नए डीजीपी के लिए भेजे गए नामों पर आज लोक सेवा आयोग करेगा विचार
ईमानदार, कर्तव्यनिष्ठ और वरिष्ठतम आई पी एस अफसर हितेश अवस्थी के नाम पर लग सकती है मोहर
स्नेह मधुर
लखनऊ।
तमाम कयासों और पूर्व में अपनाई जा रहीं परम्पराओं को धता बताते हुए उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक डॉ ओ पी सिंह ने अंततः सेवानिवृत्त होने का मन बना लिया है। उन्हें 31 जनवरी को सेवा निवृत्त होना था लेकिन पिछले काफी वक्त से उनके बारे में अटकलें लगती जा रहीं थीं कि मुख्यमंत्री के सबसे करीबी और विश्वासपात्र होने के कारण कम से कम तीन महीने का सेवा विस्तार उन्हें मिलना तय है। लेकिन ओपी सिंह ने मुख्यमंत्री से अपनी नजदीकी का लाभ उठाकर सत्ता लोलुप होने के आरोपों से खुद को दूर ही रखने का फैसला कर एक नई इबारत लिखने की कोशिश की है। उनका मानना है कि इस बड़े पद का सम्मान रखते हुए गौरवशाली तरीके से सेवा निवृत्त हो जाना ही बेहतर है। इससे उनके विभाग में और समाज में यह संदेश जाएगा कि अपनी अगली पीढ़ी के रास्ते में बाधा नहीं बनना चाहिए।
ओपी सिंह का यह कदम उनके चाहने वालों के लिए अवश्य कष्टकर होगा क्योंकि पूर्व में यह परंपरा देखी गई है कि सेवा विस्तार के लिए इस पद पर आसीन लोग क्या-क्या तिकड़में करते रहे हैं और कितने दरवाजों पर माथा टेक कर मात्र तीन महीने की और नौकरी कर लेने के लालच में एड़ी चोटी का जोर लगाते रहे हैं। ओपी सिंह के लिए यह सब कुछ सहज रूप से उपलब्ध था, लेकिन उन्होंने लगभग परसी हुई थाली को ठुकरा दिया। सूत्रों के अनुसार मुख्यमंत्री योगी ने ओपी सिंह के इस त्याग की अफसरों की एक बैठक में भूरि-भूरि प्रशंसा भी की है।
हालांकि ओपी सिंह तीन महीने का सेवा विस्तार लेकर एक न टूटने वाला रिकॉर्ड भी आसानी से बना सकते थे। अभी 23 जनवरी को उन्होंने चार दशक बाद लगातार दो वर्षों तक डीजीपी रहते हुए सेवा निवृत्त होने का रिकॉर्ड अपने नाम किया है। वह चाहते तो तीन महीने और इस पद पर रहकर इस रिकॉर्ड को आने वाली पीढ़ी के लिए लगभग असम्भव लक्ष्य के रूप में स्थापित कर सकते थे। लेकिन उन्होंने वह रास्ता चुना जो आने वाली पीढ़ी के लिए आदर्श के रूप में जाना जाए।
ओपी सिंह का कार्यकाल विवादों से नहीं बल्कि चुनौतियों से भरा रहा है जिसे उन्होंने अपने कौशल से उपलब्धियों में परिवर्तित कर दिया। अन्य उपलब्धियों जैसे कानून-व्यवस्था को दुरुस्त करने में टीम वर्क की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है लेकिन पुलिस कमिश्नरेट व्यस्था लाने में उनका जो व्यक्तिगत योगदान है, वह शताब्दियों तक याद किया जाएगा। उनके इस योगदान की सराहना तो उनके दस बैच पुराने अधिकारी भी करते है कि यह मुश्किल नहीं, असम्भव कार्य था। क्योंकि पूरी आईं ए एस लाबी इसके खिलाफ थी। ओपी सिंह इस व्यवस्था को एक तरह से विरोधियों के जबड़े के भीतर से खींच कर ले आने में सफल रहे।
ओपी सिंह ने 23 जनवरी 2018 को डीजीपी के रूप में अपना कार्यभार संभाला था, यानी अपनी नियुक्ति के 23 दिन बाद। उस समय वह सी आईं एस एफ के निदेशक थे और उन्हें उस पद से मुक्त नहीं किया जा रहा था। उस समय उनको लेकर तमाम चर्चाएं चल रहीं थीं कि वह नहीं आने पाएंगे। लेकिन उन्होंने तमाम बाधाओं पर विजय प्राप्त की और पूरे दो वर्ष तक इस पद पर बने रहे। हालांकि यह पद हमेशा से कांटो भरा रहा है और इस पद पर नियुक्त पद से ही विभाग की छवि बनती रही है। ओपी सिंह पूरे कार्यकाल तक अपनी बेदाग छवि को बनाए रखने में सफल रहे। भले ही निचले स्तर पर वह अपने अधीनस्थों को पाक-साफ बना पाने में असफल रहे लेकिन खुद को मुख्यमंत्री योगी की तरह ही वह निष्कलंक बनाने में सफल रहे। नोएडा के वैभव कृष्ण और पुलिस विभाग के भीष्म पितामह प्रकाश सिंह के बयानों से जरूर कुछ छींटे उन पर पड़े, लेकिन अगर इन आरोपों को गहराई से देखा जाए तो वे ओपी सिंह की ईमानदार छवि को नुकसान नहीं पहुंचा पाए। हां, यह बात ज़रूर है कि बहुत से लोग उनसे नाराज भी होगें क्योंकि यह सच है कि ओपी सिंह ने काफी लोगों को उपकृत नहीं किया, जैसे कि हर कार्यकाल में डीजीपी करते रहे हैं।
इसकी वजह एक तो यह थी कि ओपी सिंह मेरिट पर ही काम करने में विश्वास करते रहे हैं। दूसरी यह कि उन्हें इस बात का भी नहीं था कि कोई उन्हें नुकसान पहुंचा सकता है। राजनैतिक रूप से वह काफी सशक्त थे और मुख्यमंत्री का विश्वास उन्हें हासिल था। हालांकि पूर्व में भी पुलिस महानिदेशकों को तत्कालीन मुख्यमंत्रियों का वरदहस्त मिलता रहा था, लेकिन उन अफसरों ने उस अमोघ अस्त्र का उपयोग व्यक्तिगत महत्वाकाक्षाओंं की पूर्ति में ज्यादा किया, ओपी सिंह ने ऐसा नहीं किया और व्यक्तिगत लाभ को ठुकरा दिया। ओपी सिंह के इस आचरण ने उन्हें भीड़ से अलग कर दिया।