तीजन को लोक निर्मला सम्मान
डॉ दिलीप अग्निहोत्री
देश की प्रतिष्ठित गायिका मालिनी अवस्थी लोक संगीत को पुनः मुख्य धारा में पहुंचाने का अभियान चला रही है। सोनचिरैया संस्था के माध्यम से यह कार्य प्रभावी ढंग से आगे बढ़ रहा है। वह आपने सभी कार्यक्रमों के माध्यम से भी लोक संगीत को लोकप्रिय बनाने की प्रेरणा देती है। खासतौर पर नई पीढ़ी के लोगों को इससे जोड़ने पर बल देती है। उन्हें यह बात परेशान करती है कि युवा पीढ़ी स्थानीय पहचान वाले भजन,सोहर,विवाह गीत,बन्नबन्नी बिरहा,चैता कजरी आदि को भूलते जा रहे है।
सोन चिरैया के से इस प्रकार के आकर्षक समारोह आयोजित किये जाते है। मालिनी अवस्थी ने बताया कि सोन चिरैया लोक संस्कृति के संवर्धन में उल्लेखनीय योगदान दे रही है। पन्द्रह मार्च को लखनऊ में सोनचिरैया द्वारा सम्मान व लोक संस्कृति समारोह का आयोजन किया गया।
सोन चिरैया का पहला लोक निर्मला सम्मान पद्मविभूषण तीजनबाई को प्रदान किया गया।
मालिनी अवस्थी ने कहा कि राष्ट्रीय स्तर पर निजी संस्था की ओर से लोक कला के क्षेत्र में दिया जाने वाला यह सबसे बड़ा सम्मान है। इसमें सम्मान के स्वरूप एक लाख रुपए प्रदान किये गए। इस सम्मान समारोह में तीजनबाई का पंडवानी गायन मुख्य आकर्षण रहा। इसके साथ ही राजस्थान का कालबेलिया नृत्य और आसाम के बीहू नृत्य के साथ साथ आल्हा गायन भी हुआ। अब प्रतिवर्ष नियमित रूप से लोक निर्मला सम्मान दिया जाएगा।
तीजन बाई का जीवन वृत्त भी बताया गया। इसका उद्देश्य भी संगीत के विद्यर्थियो को प्रेरणा देना था। अनेक परेशानियों,अभाव के बाद भी तीजन बाई ने न केवल पंडवी लोक कला को विश्व स्तर पर पहचान दिलाई , बल्कि स्वयं भी लोक कला में शानदार मुकाम हासिल किया।
उनका जन्म छत्तीसगढ़ भिलाई के गाँव गनियारी में हुआ था। वह पंडवानी लोक गीत नाट्य की पहली महिला कलाकार हैं। उन्हें साल उन्नीस सौ अट्ठासी में पद्म श्री,दो हजार तीन में पद्म भूषण और गत वर्ष पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। उन्नीस सौ पंचानबे में उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। अपने नाना ब्रजलाल से बचपन में सुनी महाभारत की कहानियों से वह इतना अधिक प्रेरित हुई कि महाभारत की कथा, गायकी अंदाज में कहने का निर्णय उन्होंने कर लिया। तेरह वर्ष की उम्र में पहली प्रस्तुति दी थी। उस समय में महिलाएं केवल बैठकर ही गायन करती थीं। जिसे वेदमती शैली कहा जाता है।
तीजनबाई ने पहली बार पुरुषों की तरह खड़े गायन किया। इससे उनको और पांडवी गायन को अपार लोकप्रियता व पहचान मिली। राजस्थान का पारपंरिक कालबेलिया नृत्य गौतम परमार ने पेश किया। इस संबन्ध में भी मालिनी अवस्थी ने रोचक जानकारी दी। उंन्होने बताया कि सपेरा,सपेला जोगी या जागी कहे जाने वाली इस कालबेलिया जाति की उत्पत्ति गुरु गोरखनाथ के बारहवीं सदी के शिष्य कंलिप्र से मानी जाती है। वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के पारित होने के बाद से कालबेलिया जनजाति साँप पकड़ने के अपने परंपरागत पेशे के बजाए खेती, मजदूरी, नृत्य कर जीविका व्यतीत कर रहे हैं। आसाम के बीहू नृत्य ने भी दर्शकों को खूब लुभाया। मालिनी अवस्थी ने बताया किआसाम के कृषक अपनी मौसम की पहली फसल अपने आराध्य को नाचते गाते अर्पित करते हैं। इस नृत्य के माध्यम से उसी का चित्रण किया जाता है। भारत कृषि प्रधान देश है। फसल बढ़िया होने पर विविध प्रकार से उत्साह व खुशी की अभिव्यक्ति की जाती है।
समारोह का समापन शीलू सिंह राजपूत के आल्हा गायन से हुआ। मालिनी अवस्थी का यह प्रयास रहता है कि लोक कलाओं के सम्बद्ध में आम लोगों को भी जानकारी होनी चाहिए। इसलिए वह अपने सभी कार्यक्रमों की भूमिका का उल्लेख करती है। संगीत की भाषा शैली में विविधता होती है। लेकिन इनका सांस्कृतिक धरातल एक जैसा होता है। यही भारत की विविधता में एकता का सूत्र और सन्देश दोनों है।
मालिनी अवस्थी ने बताया कि आल्हा बुंदेलखण्ड के वीर सेनापति थे। उनके छोटे भाई का नाम ऊदल था। पृथ्वीराज चौहान से अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए ऊदल वीरगति को प्राप्त हुए थे। ऐसे में आल्हा पृथ्वीराज चौहान की सेना पर मौत बनकर टूट पड़े। आल्हा के गुरु गोरखनाथ के कहने पर आल्हा ने पृथ्वीराज चौहान को जीवनदान दिया था। यह गायन शैली भी बहुत लोकप्रिय है।