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“डॉ. पुरु दधीच जैसा कोई और नहीं “: बिशन कुमार

डॉ. पुरु दधीच की कत्थक और शास्त्रीय आराधना इतनी लम्बी और समृद्ध है कि उसे महज एक सेमिनार में समेट लेना सम्भव नहीं है. एक लम्बे शोध का विषय है डॉ पुरु दधीच की नृत्य-सहित्य और शास्त्र साधना की यात्रा.

संस्मरण: लेखक बिशन कुमार वरिष्ठ पत्रकार हैं

अभी कुछ महीने पहले इंदौर में बहुत बड़ा सम्मान हुआ कथक के महागुरु के लिए. पद्मश्री डॉ शोवना नारायन की अध्यक्षता में देश भर के आये कथक विद्वानों, जैसे नलिनी- कमलनी, डॉ पूर्णिमा पांडेय, डॉ संध्या पुनेचा, श्रीमती मंजरी मिश्रा ( लेखिका ) और पंडित विजय शंकर मिश्रा ने डॉ पुरु की कथक यात्रा पर अपने विचार व्यक्त किये और रिद्धि मिश्रा और सुनील संकुरा ने डॉ पुरु की रचनाओं पर खूबसूरत नृत्य की प्रस्तुति की.


मुझे भी पुरु दधीच के अस्सीवें जन्मदिवस पर उनका अभिनन्दन करने का अवसर दिया गया.


बहुत अज़ीज़ दोस्त हैं मेरे पुरु भाई. गिनती भूल गया हूँ, कितने बरसों से इन्हे और विभा भाभी को जानता हूँ. ग़लत नहीं हूँ तो शायद 1983 से- यानि 36 सालों से. उनकी कत्थक और शास्त्रीय आराधना इतनी लम्बी और समृद्ध है कि उसे महज एक सेमिनार में समेट लेना सम्भव नहीं है. एक लम्बे शोध का विषय है डॉ पुरु दधीच की नृत्य-सहित्य और शास्त्र साधना की यात्रा.

मैं कुछ हद तक साक्षी रहा हूँ उनकी कठिन तपस्या का. उन शुरू के सालों मेँ मेरी मुलाकात पुरु भाई से लखनऊ की एक पॉश दिलकुशा कॉलोनी में हुई थी. मुझे भी इसी कॉलोनी में रहने को एक फ्लैट मिल गया था और मैं अपनी पत्नी और साल भर की बेटी बया के साथ वहां रहने आ गया था. मैं एक यंग -rookie journalist था और पुरु भाई एक स्थापित गुरु.

पहली मुलाकात में ही पुरु भाई, विभा भाभी अपने से हो गये थे. हमारी बेटी बया उनके बड़े बेटे प्रवाल के लगभग बराबर की थी. धीरे-धीरे मुलाकातें बढ़ने लगीं और दोस्ती मजबूत होती गयी. एक रिश्ता जो इस महान कलाकार और एक बेहतरीन इंसान के साथ बना बरसों बरस पहले, वह एक छोटे पौधे से बढ़ कर आज एक मजबूत दरख़्त हो गया है.


उनके घर पर मैंने और मेरी पत्नी शालिनी ने बहुत शामें गुजारी हैं लखनऊ में. अक्सर बैठक जमती थी. पुरु भाई अपनी भाव मुद्राएं दिखाते, कभी नृत्य के कुछ टुकड़े और कभी कविता पाठ होता और कभी सिर्फ मजेदार गपशप.

पर इन सब महफ़िलों, मस्ती और ठहाकों के बीच मैंने एक कलाकार की अनकही तकलीफ महसूस की थी. वह बहुत कुछ करना चाहते थे. अपने छात्रों को वह सब देना चाहते थे जो उन बच्चों के बेहतरीन कलाकार बनने में मदद करे. पर अक्सर सरकारी तंत्र उनके हाँथ बाँध देता था. इतने प्रतिभा शाली कलाकार के रास्ते में सरकारी तंत्र ने बहुत रोडे अटकाये थे.

लखनऊ के भातखण्डे संगीत महाविद्यालय में जिन्होंने भी डॉ दधीच को अपने कर्त्तव्य के बीच समर्पित देखा है, वह मुझसे सहमत होंगे कि भातखण्डे संगीत महाविद्यालय का यह सौभाग्य था कि पुरु दधीच जैसा गुरु उनके पास था. पर दुःख की बात यह है कि सरकारी बाबुओं को प्रतिभा का सम्मान करना नहीं आता.

सरकारी गलियारों में पनपती साजिशों के चलते mediocity प्रतिभा से बाजी मार ले जाती है. पुरु भाई को अपने छात्र – छात्राओं का भरपूर सम्मान मिला पर उत्तर प्रदेश सरकार उनको जो आदर -सम्मान मिलना चाहिए था, वह दे नहीं पायी. यह नुक्सान प्रदेश का था , पुरु दधीच का नहीं. 

 कवह तो निरंतर अपनी साधना में लगे रहे. देश भर में उनकी ख्याति बढ़ती रही. मुझे लगता है कि पुरु भाई को पंख फ़ैलाने के लिए खुला आसमान चाहिए था, इसलिए यह बहुत अच्छा किया उन्होंने कि सरकारी तंत्र से मुक्ति लेकर 1988 इंदौर में अपनी संस्था ‘नटवरी-कत्थक नृत्य अकादमी’ की स्थापना की. अब वह समय था जब पुरु दधीच देश भर में अपनी कला का प्रदर्शन के कर सके.

शायद पुरु भाई को भी याद नहीं होगा कि कितने शहरों में कितनी बार उन्होंने एकल और युगल प्रदर्शन किया होगा. विभा भाभी ने जितनी शिद्दत से पुरु भाई का साथ दिया, उनके पूरे संघर्ष में, वह शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता. इन दोनों को एक साथ मंच देखना शिव-पार्वती को देखने के दिव्य सौभाग्य जैसा है.

मैने देखा है कि पुरु भाई ने इन तमाम मुश्किलों के बीच कत्थक का ज्ञान देना जारी रखा. न रुके, न निराश हुए और न ही हताश.

इन सब व्यस्तताओं के बीच उनका लेखन जारी रहा और उन्होंने कथक पर दो दर्जन से ज्यादा ग्रन्थ लिख डाले. कैसे कर लेते यह इतना सब पुरु भाई ? इसका राज हमे भी बताइये! आपका दस फीसदी भी मैं कर पाऊं तो शायद मेरे पैर जमीन पर नहीं पड़ेंगे. मैं एक पत्रकार के तौर पर देश के कोने-कोने में गया हूँ और कितने ही कलाकारों से मिला हूँ , पर इतना अनुशासन और लगन मैंने बहुत कम लोगों में देखी है.

मुझे लगता है कि डॉ पुरु दधीच जैसे शख्स से ज्यादा नहीं मिलना चाहिए. क्योकि हर बार उनसे मिलने पर यह अहसास होता है हम कितने बौने हैं उनके सामने.
देश के इस गौरव का सम्मान पद्म भूषण या पद्म विभूषण से किया जाना चाहिए. क्योंकि कथक पर जितना उन्होंने लिखा है, शोध किया है और जितनी शिष्यों को पांच से अधिक दशकों से सिखाया है और तराशा है, उतना किसी ने नहीं किया है. एक भी ऐसा कत्थक गुरु इस देश में नहीं है जिसकी इतनी पुस्तके विदेशी विश्वविद्यालयों और विद्यालयों में पढाई जा रही हों.

डॉ पुरु का सम्मान पद्म पुरस्कार से बहुत पहले हो जाना चाहिए था, पर अब भी देर नहीं हुई है.

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