कट्टरता की कोख से उपजा एक ख़तरनाक देश पाकिस्तान
विभूति नारायण राय IPS
इन दिनो पाकिस्तान मे हंगामा बरपा है । अमेरिकन राष्ट्रपति जो बाईडन ने डेमोक्रेटिक पार्टी की चुनावी तैयारियों से जुड़े समूह के सामने बोलते हुये पाकिस्तान को दुनिया के सबसे ख़तरनाक मुल्कों मे से एक करार दे दिया । यह एक ऐसे समय हुआ जब पाकिस्तान के विदेश मंत्री बिलावल भुट्टो ज़रदारी और पीडीएम गठबंधन की सरकार अपनी विदेश नीति के सफलता की डींगे हांकते थक नही रहे थे l दशकों बाद हुआ था कि किसी अमेरिकी राजदूत ने काश्मीर के पाकिस्तानी हिस्से मे जाकर उसे आज़ाद जम्मू और काश्मीर कहा हो और नाटो के एक सदस्य जर्मनी के विदेश मंत्री ने काश्मीर समस्या को हल करने के लिये सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव का ज़िक्र किया हो । वर्षों बाद ही यह भी हुआ कि किसी पाकिस्तानी जनरल को अमेरिका के सुरक्षा तंत्र मे इतना महत्व मिला । हालिया यात्रा के दौरान जनरल बाज़वा को अमेरिकन रक्षा सचिव ने तो समय दिया ही , रक्षा मुख्यालय पेंटगॉन मे भी उनको अप्रत्याशित प्रोटोकोल दिया गया ।
चंद महीनो के अंदर अमेरिकी रुख मे इतना बड़ा बदलाव कैसे हो गया? अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्धों के जो गंभीर अध्येता अमेरिकी नीतियों पर नज़र रखते हैं वे जानते हैं कि ये किसी फ़ौरी उत्तेजना की निर्मिति नही होतीं , उन्हे अमेरिकी हितों को ध्यान मे रखते हुये बहुत से विचार समूहों ( थिंक टैंक्स ) से प्राप्त इनपुट के आधार पर विकसित किया जाता है , इस लिये न तो पाकिस्तानी उल्लास के पक्ष मे कोई तर्क बनता है और न ही जो बाईडन के बयान से कोई सरलीकृत निष्कर्ष निकाले जाने चाहिये । अमेरिकन राष्ट्रपति ने यूँ ही पाकिस्तान को सबसे ख़तरनाक मुल्कों की श्रेणी मे नही रखा है । सात घोषित और दो अघोषित परमाणु हथियार संपन्न देशों मे पाकिस्तान अकेला है जहां से अलग अलग मौक़ों पर परमाणु तकनीक अनधिकृत स्रोतों को बेची गयी है । तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ को अमेरिकन अधिकारियों द्वारा दस्तावेज़ी सबूत दिखाने के बाद पाकिस्तानी परमाणु कार्यक्रम के जनक अब्दुल क़दीर को आजीवन अपने घर मे नज़रबंद कर दिया गया था । आज़ यह खुले रहस्य की तरह है कि उत्तरी कोरिया और ईरान के परमाणु कार्यक्रम विकास के जिन चरणों मे हैं, उन्हे वहाँ तक पहुँचाने मे पाकिस्तान के सैन्य और असैन्य अधिकारियों को मिली रिश्वतों का भी बड़ा हाथ है । ख़ुद प्रधानमंत्री रही बेनज़ीर भुट्टो ने भी एक इंटरव्यू मे इसे माना था कि उनके सरकारी जहाज का भी इस काम मे इस्तेमाल हुआ था ।
पूर्व गृह मंत्री शेख़ रशीद जैसे पाकिस्तानी राजनीतिज्ञों ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया है कि उनके पास टैक्टिकल बम हैं । टैक्टिकल बम वे छोटे बम होते है जिन्हें बिना मँहगे ताम झाम के दो तीन पैदल सैनिक चला सकते हैं । सही अर्थों मे तो एक ही सैनिक काफ़ी है जो अपने कंधे पर रखे किसी लाँचर से यह बम फेंक सकता है । इसे उपयोग मे लाने के लिये कमांड और कंट्रोल का वर्तमान तंत्र काफ़ी हद तक अपर्याप्त सिद्ध होगा । छोटा बम एक सीमित इलाक़े मे कुछ लाख लोगों को तो मारेगा ही एक बड़े परमाणु युद्ध की संभावना भी पैदा करेगा ।
अमेरिका के लिये दूसरा और ज़्यादा बड़ा दु:स्वप्न पाकिस्तानी परमाणु ज़ख़ीरे का किसी आतंकी संघटन के हाथ पड़ जाने की संभावना है । एक कमज़ोर नीव पर खड़े पाकिस्तानी राज्य मे इसका ख़तरा हमेशा बरकरार रहता है । कई बार ऐसा हुआ कि देश के किसी विशाल भू भाग पर इस्लामी अतिवादियों का क़ब्ज़ा हो गया और एक स्थिति तो ऐसी भी आयी जब वे इस्लामाबाद से सिर्फ़ साठ मील दूर रह गये थे । दुर्भाग्य से मुख्यधारा के लगभग हर राजनीतिक दल ने मौक़ा पड़ने पर सशस्त्र ज़ेहाद मे विश्वास रखने वाले संगठनों से हाथ मिलाया है । इस समय लोकप्रियता के शिखर पर बैठे इमरान तो एक जमाने मे कहे ही जाते थे तालिबान खान । फौज़ एक प्रोजेक्ट के तौर पर उन्हे सत्ता मे लायी थी और उसके हाथ खींच लेते ही वे तख़्त से उतार दिये गये । पर विपक्ष मे बैठे इमरान ज़्यादा ख़तरनाक हो गये हैं । अमेरिका मुख़ालिफ़ आख्यान तो पाकिस्तान मे हमेशा बिकता आया है , उन दिनो भी जब वह पूरी तरह से अमेरिकी मदद पर निर्भर था, सार्वजनिक विमर्श का टोन ऐसा ही होता था , पर इस बार तो इमरान ने इस नैरेटिव को फौज़ विरोधी भी बना दिया है । इन दिनो पाकिस्तानी सोशल मीडिया सेनाध्यक्ष जनरल बाज़वा और उनके समर्थक ख़ुफ़िया इदारों के अफ़सरों के ख़िलाफ़ ग़ुस्से से भरा हुआ है । सत्ताच्युत होने के बाद होने वाले सारे उपचुनावों को इकतरफ़ा मुक़ाबलों मे जीतकर इमरान ने साबित कर दिया है कि पाकिस्तान मे अमेरिका विरोधी के साथ ही फौज़ विरोधी बयानिया भी बिक सकता है और यह भी अमेरिका के लिये चिंता का एक कारण है । इसमे कोई शक नही कि पाक फौज़ भारत और अफगानिस्तान के अभियानों मे अतिवादी मुस्लिम संगठनों का इस्तेमाल करने के लिये उन्हे पालती पोसती रही है पर यह भी सच है कि जब भी किसी ज़िहादी संगठन ने राज्य सत्ता पर क़ब्ज़ा करने का प्रयास किया उसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध की मज़बूत दीवाल सेना ही बनी है और उसने इसकी क़ीमत भी अपने हज़ारों अफ़सरों और जवानों की कुर्बनियों के रूप मे चुकाई है । पाक और अमेरिकी सैन्य अधिकारियों के बीच सरकारी रिश्तों मे आने वाले उतार चढ़ाव के बावजूद स्वतंत्र सम्बंध बने रहे हैं ।
इस समय पाकिस्तान का लगभग चौथाई बाढ़ मे डूबा हुआ है और कोढ़ मे खाज़ की तरह उसकी अर्थ व्यवस्था इस क़दर चरमराई हुयी है कि उसके लिये इस मे ख़ुद को डूबने से बचा पाना ही मुश्किल होता जा रहा है । देश के भ्रष्ट राजनेता और नौकरशाही बाहर से आ रही राहत सामग्री भी लूटने मे गुरेज़ नही कर रहे हैं। प्रधानमंत्री शाहबाज़ शरीफ़ को विदेशी दानदाताओं के समक्ष आश्वासन देना पड़ा है कि वे सहायता के लिये प्राप्त सामग्री के इस्तेमाल का आडिट किसी तीसरे पक्ष से कराने के लिये तैयार हैं । अमेरिका अच्छी तरह से जानता है कि एक परमाणु हथियारों से संपन्न देश के दीवालिया हो जाने मे क्या ख़तरे छिपे हैं ? इसी लिये वह दुनिया को आगाह करने के बावजूद पाकिस्तान को पूरी तरह से अलग थलग छोड़ भी नही पा रहा ।
यह कहना अनुचित न होगा कि पाकिस्तान का वर्तमान संकट उसके जन्म से जुड़ी विसंगतियों की देन है । 1947 मे यह दुनिया का पहला धर्माधारित लोकतांत्रिक गण राज्य बना और यह बहुत अस्वाभाविक नही था कि पहले दिन से उसे उदारता, सहिष्णुता या समानता जैसे गुण नही मिले जो किसी लोकतंत्र के लिये जरूरी होते हैं । उनके बरक्स भारत को प्रारंभिक 17 वर्षों तक जवाहर लाल नेहरु का नेतृत्व मिला जिसने लोकतंत्र को मज़बूत किया । आधा समय फ़ौजी हुकूमतों के अधीन समय काटने वाले पाकिस्तान के हर शासक ने वैधता हासिल करने के लिये चरमपंथियों को प्रोत्साहित किया और आज का संकट उसी का नतीजा है ।
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