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“टेलीविजन स्त्री भावनाओं का आज की तारीख़ में प्रवक्ता की भूमिका निभा रहा है”: शांति भूषण

” शांति भूषण जी मूलतः एक अच्छे राइटर हैं और कोविड-19 का प्रभाव निश्चित रंगमंच ही नहीं टेलीविजन से जुड़े कलाकारों के काम पर भी असर पड़ा। अपनी रंग यात्रा रंगमंच से शुरू करते हुए टीवी धारावाहिकों में लेखन का कार्य प्रमुखता से किया और कर रहे हैं। इनकी प्रमुख सीरियल प्रतिज्ञा, अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, पलकों की छांव में, गुनाहों का देवता, मधुबाला, डोली अरमानों की, सरोजिनी, इश्क का रंग सफेद, और तमाम धारावाहिकों में फिल्मों में स्क्रिप्ट लेखन का कार्य कर रहे हैं। आज हम लोगों के बीच साझा करेंगे अपनी रंग यात्रा “:- ऋतंधरा मिश्रा

ऋतंधरा जी, मैंने विधिवत रंगमंच की शुरुआत सन १९९२ में इलाहाबाद में की । मैं मूलतःग़ाज़ीपुर के एक गाँव युवराजपुर का रहने वाला हूँ और इलाहाबाद उच्च शिक्षा के लिए आया था, किंतु बचपन से पेंटिंग और कविता से लगाव था और वही लगाव मुझे रंग मंच तक ले गया । रंग मंच की शुरुआती शिक्षा मैंने श्री अनिल रंजन भौमिक से ली और उनके समानान्तर इंटिमेट थिएटर के साथ कई नाटक किए जिनमे कोर्टमार्शल और मंथन उल्लेखनीय हैं, फिर स्व० श्री सचिन तिवारी के कैम्पस थिएटर के साथ लम्बे समय तक जुड़ा रहा और उनके निर्देशन में मैंने प्रगतिशील, दंगा, महाभोज, वेटिंग फ़ॉर गोदो, इन द ज़ोन जैसे नाटकों में अभिनय किया। इसके अलावा मैंने स्व० श्री नंदू ठाकुर के साथ ड्रेमेटिक मुक़दमा और गोदन और मंजुल वर्मा निर्देशित खूनी बैसाखी में अभिनय किया ।

नाटकों में अभिनय के साथ साथ मैं नाटकों का लेखन और निर्देशन भी करता था। मैंने कई उपन्यासों और कहानियों का नाट्य रूपांतरण भी किया जिनमें गोदान और मैला आँचल महत्वपूर्ण हैं। मेरे निर्देशित नाटक बेचारा बुधुआ, कबीर, पाँचू, मैला आँचल आदि हैं। नाटकों के बीच मैं पेंटिंग भी करता रहा और मैंने बहुत से नाटकों के पोस्टर भी डिज़ाइन किए । अख़बारों के0 लिए लिखता भी रहा और आल इंडिया रेडियों में कैजुअल कंपीयर के रूप में क़रीब पाँच साल तक काम किया इसके अलावा विभिन्न रेडियों नाटकों में बहुत सारे किरदार भी किए । कुल मिलाकर इलाहाबाद का मेरा सफ़र कलात्मक ऊर्जा से भरा रहा और मैंने उस शहर से बहुत सीखा ।

और फिर सन २००० में मुंबई चला आया । शुरुआत में कुछ धारावाहिकों में अभिनय भी किया किंतु थोड़े ही दिन बाद मैं लेखन में आ गया । हलाँकि लेखन में आने की मेरी कोई योजना नहीं थी मैं अभिनय और निर्देशन ही करना चाहता था किंतु मैं लिखता हूँ ये बात कुछ मित्रों को पता थी और उन्ही की वजह से कभी कभी कुछ लिख दिया करता था । मेरे एक मित्र के आग्रह पर मैंने एक भोजपुरी फ़िल्म “साथी संघाती” का संवाद लिखा और उस फ़िल्म के लिए मुझे बेस्ट डायलाग राइटर का अवार्ड मिल गया फिर तो दोस्तों ने भी कहना शुरू कर दिया और मुझे भी लगने लगा कि मुझे लेखन को अपनाना चाहिए जहां मैं कुछ अच्छा कर सकता हूँ, और यहाँ से मैं पूर्ण रूपेण लेखक बन गया ।


लेखक बनने के पीछे दूसरी वजह ये भी है कि लेखक के तौर पे काम मिलने में मुझे कभी कोई समस्या नहीं हुई । लोगों को मैं कहानियाँ सुनाता था, जो उन्हें बहुत पसंद आती थी क्योंकि मेरी कहानियों में नयेपन के साथ साथ समाज का सच होता था जिससे लोग आसानी से जुड़ जाते थे और मुझे काम मिलने लगा। मैंने धारावाहिकों में अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो, प्रतिज्ञा, पलकों की छाँव में, प्रथा, गुनाहों का देवता, मधुबाला, डोली अरमानों की, सरोजनी, इश्क़ का रंग सफ़ेद, महाकुंभ, शक्ति- अस्तित्व के एहसास की, मुस्कान, रूप, संतोषी माँ, एक महानायक डॉक्टर बी आर अम्बेडकर लिखा जिनमे से शक्ति, संतोषी माँ और डॉ० अम्बेडकर का प्रसारण अभी भी चल रहा है।
इसके अलावा मैंने फ़िल्म “पीके” में आमिर खान के संवादो का भोजपुरीकरण किया और उन्हें उसे बोलने के लिए प्रशिक्षित भी किया । एक और फ़िल्म मिर्ज़ा जूलियट भी लिखा।

रंगमंच और टेलीविजन विधा दोनों अलग अलग माध्यम हैं इनकी तुलना नहीं की जा सकती है किंतु एक कलाकार के तौर पे देखा जाय तो रंगमंच से कलाकार और दर्शकों का सीधा सम्बन्ध स्थापित होता है और कलाकर को उसके काम का तुरंत रिस्पांस मिल जाता है, वही टेलीविजन या फ़िल्म के निर्माण की एक लम्बी प्रक्रिया है किंतु इसके माधम से कलाकार एक बहुत बड़े दर्शक समूह के पास पहुँचता है। इसीलिए आज थिएटर के लोग भी फ़िल्मों या टेलीविजन की तरफ़ भाग रहे हैं । क्योंकि आर्थिक वजहों के अलावा हर कलाकर चाहता है कि उसका काम ज़्यादा से ज़्यादा लोग देखें । फिर भी दोनों विधाओं का अपना महत्व है और दोनों की तुलना नहीं की जानी चाहिए बल्कि हमें दोनों का सम्मान करना चाहिए।

आज के परिवेश में ज़्यादातर धारावाहिक समसामयिक बन रहे हैं । बहुत से धारावाहिक हैं जो सामाजिक मुद्दों को उठा रहे हैं । ये एक अच्छी बात है वही बहुत से धारावाहिक सिर्फ़ मनोरंजन के उद्देश्य से बनते हैं लेकिन मुझे व्यक्तिगत स्तर पर इस बात की ख़ुशी होती है कि एक तरफ़ भारतीय सिनेमा जहां पुरुष प्रधान था, वही टेलीविजन नारी प्रधान कथानकों के बल पर चलता है और सच कहें तो स्त्रियों के बारे में हमारे देस में कभी इतनी बातें नहीं हुई होगी जितनी टेलीविजन ने की है, और एक तरह से ये एक बहुत ही अच्छी बात है।

क्योंकि सदियों से हमारा समाज स्त्री मूलक विषयों पर कभी बहुत बात नहीं करता था जब तक कि स्त्री पुरुष के अहम को चोट पहुचाने का कारण नहीं बनती थी, और कारण बनने पर वही पुरुष समाज युद्ध भी लड़ने पर आमादा हो जाता था लेकिन सामान्य परिस्थितियों में स्त्री और उसकी समस्या दोनों को पुरुष समाज परदे में रखना पसंद करता था। यहाँ तक कि स्त्रियों को अपनी तकलीफ़ें कहने की भी कई बार आज़ादी नहीं मिल पाती थी। लेकिन टेलीविजन आज इन स्त्रियों की बात करता है उनके दुःख, उनकी ख़ुशी, उनके स्वप्न, उनकी अभिलाषा और उनके संघर्ष की बातें । एक तरह से टेलीविजन स्त्री भावनाओं का आज की तारीख़ में प्रवक्ता की भूमिका निभा रहा है।

रंगमंच से जो कलाकर फ़िल्मों या टेलीविजन में आ रहे हैं, उनसे मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूँगा कि वो ख़ूब अध्ययन करके आए और अपने आपको इतना सक्षम बना के आए कि बात का मर्म उन्हें आसानी से समझ में आ जाए क्योंकि बिना मर्म को समझे अभिनय ही नहीं बल्कि कला क्षेत्र का कोई भी कार्य करना मुश्किल है वही मर्म समझने वाले व्यक्ति के लिए अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन करना आसान हो जाता है । सच्ची बात तो ये है कि टेलीविजन या फ़िल्म इंडस्ट्री बाज़ार द्वारा नियंत्रित क्षेत्र है यहाँ कला का व्यवसाय होता है इस लिए कलाकार जितनी तैयारी के साथ आएगा बाज़ार उसका उतना ही ज़्यादा सम्मान करेगा ।
ऋतंधरा मिश्रा

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