हरिकांत त्रिपाठी IAS
प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के विमान की दुर्घटना…!!!
किसी को याद भी नहीं होगा कि जिस विमान में तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई जी बैठे थे, वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, पांच पायलटों की मृत्यु भी हो गई थी लेकिन मोरारजी भाई को कुछ खरोचें ही आई थीं। उस विमान दुर्घटना को लेकर कोई हो हल्ला भी नहीं मचा था, जांच भी नहीं हुई थी। यह घटना 4 नवंबर 1977 की है।
भारत में पहली बार 1977 में कांग्रेस पार्टी से इतर जनता पार्टी की सरकार बनी और प्रख्यात गांधीवादी नेता मोरारजी देसाई इस सरकार के प्रधानमंत्री बने। मोरारजी देसाई जी निहायत ही सादगी पसंद और गांधीवादी नेता थे पर बेहद ज़िद्दी और एक सीमा से बाहर तक अव्यवहारिक थे। उन्होंने अपनी सादगी के चलते विदेश भ्रमण में भी पहले से चली आ रही परम्परा, जिसमें विशेष विमान और साथ में जी हुजूरी करने वाले पत्रकारों को साथ मुफ़्त में ले जाकर विदेश यात्रा कराना, को तोड़ दिया। उनकी इस हरक़त से बड़े बड़े पत्रकार बहुत नाराज़ हुए और उन्होंने मोरारजी भाई की आलोचना करने का कोई भी मौका ज़ाया नहीं होने दिया। 81 वर्षीय मोरारजी देसाई से जब एक विदेशी पत्रकार ने उनके उत्तम स्वास्थ्य और फिटनेस का राज़ पूछा तो मोरारजी देसाई ने अन्य कई कारणों के अलावा स्वमूत्र पान करना भी स्वीकार किया और उसकी कई खूबियां भी बताईं थीं। इसके लिए मोरारजी देसाई का बहुत मज़ाक उड़ाया गया और लोग मज़ाक में स्वमूत्र को “देसाई कोला” कहने लगे थे।
आजकल एअर इंडिया के विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण विमान दुर्घटनाएं चर्चाओं में हैं। शायद किसी को स्मरण भी नहीं होगा कि एक बार प्रधानमंत्री के रूप में विमान से यात्रा करते समय उनका भी विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। उस जमाने में इसकी लेकर कोई हो हल्ला भी नहीं मचा था। मुझे याद आता है, जब प्रधानमंत्री बनने के बाद मोरारजी देसाई ने पहली बार पूर्वोत्तर की एक सप्ताह की यात्रा की योजना बनाई तो भारतीय वायुसेना के बड़े विमान से यात्रा के बजाय एक छोटा सा विमान पुष्पक रथ पर ही जाने की ज़िद की। उनका मकसद था कि इस विमान से जाने पर ईंधन कम लगेगा और अपव्यय से बचा जा सकेगा। वायु सेना के अधिकारियों ने उन्हें बताया कि पुष्पक रथ (रूस निर्मित टुपोलोव टी यू 124) में दिल्ली से जोरहाट तक की यात्रा के लिए ईंधन भी बड़ी मुश्किल से पर्याप्त होगा। पर गांधीवादी मोरारजी भाई उनसे सहमत नहीं हुए। अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री पी के थुंगन ने भी दोपहर बाद अक्सर हो जाने वाले ख़राब मौसम के कारण प्रधानमंत्री से शाम को विमान यात्रा न करने की सलाह दी. पर ज़िद्दी मोरारजी देसाई ने एक न सुनी।
4 नवम्बर 1977 को दिल्ली से पुष्पक रथ पर सवार होकर मोरारजी भाई और 16 अन्य सहयात्रीगण जिनमें अरुणाचल के मुख्यमंत्री पी के थुंगन, मोरारजी के सुपुत्र कांतिलाल देसाई, आई बी के ज्वाइंट डायरेक्टर जॉन लोबो, पत्रकार एन बी आर स्वामी, सामाजिक कार्यकर्ता नारायण देसाई आदि चल पड़े। भारतीय वायुसेना के पांच अधिकारी चालक दल में शामिल थे। सायं 6 बजे चलकर यह विमान 7-30 बजे डेढ़ घंटे में जोरहाट पहुंचा तब तक वहां सूर्यास्त हुए लगभग चार घंटे बीत चुके थे। मौसम ख़राब हो चुका था और जोरहाट एअरपोर्ट पर नाइट लैंडिंग की आधुनिक व्यवस्था नहीं थी। रनवे पर किसी तरह रोशनी आदि की व्यवस्था की गई थी जो ख़राब मौसम के चलते अपर्याप्त साबित हो रही थी। लैंडिंग की कोशिश के अतिरिक्त पीछे लौटने का कोई विकल्प नहीं था क्योंकि विमान में ईंधन बहुत कम बचा था।
पायलट ने पहली बार लैंडिंग की कोशिश की तो रनवे पीछे छूट गया। दूसरी बार की कोशिश में रोशनी और ख़राब हो गई और जहाज़ ऊपर की ओर उड़ चला। धीरे धीरे रोशनी एकदम अदृश्य हो गई। तभी पायलट को लगा कि विमान के ठीक सामने कीकर का ऊंचा पेड़ आ चुका है। वीआईपी सुरक्षा को प्राथमिकता देने के अपने सर्वोच्च कर्तव्य को ध्यान में रखते हुए उसने विमान की बॉडी के बजाय विमान की नोज़ को कीकर से टकराने दिया और धड़ाम की आवाज़ के साथ विमान दो टुकड़ों में टूट गया। कॉकपिट अलग पेड़ों के झुरमुट में जा गिरा और विमान का शेष भाग खेतों में लगाये गए बांस के पेड़ों के ऊपर से फिसलता हुआ कीचड़ भरे धान के खेत में जाकर गिर गया।
कर्तव्यनिष्ठ वायुसेना के चालक दल के पांचों सदस्यों की तत्काल मृत्यु हो गई। विमान के पिछले हिस्से के सभी यात्री चोटों के बावजूद सुरक्षित बच गए। प्रधानमंत्री देसाई को मामूली चोटें आईं। कांतिलाल देसाई का पांव कुचल गया और नारायण देसाई की कई हड्डियां टूट गईं और वो खड़े नहीं हो पा रहे थे। जॉन लोबो और उनके निजी सुरक्षा अधिकारी ने टार्च की रोशनी में कीचड़ में लथपथ मोरारजी देसाई को मलबे से खींच कर बाहर निकाला और दूर खेत में ले जाकर बैठा दिया। जब सब लोग मलबे से दूर हो गए तो जहाज़ में आग लग गई। लेकिन इस दौरान मोरारजी देसाई बिल्कुल संयत बने रहे और उन्होंने अपना आपा नहीं खोया। उनकी देखभाल के लिए जब लोग लग गए तो मोरारजी भाई ने उन लोगों से अन्य घायलों को बचाने में मदद करने के लिए जोर दिया और अपने की बिल्कुल ठीक बताया। इस घटना के बारे में उस समय के एक पत्रकार ने अपनी पुस्तक में जिक्र भी किया है और मोरारजी भाई के साहस और धैर्य की प्रशंसा भी की है।
तभी टेकेलागांव के दो नौजवान ललित चन्द्र बरुआ और इंद्रेश्वर बरुआ खेतों में पहुंच गए। जब उन्हें बताया गया कि कीचड़ में लथपथ घायल बुजुर्ग भारत के प्रधानमंत्री मंत्री मोरारजी देसाई हैं तो पहले तो उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ पर बाद में वे उन्हें उठाकर गांव में अपने कच्चे घर में ले आए और उनकी यथासंभव आवभगत की। अब समस्या थी कि जोरहाट के एअरफोर्स हॉस्पिटल जाकर दुर्घटना की खबर करने और घायलों को एम्बुलेंस से हॉस्पिटल पहुंचाने की। उस गांव में किसी के पास सायकिल नहीं थी सो दोनों बरुआ भाइयों ने दौड़ते हुए चार पांच किलोमीटर दूर जोरहाट पहुंच कर वायु दुर्घटना की सूचना पहुंचाई फलस्वरूप सभी को जोरहाट के एअरफोर्स हॉस्पिटल पहुंचाया गया।
एअरफोर्स हॉस्पिटल ही उस समय एकमात्र स्वास्थ्य सुविधा का केंद्र था। चिकित्सकों की गहन देखरेख में सभी लोग ठीक हो गए पर वायुसेना के पांच कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी इस दुर्घटना की भेंट चढ़ गए।
मोरारजी देसाई ने उदारता का परिचय देते हुए बरुआ बन्धुओं को उनकी आवभगत के लिए प्रशंसा पत्र दिया और साथ में पुरस्कारस्वरूप एक एक सायकिल भी दी। इंद्रेश्वर की सायकिल का तो पता नहीं पर ललित की सायकिल जोरहाट म्यूजियम में अभी भी रखी है। एअरफोर्स हॉस्पिटल को भी प्रधानमंत्री का आभार व्यक्त करता पत्र और पांच हजार रुपए की धनराशि प्राप्त हुई।
टेकेलागांव का नाम परिवर्तन करके देसाई नगर कर दिया गया। गांव वालों ने सड़क की मांग की थी जो तमाम सरकारों के आते जाते रहने के बावजूद कभी पूरी नहीं हुई, जब अटल बिहारी बाजपेई जी प्रधानमंत्री बने तो उन्हें यह घटना बताई गई और फलत: देसाई नगर सड़क से जुड़ सका। मोरारजी देसाई जी की स्वर्गवासी आत्मा को ज़रूर इससे सन्तुष्टि मिली होगी।