यह मानना ही पड़ेगा कि सभ्य समाज में भी असभ्य लोग होते हैं, तभी तो पुलिस और अदालतों की जरूरत पड़ी। ये असभ्य लोग हमारे ही बीच से आते हैं और अपने कृत्यों से समाज को झकझोर कर रख देते हैं। लेकिन इन्हें पहचाना कैसे जाएं और सभ्य लोगों को इससे बचाया कैसे जाएं, यह विचार का विषय होना चाहिए। हम बिल्ली को देखकर कबूतर की तरह ” मूंदहु आंख कतहु कुछ नाही” की तर्ज पर बस अपनी आंखें बन्द कर लेते हैं और पुलिस के साथ सरकार की मजम्मत करने लगते हैं और न्यायपालिका की तरफ भी सकुचाते-सकुचाते इशारा कर देते हैं, वह भी भयवश कभी- कभी। लेकिन क्या वास्तव में पुलिस अपराध नियंत्रण के लिए सक्षम है? लॉक डाउन के दौरान जिस तरह से हत्या और दुराचार जैसी घटनाओं में कोई खास कमी नहीं आई है, वह सोचने को मजबूर करती है कि क्या पुलिस और न्यायपालिका से अपेक्षा रखने से पहले हमें अपने समाज को सुधारना होगा?

स्नेह मधुर
Sneh Madhur
महंगाई की तरह क्यों बढ़ते जा रहे हैं अपराध?
भले ही पिछले पांच महीनों के दौरान सामाजिक और आर्थिक गतिविधियां आम दिनों की अपेक्षा न्यूनतम रही हों, लेकिन संज्ञेय अपराध करने वालों के हौसले नहीं कम पड़े। इस खालीपन में भी हत्याएं खूब हुईं और दुराचार तक की घटनाएं नहीं रुकीं! ऐसे समय जब सारे के सारे पुलिस वाले कोरोना वॉरियर्स बनकर लोगों को विभिन्न तरह की राहतें पहुंचा रहे थे, देवदूत बनकर भूखों को अपने पैसे से खाना पहुंचा रहे थे और कसम खाकर भी कहा जा सकता है कि लूट की कमाई शून्य तक पहुंचने का शताब्दियों पुराना रिकॉर्ड तोड़ रही थी तो भी अपराध का आंकड़ा आसमान की तरफ भाग रहा था, क्यों? क्या अपराधों केे नियंत्रण में पुलिस की वाकई कोई भूमिका नहीं होती है और अपराधी गाइड फिल्म के गाने की धुन पर पुलिस को चिढ़ाते हुए उड़न छू हो जायेगें, ” क्राइम करने वाले, क्राइम ही करेगें, रोकने वाले हमको जल – जल मरेगे..!”
अगर विश्वास न हो तो आंकड़े देखिए: वर्ष 2019 में जनवरी से जुलाई के बीच बलात्कार की 1526 घटनाएं हुईं थीं और इसी अवधि में इस वर्ष 2020 में 1095 घटनाएं हुईं। कहने को तो कहा जा सकता है कि बलात्कार की घटनाओं में 28% कमी आई है लेकिन असल में यह पुलिस की सतर्कता से नहीं हुआ है। चारों तरफ सन्नाटा ही सन्नाटा था, आने जाने भागने का कोई साधन नहीं, फिर भी बलात्कार हो ही गए, कैसे? विशेषज्ञ कहते हैं कि बलात्कार करने के लिए किसी वाहन की जरूरत नहीं होती और न ही शिकार की तलाश के लिए कहीं भटकना पड़ता है। सबकुछ आसपास ही तो होता है, अपनों के साथ ही तो होता है! और फिर लॉक डाउन तो शहरों में था जहां मात्र बीस प्रतिशत लोग रहते हैं। जहां 80% लोग रहते हैं, वहां तो सबकुछ खुला ही था! किसी तरह की कोई पाबंदी नहीं, न तो मास्क और न ही डिस्टेंसिंग!
अब हत्या की वारदातों को देखिए: इस वर्ष जनवरी से जुलाई के बीच 1856 हत्याएं हुई हैं जबकि पिछले वर्ष इस अवधि में 2019 हत्याएं हुई थीं। अब जब इस काल में पुलिस की चारों तरफ सतर्कता ही सतर्कता थी, फिर भी लोगों ने एक दूसरे की जान ले ही ली! यानी वही फार्मूला कि जिसने जो तय कर लिया, उसे करके ही दिखायेगा! जिस्म की आग और बदले की आग, बिना बुझाए नहीं मानती, चाहे जितने भी बंदिशें लगा लो! फिर क्यों है बदनाम पुलिस?
हाँ, लूट की घटनाओं में 43% तक कमी आई है। पिछले वर्ष सात महीनों में लूट की 1258 वारदातें हुईं थीं जो इस वर्ष मात्र 715 हैं। डकैतियों में भी 40% कमी आई है जो 57 से 34 तक आ गईं। यह बात दूसरी है कि 2018 में 87 डकैतियों हुईं थीं जो घटकर 2019 में 57 हो गई थीं। यानी प्रदेश में डकैती की वारदातें लगातार कम हो रही हैं। नकबजनी की घटनाएं भी इस अवधि में 32% कम हुई हैं और फिरौती के लिए अपहरण की घटनाएं भी 22 से मात्र 14 रह गई हैं, फिर लोग काहे को चीख रहे हैं कि अपराध बहुत बढ़ रहे हैं? यानी कौवा कान ले गया का शोर मचाए जा रहे हैं, अपना कान नहीं देखते!
मासिक आय, जनसंख्या, महंगाई और बहुमंजिली इमारतों की बढ़ती ऊँचाई के साथ कदम से कदम मिलाकर अगर अपने देश में अपराधों में भी वृद्धि होती भी है तो कोई चौंकाने वाली बात नहीं होनी चाहिए। यह सामान्य घटनाक्रम है और इस मामले में भ्रमित होने की कतई जरूरत नहीं है, उन लोगों को छोड़कर जिनका जीविकोपार्जन और कैरियर का ग्राफ ही इस बात पर निर्भर है कि पुलिस और सरकार के खिलाफ कितना चीख कर बोल सकते हैं और मीडिया में चलने वाली डिबेट को अपनी आवाज की ताकत से अपनी तरफ खींच लेने में समर्थ होते हैं। ये वे लोग होते हैं जो सरकार में न होने पर उसी तरह की आपराधिक घटनाओं पर मौजूदा सरकार से इस्तीफे मांगने लगते हैं जो उनकी सत्ता के दौरान भी घटित हुई होती हैं।
जिन अपराधों के लिए पुलिस या सरकार को दोषी ठहराया जाता है, वे अपराध न घटित हों, इसकी रणनीति बनाने की जिम्मेदारी सरकार की होती है, इसमें कोई सन्देह नहीं है। अपराधों की रोकथाम में असफलता के पीछे पुलिस अधिकारियों की पर्यवेक्षण क्षमता में कमी, भ्रष्टाचार, कामचोरी, अप्रशिक्षित होना, पुलिस बल की कमी, राजनैतिक दबाव और व्यक्तिगत उद्दंडता भी कारक तत्व होते हैं। लेकिन क्या ये ही कारक तत्व अपराधों के लिए पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं, बस!
सबसे ताज़ा उदाहरण लीजिए, मंगलवार को उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले में सुदीक्षा नामक बीस वर्षीय प्रतिभावान छात्रा की मार्ग दुर्घटना में मृत्यु हो गई। वह लगभग चार करोड़ के अमेरिकी वजीफे पर एम बी ए करने अमेरिका गई थी और अपने परिवार से मिलने पिछले महीने भारत आई थी, 20 अगस्त को ही उसे वापस लौटना था।
घटना इस तरह से है। सुदीक्षा अपने चचेरे छोटे भाई के साथ बाइक पर बैठकर मामा के पास जा रही थी। बताते हैं कि रास्ते में कुछ शोहदे उसका पीछा करने लगे और बाइक के आगे-पीछे स्टंट करने लगे। एक शोहदे ने अपनी बुलेट मोटर सायकिल बाइक के सामने लगा दी तो चचेरे भाई को अचानक ब्रेक लगाना पड़ा जिससे झटका खाकर सुदीक्षा पीछे की तरफ गिर पड़ी। जमीन से सिर टकरा जाने के कारण मौके पर ही उसकी मृत्यु हो गई।
इस प्रतिभाशाली छात्रा की दुखद मृत्यु पर लोगों ने और प्रशासन ने ज्यादा दुख जताते की जगह इस बात पर चर्चा ज्यादा की कि घटना शोहदों की वजह से हुई या अनुभवहीन ड्राइविंग की वजह से! शोहदों की उत्तेजनामय मूर्खताओं से भी इस तरह की दुर्घटनाएं हो जाना असम्भव जैसी बात नहीं है, लेकिन पूरे समाज का यही गैर जिम्मेदारनापूर्ण हाल है कि बच्चों को गाड़ी देकर और उसे लहराता देखना लोग अपनी शान समझते हैं। जिस तरह से सुदीक्षा का नाबालिग भाई बाइक चला रहा था, उसी तरह से शोहदे भी नाबालिग या गैर जिम्मेदार बाइकर रहे होगें! कौन किसको रोकेगा?
पुलिस को चाहिए कि इसी बहाने यातायात नियमों का कड़ाई से पालन कराने के लिए अभियान चला डाले और कम से कम स्टंटबाबाज बाइकर्स को ढूंढ ही निकाले! लेकिन पुलिस के लिए मजबूरी की बात यह है कि ऐसे अधिकतर लोगों के अभिभावक या तो रसूखदार होते हैं या धनाढ्य होते हैं जो पुलिस को जेब में रख लेने या फिर पूंछ हिलवाने तक की ताकत रखते हैं जिससे पुलिस का कहर ऐसे लोगों पर गिरता है जिनका कम से कोई दोष नहीं होता है। यानी पुलिस के अभियान का मकसद ही खत्म हो जाता है। पुलिस को विवाद पैदा करने की जगह अपनी नीयत को स्पष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए। विवाद का समाधान करने की जगह पुलिस खुद सन्देह के घेरे में आने लगती है।
विवाद की बात यह है कि जिस बाइक पर सुदीक्षा बैठी थी, उसे कौन चला रहा था? उसके पास ड्राइविंग लाइसेंस था कि नहीं? क्या बिना ड्राइविंग लाइसेंस के बाइक चलाने से शोहदों द्वारा किया गया अपराध कम हो जाता है? अगर सुदीक्षा ने हेलमेट लगाया होता तो उसकी जान बच नहीं जाती? वैसे हेलमेट किसी ने भी नहीं लगा रखा था, पूरे जिले मेें और खासकर छोटे शहरों-कस्बों में तो कोई हेलमेट नहीं लगाता है। क्या यह अपराध नहीं है? नाबालिग भतीजा बाइक चला रहा था, वह भी कानून का उलंघन ही है। अगर बाइक चाचा चला रहे थे तो भतीजा क्यों कह रहा है कि बाइक वह खुद चला रहा था जो कि एक अपराध है जिसमें कई तरह की सजाएं हैं और नाबालिग के अभिभावक को भी जेल हो सकती है। इन जटिलताओं की वजह से मुद्दे की बात गायब हो गई कि शोहदों केे आतंक की वजह से सुदीक्षा की जान गई। न तो शोहदे स्टंट करते और न ही दुर्घटना घटती और न ही पुलिस की किरकिरी होती।
वैसे नाबालिग द्वारा गाड़ी चलाने पर गाड़ी मालिक और नाबालिग के अभिभावक दोनों दोषी माने जाएंगे। 25 हजार रुपए का जुर्माना और 3 साल की जेल की सजा है।नाबालिग की उम्र 25 साल होने तक उसे ड्राइविंग लाइसेंस नहीं दिया जाएगा। साल भर पहले तक नियम के उल्लंघन पर कोई कार्रवाई नहीं होती थी। लेकिन अब होनी चाहिए तभी घातक दुर्घटनाओं और अपराधों में कमी आ सकती है।
शोहदों को रोकना पुलिस का काम था, जो पुलिस ने नहीं किया। पुलिस का काम बिना हेलमेट केे चालक का चालान करना था लेकिन पुलिस ने नहीं किया। पुलिस का काम नाबालिग को गाड़ी चलाने से रोकना था, जागरूकता अभियान चलाना था, जो चलाया होगा, लेकिन जागरूकता नहीं फैल पायी। पुलिस बेवजह के विवाद में फंसकर अपनी छवि खराब कराने में लगी है। अगर किसी को आशंका है तो पुलिस को प्रमाण के साथ उसको संतुष्ट करना चाहिए, न कि अपराधियों को क्लीन चिट देकर संदिग्धों के पक्ष में खड़ा दिखना चाहिए? क्या बुलन्दशहर पुलिस दावे के साथ कह सकती है कि बुलन्दशहर में छेड़खानी की घटनाएं नहीं होती हैं? क्या महिलाओं से इस मामले की पुष्टि की गई है? क्या पुलिस दस महिलाओं के इंटरव्यू दिखा सकती है जिसमें वे दावे के साथ कहें कि बुलन्दशहर छेड़खानी मुक्त इलाका है? साल भर में कितने मजनुओं को पुलिस ने सलाखों के पीछे पहुंचाया है?
इस मामले में जितनी फुर्ती पुलिस ने यह साबित करने में लगाई कि दुर्घटना का कारण छेड़खानी नहीं थी, उतनी फुर्ती बिना हेलमेट केे बाइक चलाने वालों को रोकने में लगाती तो शायद एक जान बच जाती! लेकिन कहने वाले कहेंगे कि इस तरह के अभियान चलाकर पुलिस न जानें कितनी जानें बचा चुकी है और साथ में आलोचनाएं भी झेल चुकी है! अब क्या हर घर के सामने बैरीकेडिंग लगा दी जाए कि बिना हेलमेट, ड्राइविंग लाइसेंस, प्रदूषण प्रमाणपत्र और बीमा के कोई घर से ही नहीं निकलने पाएगा?
एक सवाल और उठता है कि मान लिया जाए कि वास्तव में शोहदों की कारगुज़ारी का दुष्परिणाम भुगता सुदीक्षा ने तो क्या बिना हेलमेट और ड्राइविंग लाइसेंस के गाड़ी चलाना वैधानिक हो जायेगा? असल में हम सारी गलतियों के लिए पुलिस को ही जिम्मेदार क्यों ठहराते हैं? पुलिस भी तो इसी समाज से है और अन्य भ्रष्ट, कामचोर, गैर जिम्मेदार, मुंहफट, कानून का उलंघन करने वाले लोगों के बीच से ही आई है। सिर्फ प्रशिक्षण भर से तो वह बदल नहीं जायेगी। जब स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती है, तो ट्रेनिंग कॉलेजों में भी तो राजनीतिज्ञों और अफसरों के सताए हुए लोग ही तो पोस्ट होते हैं! उन्हें क्या पड़ी है अच्छी ट्रेनिंग देने की? जब सुशिक्षित लोग जिम्मेदार नागरिक नहीं बन पाते हैं तो पुलिस वाले ही कैसे जिम्मेदार पुलिस बन सकते हैं?
यही कारण है कि थाने में एक विधायक के साथ दुर्व्यवहार हो जाता है और वह भी सत्ताधारी दल के विधायक से? निश्चित रूप से इसमें पुलिस की गलती होगी क्योंकि अभी तक तो हम यही सुनते आए हैं कि सत्ताधारी दल के विधायक ने थाने में पुलिस वालों को ही पीट दिया!
वैसे, विधायक भी इसी समाज से है और पुलिस के व्यवहार, अधिकार और विवशताओं केे बारे में अच्छी तरह से जानते हैं, फिर उनके साथ ऐसा क्यों हो गया? पुलिस भी विधायकों के अधिकारों और पैरवी की उनकी मजबूरियों के बारे में अच्छी तरह से भिज्ञ है, फिर ऐसा क्यों हुआ? यह भी समझने की जरूरत है।
असल में अपराधों को लेकर हमारे दिमाग में यह गलत धारणा बिठा दी गई है कि पुलिस के इकबाल से अपराध नहीं होते! अपराध तो होंगे ही, संख्या भी बढ़ेगी, भले ही चप्पे-चप्पे पर पुलिस का पहरा बिठा दें। पुलिस की भूमिका है अपराध नियंत्रित करने में, न कि उसे खत्म करने में। जनसंख्या के हिसाब से तो अपराधों की संख्या बढ़नी ही चाहिए।
अगर कोई हत्या की योजना बनाता है तो उसे कैसे रोक सकते हैं? ज्यादा से ज्यादा अपराध करने के दौरान या भागते समय या फिर बाद में कभी उसे गिरफ्तार कर लिया जाएगा। इसी तरह दुराचार की घटनाओं को रोकने में पुलिस की कोई भूमिका नहीं होती है। अधिकांश मामलों में लड़की के जानने वाले, रिश्तेदार या पड़ोसी ही इस जघन्य अपराध को अंजाम देते हैं। हम ऐसे समाज का निर्माण क्यों नहीं करते हैं कि हमारे परिवार के सदस्य ही यह कार्य न करें या फिर हमारे पड़ोसी अपनी काम भावनाओं को नियंत्रित कर सकें?
अकसर चैनलों पर अपराधों में बढ़ोत्तरी को लेकर पुलिस को आलोचना का शिकार होना पड़ता है। क्या आंकड़ों में दो चार की संख्या बढ़ जाने से अपराधों में बढ़ोत्तरी मानी जानी चाहिए? इसी धारणा की वजह से दशाब्दियों से अपराधों के पंजीकरण में कोताही बरती जाती है और यही पुलिस की पहचान बन गई है कि वह रिपोर्ट दर्ज नहीं करती, रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए सिफारिश करानी पड़ती है।
Sneh Madhur
एक आईजी के पास एक एस पी भेंट करने पहुंचे। औपचारिकता के बाद उन्होंने शिकायत की कि गाज़ियाबाद में उनके सगे साले की कार चोरी हो गई थीं लेकिन मेरे कहने के बावजूद रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। आईजी का जवाब था कि तुम भी तो यही करते हो, रिपोर्ट दर्ज नहीं करते!
दो दशक पूर्व 1999 में जब श्री राम अरुण उत्तर प्रदेश के डी जी पी थे, तो पुलिस की हर मीटिंग में पुलिस वालों से हर घटना की रिपोर्ट दर्ज करने के लिए समझाते थे। वह कहते थे कि तुम लोग यहां पर रिपोर्ट दर्ज नहीं करते हो और तुम्हारे अपने गांव में तुम्हारे परिवार में जब कोई घटना होती है तो वहां की पुलिस रिपोर्ट दर्ज नहीं करती। फायदा किसको हुआ?
Shriram Arun
मैंने उनसे कहा था कि रिपोर्ट दर्ज करने पर जब अपराधों का आंकड़ा बढ़ता है तो आप जैसे अफसर ही तो थानेदारों की मजम्मत करते हैं? उन्होंने कहा था कि इसीलिए तो लोगों को समझा रहा हूं कि अपराध बढ़ने पर मैं कोई सज़ा नहीं दूंगा।
मैंने उन्हें सलाह दी कि आप ऐसा क्यों नहीं करते कि जिस थाने में आंकड़ों में अपराध बढ़ेंगे, उसके थानेदार को आप पुरस्कृत करेगें क्योंकि इससे यह तो साबित हो जायेगा कि वह थानेदार सच्चा है! और जब ईमानदार और सच्चा व्यक्ति पुरस्कृत होगा तो हर कोई वैसा ही क्यों नहीं बनना चाहेगा? उन्होंने कहा कि यह मेरे हाथ में नहीं है। मैंने कहा कि फिर आपके भाषण से कौन प्रभावित होगा, हर कोई जानता है जब आप कुछ महीनों में चले जाओगे तो जो नया आयेगा, वह रिपोर्ट लिखने वालों को सज़ा देने लगेगा!
यही हकीकत है। लेकिन फिर भी अखबार, मीडिया इस तरह की खबरों से भरे रहते हैं कि पुलिस जनता की नहीं सुनती, नहीं दर्ज हो रही एफआईआर! और अधिकारियों के बयान छपते हैं कि पुलिस वालों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जायेगी! करेगा कौन और क्यों?
अरे, अफसर हो तो हर समस्या की जड़ हैं। एक आईजी ने तो मेरे सामने ही प्रेसनोट जारी करा दिया कि कोई भी एफआईआर बिना उनके स्टाफ की जांच के नहीं लिखी जायेगी। मैंने जब यह बात तत्कालीन डी जी बृजलाल को बताई थी तो उन्होंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। उन्होंने मुझसे ही पूछ लिया कि क्या आप वह प्रेस नोट दिखा सकते हैं? मैंने कहा कि बिलकुल दिखा सकता हूं लेकिन देखने के बाद आप करेंगे क्या? अगर आपको विश्वास नहीं है तो मेरा नाम लेकर उन्हीं आईजी से सीधे क्यों नहीं पूंछ लेते? असल में सभी भेंड़ चाल से घिरे हुए हैं। अपनी नौकरी बचाने के लिए और अपने कार्यकाल को स्वर्णिम घोषित करने के लिए सभी अपराधों केे न्यूनतमीकरण की ही जंग में जूझे पड़े रहने को मजबूर होते हैं।