के आदेशानुसार उस व्यक्ति ने पत्थर को अपने पेट पर बाँध लिया और चला गया | पत्थर बंधे हुए दिनभर वो अपना कम करता रहा, किन्तु हर छण उसे परेशानी और थकान महसूस हुई | शाम होते-होते पत्थर का बोझ संभाले हुए चलना फिरना उसके लिए असह्य हो उठा | थका मांदा वह स्वामी जी के पास पंहुचा और बोला , ” मै इस पत्थर को अब और अधिक देर तक बांधे नहीं रख सकूँगा | एक प्रश्न का उत्तर पाने के लिए मै इतनी कड़ी सजा नहीं भुगत सकता |”
स्वामी जी मुस्कुराते हुए बोले, ” पेट पर इस पत्थर का बोझ तुमसे कुछ घंटे भी नहीं उठाया गया और माँ अपने गर्भ में पलने वाले शिशु को पूरे नौ माह तक ढ़ोती है और ग्रहस्थी का सारा काम करती है | संसार में माँ के सिवा कोई इतना धैर्यवान और सहनशील नहीं है इसलिए माँ से बढ़ कर इस संसार में कोई और नहीं |
(3) एक बार स्वामी विवेकानन्द के आश्रम में एक व्यक्ति आया जो देखने में बहुत दुखी लग रहा था । वह व्यक्ति आते ही स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ा और बोला कि महाराज मैं अपने जीवन से बहुत दुखी हूँ मैं अपने दैनिक जीवन में बहुत मेहनत करता हूँ , काफी लगन से भी काम करता हूँ लेकिन कभी भी सफल नहीं हो पाया । भगवान ने मुझे ऐसा नसीब क्यों दिया है कि मैं पढ़ा लिखा और मेहनती होते हुए भी कभी कामयाब नहीं हो पाया हूँ,धनवान नहीं हो पाया हूँ ।
स्वामी जी उस व्यक्ति की परेशानी को पल भर में ही समझ गए । उन दिनों स्वामी जी के पास एक छोटा सा पालतू कुत्ता था , उन्होंने उस व्यक्ति से कहा – तुम कुछ दूर जरा मेरे कुत्ते को सैर करा लाओ फिर मैं तुम्हारे सवाल का जवाब दूँगा ।
आदमी ने बड़े आश्चर्य से स्वामी जी की ओर देखा और फिर कुत्ते को लेकर कुछ दूर निकल पड़ा । काफी देर तक अच्छी खासी सैर करा कर जब वो व्यक्ति वापस स्वामी जी के पास पहुँचा तो स्वामी जी ने देखा कि उस व्यक्ति का चेहरा अभी भी चमक रहा था जबकि कुत्ता हाँफ रहा था और बहुत थका हुआ लग रहा था । स्वामी जी ने व्यक्ति से कहा – कि ये कुत्ता इतना ज्यादा कैसे थक गया जबकि तुम तो अभी भी बिना थके दिख रहे हो तो व्यक्ति ने कहा कि मैं तो सीधा साधा अपने रास्ते पे चल रहा था लेकिन ये कुत्ता गली के सारे कुत्तों के पीछे भाग रहा था और लड़कर फिर वापस मेरे पास आ जाता था । हम दोनों ने एक समान रास्ता तय किया है लेकिन फिर भी इस कुत्ते ने मेरे से कहीं ज्यादा दौड़ लगाई है इसीलिए ये थक गया है ।
स्वामी जी ने मुस्कुरा कर कहा -यही तुम्हारे सभी प्रश्नों का जवाब है , तुम्हारी मंजिल तुम्हारे आस पास ही है वो ज्यादा दूर नहीं है लेकिन तुम मंजिल पे जाने की बजाय दूसरे लोगों के पीछे भागते रहते हो और अपनी मंजिल से दूर होते चले जाते हो ।
(४) एक बार जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका गए थे, एक महिला ने उनसे शादी करने की इच्छा जताई. जब स्वामी विवेकानंद ने उस महिला से ये पुछा कि आप ने ऐसा प्रश्न क्यूँ किया?
उस महिला का उत्तर था कि वो उनकी बुद्धि से बहुत मोहित है.और उसे एक ऐसे ही बुद्धिमान बच्चे कि कामना है. इसीलिए उसने स्वामी से ये प्रश्न कि क्या वो उससे शादी कर सकते है और उसे अपने जैसा एक बच्चा दे सकते हैं?
उन्होंने महिला से कहा कि चूँकि वो सिर्फ उनकी बुद्धि पर मोहित हैं इसलिए कोई समस्या नहीं है. उन्होंने कहा “मैं आपकी इच्छा को समझता हूँ. शादी करना और इस दुनिया में एक बच्चा लाना और फिर जानना कि वो बुद्धिमान है कि नहीं, इसमें बहुत समय लगेगा. इसके अलावा ऐसा हो इसकी गारंटी भी नहीं है. इसके बजाय, आपकी इच्छा को तुरंत पूरा करने हेतु मैं आपको एक सुझाव दे सकता हूँ. मुझे अपने बच्चे के रूप में स्वीकार कर लें .इस प्रकार आप मेरी माँ बन जाएँगी. और इस प्रकार मेरे जैसे बुद्धिमान बच्चा पाने की आपकी इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी.“
(५) उन दिनों स्वामी विवेकानंद अमरीका में एक महिला के यहां ठहरे हुए थे, जहां अपना खाना वे खुद बनाते थे। एक दिन वे भोजन करने जा रहे थे कि कुछ भूखे बच्चे पास आकर खड़े हो गए। स्वामी विवेकानंद ने अपनी सारी रोटियां उन बच्चों में बांट दी। यह देख महिला ने उनसे पूछा, ‘आपने सारी रोटियां उन बच्चों को दे डालीं। अब आप क्या खाएंगे?’ उन्होंने मुस्कुरा कर जवाब दिया, ‘रोटी तो पेट की ज्वाला शांत करने वाली चीज है। इस पेट में न सही, उस पेट में ही सही। देने का आनंद पाने के आनंद से बड़ा होता है।’
(६) एक बार बनारस में एक मंदिर से निकलते हुए विवेकानंद को बहुत सारे बंदरों ने घेर लिया। वे खुद को बचाने के लिए भागने लगे, लेकिन बंदर उनका पीछा नहीं छोड़ रहे थे। पास खड़े एक वृद्ध संन्यासी ने उनसे कहा, ‘रुको और उनका सामना करो!’ विवेकानंद तुरंत पलटे और बंदरों की तरफ बढऩे लगे। उनके इस रवैये से सारे बंदर भाग गए। इस घटना से उन्होंने सीख ग्रहण की कि डर कर भागने की अपेक्षा मुसीबत का सामना करना चाहिए। कई सालों बाद उन्होंने एक संबोधन में कहा भी, ‘यदि कभी कोई चीज तुम्हें डराए तो उससे भागो मत। पलटो और सामना करो।
(७) विदेश जाने पर एक बार स्वामी विवेकानंद से पूछा गया, ‘आपका बाकी सामान कहां है?’ उन्होंने उत्तर दिया, ‘बस यही सामान है।’ कुछ लोगों ने व्यंग्य करते हुए कहा, ‘अरे! यह कैसी संस्कृति है आपकी? तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है।’ इस पर वह मुस्कुराकर बोले, ‘हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से अलग है। आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं, जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है। संस्कृति वस्त्रों में नहीं, चरित्र के विकास में है।
(८) अमरीका में भ्रमण करते हुए स्वामी विवेकानंद ने एक जगह देखा कि पुल पर खड़े कुछ लडक़े बंदूक से निशाना लगाने की कोशिश रहे हैं। किसी का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था। तब वे एक लडक़े से बंदूक लेकर खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना बिलकुल सही लगाया। फिर एक के बाद एक उन्होंने 12 निशाने सही लगाए।
लडक़ों ने आश्चर्य से पूछा, ‘आप यह कैसे कर लेते हैं?’ स्वामी विवेकानंद बोले, ‘तुम जो भी कर रहे हो, अपना पूरा दिमाग उसी एक काम में लगाओ। अगर तुम निशाना लगा रहे हो तो तुम्हारा पूरा ध्यान अपने लक्ष्य पर ही होना चाहिए। फिर कभी चूकोगे नहीं। अगर अपना पाठ पढ़ रहे हो, तो केवल पाठ के बारे में सोचो। एकाग्रता ही सफलता की कुंजी है!
स्वामी विवेकानंद के ऐसे अनमोल विचार, जो आपके जीवन की दिशा को बदल सकते हैं…
1. जब तक जीना, तब तक सीखना, अनुभव ही जगत में सर्वश्रेष्ठ शिक्षक है.
2. जितना बड़ा संघर्ष होगा जीत उतनी ही शानदार होगी.
3. पढ़ने के लिए जरूरी है एकाग्रता, एकाग्रता के लिए जरूरी है ध्यान. ध्यान से ही हम इन्द्रियों पर संयम रखकर एकाग्रता प्राप्त कर सकते है.
4. पवित्रता, धैर्य और उद्यम- ये तीनों गुण मैं एक साथ चाहता हूं.
5. उठो और जागो और तब तक रुको नहीं जब तक कि तुम अपना लक्ष्य प्राप्त नहीं कर लेते.
6. ज्ञान स्वयं में विद्यमान है, मनुष्य केवल उसका आविष्कार करता है.
7. एक समय में एक काम करो , और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमे डाल दो और बाकी सब कुछ भूल जाओ.
8. जब तक आप खुद पे विश्वास नहीं करते तब तक आप भागवान पे विश्वास नहीं कर सकते.
9.ध्यान और ज्ञान का प्रतीक हैं भगवान शिव, सीखें आगे बढ़ने के सबक!
10. लोग तुम्हारी स्तुति करें या निन्दा, लक्ष्य तुम्हारे ऊपर कृपालु हो या न हो, तुम्हारा देहांत आज हो या युग में, तुम न्यायपथ से कभी भ्रष्ट न हो!
(११)भला हम भगवान को खोजने कहां जा सकते हैं अगर उसे अपने दिल और हर एक जीवित प्राणी में नहीं देख सकते.
(१२) दिल और दिमाग के टकराव में दिल की सुनो.
(१३ ) पहले हर अच्छी बात का मजाक बनता है फिर विरोध होता है और फिर उसे स्वीकार लिया जाता है।
” यदि आप भारत को जानना चाहते हैं तो विवेकानंद को पढ़िए , वे पूरी तरह से सकारात्मक है उनमें आपको नकारात्मकता कभी कहीं नहीं मिलेगी ” — रविंद्र नाथ टैगोर
” उनके द्वितीय होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती है वे जहां भी रहे सर्वप्रथम ही रहे ” — रोमां रोला
स्वामी विवेकानंद का जन्म कोलकाता में 12 जनवरी 1863 को हुआ था।
उनका जन्म दिवस आज पूरे देश में ” युवा दिवस” के रूप में मनाया जाता है!
स्वामी जी के पिता का नाम विश्वनाथ दत्त और माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। स्वामी जी का मूल नाम नरेंद्रनाथ था, लोग उन्हें नरेन के नाम से भी जानते थे। इनके पिता कोलकाता हाईकोर्ट में अटार्नी ऑफ लॉ थे। स्वामी जी ने कोलकाता के कॉलेज से बी.ए. और लॉ की डिग्री हासिल की थी। लेकिन, उनका मन अध्यात्म की ओर ज्यादा था।
नरेंद्र नाथ को विवेकानंद नाम उनके गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने दिया था। नरेंद्र अद्भुत प्रतिभा के धनी थे और वेदांत पर काफी अच्छी पकड़ थी। विषयों के गहन चिंतन और अध्ययन में उनकी बुद्धि-विवेक को देखकर ही रामकृष्ण परमहंस ने उन्हें सन्यास के बाद “विवेकानंद नाम दिया।
स्वामी विवेकानंद ने 11 सितंबर 1893 को शिकागो (अमेरिका) में हुए विश्व धर्म सम्मेलन में एक बेहद चर्चित भाषण दिया था। विवेकानंद का जब भी जिक्र आता है उनके इस भाषण की चर्चा जरूर होती है।
विवेकानंद के उस विश्व प्रसिद्ध भाषण के अंश –
अमेरिका के बहनो और भाइयो,
आपके इस स्नेहपूर्ण और जोरदार स्वागत से मेरा हृदय अपार हर्ष से भर गया है। मैं आपको दुनिया की सबसे प्राचीन संत परंपरा की तरफ से धन्यवाद देता हूं। मैं आपको सभी धर्मों की जननी की तरफ से धन्यवाद देता हूं और सभी जाति, संप्रदाय के लाखों, करोड़ों हिंदुओं की तरफ से आपका आभार व्यक्त करता हूं। मेरा धन्यवाद कुछ उन वक्ताओं को भी जिन्होंने इस मंच से यह कहा कि दुनिया में सहनशीलता का विचार सुदूर पूरब के देशों से फैला है। मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने दुनिया को सहनशीलता और सार्वभौमिक स्वीकृति का पाठ पढ़ाया है। हम सिर्फ सार्वभौमिक सहनशीलता में ही विश्वास नहीं रखते, बल्कि हम विश्व के सभी धर्मों को सत्य के रूप में स्वीकार करते हैं।
मुझे गर्व है कि मैं एक ऐसे देश से हूं, जिसने इस धरती के सभी देशों और धर्मों के परेशान और सताए गए लोगों को शरण दी है। मुझे यह बताते हुए गर्व हो रहा है कि हमने अपने हृदय में उन इजरायलियों की पवित्र स्मृतियां संजोकर रखी हैं, जिनके धर्म स्थलों को रोमन हमलावरों ने तोड़-तोड़कर खंडहर बना दिया था और तब उन्होंने दक्षिण भारत में शरण ली थी। मुझे इस बात का गर्व है कि मैं एक ऐसे धर्म से हूं, जिसने महान पारसी धर्म के लोगों को शरण दी और अभी भी उन्हें पाल-पोस रहा है।
भाइयो, मैं आपको एक श्लोक की कुछ पंक्तियां सुनाना चाहूंगा जिसे मैंने बचपन से स्मरण किया और दोहराया है और जो रोज करोड़ों लोगों द्वारा हर दिन दोहराया जाता है: जिस तरह अलग-अलग स्त्रोतों से निकली विभिन्न नदियां अंत में समुद में जाकर मिलती हैं, उसी तरह मनुष्य अपनी इच्छा के अनुरूप अलग-अलग मार्ग चुनता है। वे देखने में भले ही सीधे या टेढ़े-मेढ़े लगें, पर सभी भगवान तक ही जाते हैं।
वर्तमान सम्मेलन जो कि आज तक की सबसे पवित्र सभाओं में से है, गीता में बताए गए इस सिद्धांत का प्रमाण है: जो भी मुझ तक आता है, चाहे वह कैसा भी हो, मैं उस तक पहुंचता हूं। लोग चाहे कोई भी रास्ता चुनें, आखिर में मुझ तक ही पहुंचते हैं।
सांप्रदायिकताएं, कट्टरताएं और इसके भयानक वंशज और उनकी हठधमिर्ता लंबे समय से पृथ्वी को अपने शिकंजों में जकड़े हुए हैं। इन्होंने पृथ्वी को हिंसा से भर दिया है। कितनी बार ही यह धरती खून से लाल हुई है। कितनी ही सभ्यताओं का विनाश हुआ है और न जाने कितने देश नष्ट हुए हैं।
अगर ये भयानक राक्षस नहीं होते तो आज मानव समाज कहीं ज्यादा उन्नत होता, लेकिन अब उनका समय पूरा हो चुका है। मुझे पूरी उम्मीद है कि आज इस सम्मेलन का शंखनाद सभी हठधर्मिताओं, हर तरह के क्लेश, चाहे वे तलवार से हों या कलम से और सभी मनुष्यों के बीच की दुर्भावनाओं का विनाश करेगा।
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विवेकानन्द बड़े स्वप्नदृष्टा थे। उन्होंने एक ऐसे समाज की कल्पना की थी जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में कोई भेद न रहे। उन्होंने वेदान्त के सिद्धान्तों को इसी रूप में रखा। अध्यात्मवाद बनाम भौतिकवाद के विवाद में पड़े बिना भी यह कहा जा सकता है कि समता के सिद्धान्त का जो आधार विवेकानन्द ने दिया उससे सबल बौद्धिक आधार शायद ही ढूँढा जा सके।
विवेकानन्द को युवकों से बड़ी आशाएँ थीं। आज के युवकों के लिये इस ओजस्वी संन्यासी का जीवन एक आदर्श है।
विवेकानंद के ओजस्वी और सारगर्भित व्याख्यानों की प्रसिद्धि विश्व भर में है। उनके शिष्यों के अनुसार जीवन के अन्तिम दिन – ४ जुलाई १९०२ को भी उन्होंने अपनी ध्यान करने की दिनचर्या को नहीं बदला और प्रात: दो तीन घण्टे ध्यान किया और ध्यानावस्था में ही अपने ब्रह्मरन्ध्र को भेदकर महासमाधि ले ली। बेलूर में गंगा तट पर चन्दन की चिता पर उनकी अंत्येष्टि की गयी। इसी गंगा तट के दूसरी ओर उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस का सोलह वर्ष पूर्व अन्तिम संस्कार हुआ था।
विवेकानंद के विषय में हम जितनी भी बात करेंगे जितना भी जानने का प्रयास करेंगे और जितना भी पढ़ेंगे वह सागर की चंद बूंदों से अधिक कुछ नहीं होगा !
“एक और विवेकानंद चाहिए यह समझने के लिए कि विवेकानंद ने क्या किया है”
शत शत नमन
निलेश रावल