सेवक को ऐसा होना चाहिए कि सचर अचर जितने भी जीव प्राणी हैं उनको अपना स्वामी मानकर और अपने को उनका उत्तरदाई सेवक मानकर सेवा करे। हनुमान , जिस मनुष्य में ऐसी अटल बुद्धि हो वही वस्तुत: सेवक है।
“सेवा भाव”
सन् 1896-97 में पूरे भारत वर्ष में प्लेग महामारी का भयंकर प्रकोप था। मुख्यत: बंगाल में मृत्यु दर अत्यंत भयावह थी। लोग मरे हुए अपने प्रिय जनों की देहयष्टि छोड़ कर परिवार से दूर एकांत में भाग जाते थे। छूत की महामारी होने के कारण सरकारी कर्मचारी भी लाशों को नहीं उठाते थे। इन्हीं दिनों विवेकानंद जी का अपने गुरु परमहंस रामकृष्ण के यहां आना जाना हुआ था। किंतु गुरु की कृपा शक्ति उन्हें अभी नहीं प्राप्त हुई थी।
विवेकानंद जी ने परमहंस जी से पूछा कि इस महामारी के अवसर पर मैं जनसेवा का कार्य करना चाहता हूं, आपकी क्या आज्ञा है ?
परमहंस ने पूछा, कि किस भाव से ?
विवेकानंद जी ने कहा कि गुरू जी मैं दया भाव से सेवा करना चाहता हूं।
गुरू जी ने प्रत्युत्तर दिया कि दया करने का अधिकार केवल परमेश्वर में ही है। जीव दया करने का अधिकारी नहीं है। यदि तुम सेवा करना चाहते हो तो स्वामी- सेवक के भाव से सेवा कर सकते हो। विवेकानंद जी ने गुरू की आज्ञा मानी और उन्होंने बड़े अहोभाव से जनसामान्य को स्वामी मानकर अपने साथियों के साथ मिलकर उनकी सेवा की।
हनुमान जी ने सेवक की परिभाषा भगवान राम से पूछी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस में भगवान राम द्वारा प्रस्तुत तथ्य को अंकित किया,
“सो अनन्य जाकी मति असि न टरै हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर स्वामि रूप भगवंत ।।”
अर्थात् सेवक को ऐसा होना चाहिए कि सचर अचर जितने भी जीव प्राणी हैं उनको अपना स्वामी मानकर और अपने को उनका उत्तरदाई सेवक मानकर सेवा करे। हनुमान , जिस मनुष्य में ऐसी अटल बुद्धि हो वही वस्तुत: सेवक है।
इस प्रश्न को उद्धव जी ने भी भगवान श्रीकृष्ण से पूछा । उद्धव जी स्वयं परमहंस हैं। भगवान श्रीकृष्ण में जो ज्ञान विस्तार है उससे उद्धव में अणु बराबर भी कम नहीं है।
” न उद्धौ अणुऽपि मत् न्यूनम्….।
– भगवान श्रीकृष्ण
लेकिन उद्धव जी इसलिए भगवान श्रीकृष्ण से पूछते हैं कि यदि वे कह देंगे तो संसार उनकी बात को मान लेगा। उद्धव जी ने सेवक की परिभाषा भगवान से पूछी। भगवान श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया ,
” यावत् सर्वेषु भूतेषु मद्भावो नोऽपजायते।
तावत् एवं उपासीत् वाक् काय दृष्टि वृत्तिभि:।।”
(श्रीमद्भागवत पुराण ११/२९/१७)
अर्थात् जैसा भगवान् राम ने हनुमान जी को उत्तर दिया था वही उत्तर पुराण ऋषि ने भगवान श्रीकृष्ण से कहलवाया। भगवान कहते हैं कि उद्धव ,ये एक दिन की सेवा नहीं है। यदि सेवक बनना चाहते हो तो सेवक भाव से सभी चर-अचर प्राणियों में मुझ परब्रह्म परमात्मा का ही स्वरूप देखने का प्रयत्न करो। अपनी वाणी ,अपनी शरीर ,अपनी दृष्टि तथा सभी ग्यारह इंद्रियों को समस्त प्राणियों में मुझे ही दृष्टि करते हुए अर्पित कर दो, तो तुम्हारा सेवा भाव परमात्म भाव हो जाएगा।
” इदं ब्रह्मात्मकं तश्य विद्यया आत्मविभूतया ।
परिपश्यत् उपरमेत् सर्वतो: मुक्त संशय:।।”
(श्रीमद्भागवत ११/२९/१८)
भगवान कहते हैं कि उद्धव ,तुम्हारा ये कार्य केवल सेवा तक ही नहीं रह जायेगा । तुम्हें इस कार्य से विद्या,आत्मज्ञान प्राप्त हो कर सारे संशयों से तुम्हारा उपराम हो जाएगा। अर्थात् वर्तमान का लोभ, भूतकाल का मोह और भविष्य काल का भय इससे तुम सर्वथा एवं सर्वदा के लिए मुक्त हो जाओगे।
आजकल भी सारे नेता जन सेवक हैं। प्रयत्न तो यह है कि जन की कृपा से किसी तरह सरकारी खजाने तक पहुंच जायें फिर तो देखो उनका सेवा भाव। कुछ लोग थोड़ा बहुत समाज अथवा संस्थाओं को दान देकर अपने को स्वघोषित सेवक मानते हैं और तरह तरह से शास्त्रों का अशुद्ध संदर्भ देकर उसकी अशुद्ध व्याख्या करते हैं तथा अपने को सेवक घोषित करते रहते हैं। उनके लिए तो कबीर दास जी ने कहा है कि ,
“चोरी करै निहाय की औऊ देय सुई का दान ।
औऊ ऊपर चढ़ि चढ़ि देखैं केतनी दूर विमान।।
कबीर दास जी भी संभवतः ऐसे पाखंडी जनसेवकों से पस्त रहे होंगे।
सुलभ संदर्भ के लिए बताना ये उचित है कि वर्तमान पीढ़ी निहाय नहीं जानती होगी। लोहार लोगों के पास लगभग पचास किलो का लोहे का सिलिंड्रिकल खंड होता है। जिसपर रख कर के बड़े बड़े लाल गरम लोहे को घन से पीटा जाता है। कबीरदास जी का कहना है कि लोग चोरी तो लगभग पचास किलो लोहे की करते हैं और उसमें से सुई भर लोहे का दान भी कर देते हैं। इस प्रकार दानी हो कर वे समाज द्वारा देव कहलाने की कामना रखते हैं तथा देव लोक जाने के लिए भी देव लोक से विमान की प्रतीक्षा में भी रहते हैं। मेरा तो मत ये है कि आत्मनिरीक्षण ही सबसे बड़ी साधना है। ऐसा करते रहने से कम से कम देश और समाज में व्यक्ति असम्मानित नहीं होता ।
©यू बी तिवारी