पहले के जिन्ना हिंदू मुस्लिम एकता के मुखर हामी थे । मुस्लिम लीग के इलाहाबाद (1930) और लाहौर (1940) अधिवेशनों के बाद एक बदले जिन्ना दिखते हैं । इश्तियाक़ चुनौती के रूप मे एक प्रश्न दागते हैं कि जिन्ना ने जो बातें 11 अगस्त को कही, वैसी या इससे मिलती जुलती बातें उसके पहले या उसके बाद कभी क्यों नही कही ? बल्कि अगले कुछ ही दिनों मे कई जगहों पर भाषण करते हुये उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान एक इस्लामी रियासत बनेगा और उसका संविधान तथा क़ानून क़ायदे क़ुरान और सुन्ना पर आधारित होंगे । उनका उपरोक्त भाषण भी दशकों तक सार्वजनिक पहुँच से दूर रखा गया।
“पाकिस्तान क्यों भारत से अलग हुआ? “

विभूति नारायण राय, IPS
लेखक उत्तर प्रदेश में पुलिस महानिदेशक रहे हैं और महात्मा गांधी हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के कुलपति भी रह चुके है
कई बार मिथकों और इतिहास मे इस क़दर घालमेल हो जाता है कि प्रचलित समझ ( परसेप्शन ) और वास्तव मे घटे मे फ़र्क़ करना मुश्किल होता है । उर्दू के एक शेर की यह पंक्ति बार बार दोहराई जाती है कि – लम्हों ने खता की थी सदियों ने सज़ा पाई । ख़ास तौर से देश के 1947 मे हुए विभाजन को लेकर बहुत कुछ ऐसा ग़ड्ड मड्ड है कि इस शेर की याद बड़ी शिद्दत से आती है । हाल मे छप कर आयी प्रो इरशाद अहमद की बहुप्रतीक्षित किताब जिन्ना : हिज़ सक्सेसेज , फेलियर्स ऐंड रोल इन हिस्ट्री ( जिन्ना : सफलतायें , असफलतायें और इतिहास मे उनकी भूमिका ) ने बहुत सी ऐसी धारणाओं का विखंडन किया है पिछले सात दशकों से हमारे विमर्श का अभिन्न अंग बनी हुई हैं । आठ सौ से अधिक पृष्ठों मे फैली और जिन्ना के बहाने 1857 से 1947 तक लगभग सौ वर्षों के भारतीय इतिहास के साम्प्रदायिक अंतर्विरोधों को रेखांकित करने वाली इस किताब की चर्चा इसके छप कर आने से पहले ही भारत और पाकिस्तान के बौद्धिक हल्क़ों मे शुरू हो गयी थी और अब जब यह भारी भरकम किताब आ गयी है, मुझे लगता है कि इसे पढ़ने के बाद इस महाद्वीप मे कई नये विमर्श शुरू होंगे ।
स्थानाभाव के कारण यहाँ उन सारे अंतर्विरोधों पर चर्चा करने का अवसर नही है जिनकी शिनाख्त इश्तियाक अहमद ने अपनी किताब मे की है और मैं सिर्फ़ बहुप्रचलित मिथकों तक अपने को सीमित रखूँगा । पहला जिन्ना के व्यक्तित्व को लेकर है । जिन्ना की छवि एक धर्मनिरपेक्ष , उदार और आधुनिक राजनेता बनाने की कोशिश की जाती रही है । ख़ास तौर से 11 अगस्त को पाकिस्तानी संविधान सभा का उनका उद्घाटन भाषण अक्सर उद्धृत होता है जिसमें उन्होंने पाकिस्तान को ऐसा मुल्क बनाने की वकालत की है जिसमें हिंदू , मुसलमान, सिख या ईसाई सभी बराबर के नागरिक होंगे । अपनी धार्मिक शिनाख़्त से परे सभी सिर्फ़ पाकिस्तानी होंगे और धर्म उनके लिये व्यक्तिगत मसला होगा । अक्सर धर्मनिरपेक्ष और उदार विमर्श इस ट्रैप मे फँस जाता है ।
एक दिलचस्प उदाहरण आडवानी का है जो इस पेय के चक्कर मे अपना मुँह जला चुके हैं । जिन्ना की सबसे चर्चित जीवनीकार, जिन्ना द सोल स्पोक्सपर्सन की लेखिका आयशा जलाल की स्थापना है कि जिन्ना विभाजन नही चाहते थे । वे तो अंदर से धर्म निरपेक्ष थे , विभाजन का कार्ड तो सिर्फ़ मुसलमानों के लिये अधिक रियायतें हासिल करने के लिये खेल रहे थे । इश्तियाक़ अहमद इस अवधारणा का पूरे धैर्य के साथ सप्रमाण खंडन करते हैं । वे 1930 के पहले और बाद के जिन्ना के व्यक्तित्व के फ़र्क़ को समझने की सलाह देते हैं । पहले के जिन्ना हिंदू मुस्लिम एकता के मुखर हामी थे । मुस्लिम लीग के इलाहाबाद (1930) और लाहौर (1940) अधिवेशनों के बाद एक बदले जिन्ना दिखते हैं । इश्तियाक़ चुनौती के रूप मे एक प्रश्न दागते हैं कि जिन्ना ने जो बातें 11 अगस्त को कही, वैसी या इससे मिलती जुलती बातें उसके पहले या उसके बाद कभी क्यों नही कही ? बल्कि अगले कुछ ही दिनों मे कई जगहों पर भाषण करते हुये उन्होंने स्पष्ट कर दिया कि पाकिस्तान एक इस्लामी रियासत बनेगा और उसका संविधान तथा क़ानून क़ायदे क़ुरान और सुन्ना पर आधारित होंगे । उनका उपरोक्त भाषण भी दशकों तक सार्वजनिक पहुँच से दूर रखा गया । पुस्तक मे एक वैध प्रश्न उठाया गया है कि क्या यह प्रतिबंध बिना जिन्ना की सहमति से लगाया जा सकता था । आम जानकारी है कि अपनी मृत्यु (11 सितम्बर 1948 ) से कुछ महीने पहले तक जिन्ना पाकिस्तान की सर्व शक्तिमान शख़्सियत थे । हालाँकि इस भाषण को ख़ास मक़सद से दिया गया बताते हुये इस के पीछे जिस कारण की शिनाख़्त इश्तियाक़ करते हैं उस पर अलग से चर्चा हो सकती है ।
इस किताब का सबसे महत्वपूर्ण अंश है कैबिनेट मिशन की असफलताओं का विश्लेषण । अक्सर दलील दी जाती है कि अगर गांधी , नेहरू और पटेल ने कैबिनेट मिशन की सिफ़ारिशें मान ली होती तो कमज़ोर केंद्र के साथ देश की अखंडता बची रहती । ख़ुद मौलाना आज़ाद , जो कैबिनेट मिशन की उपस्थिति मे अप्रैल , मई और जून 1946 मे घट रही , देश का इतिहास बदलने वाली , नाटकीय घटनाओं के एक पात्र थे , ने भी प्रच्छन्न रूप से इसी धारणा का समर्थन किया है । संविधानविद सीरवाई और अकादमिक आयशा जलाल ने सबसे मज़बूती से इस धारणा को परवान चढ़ाया है । इश्तियाक़ अहमद को पढ़ने से समझ आता है कि कांग्रेस नेतृत्व को कैबिनेट मिशन के प्रस्तावों से ज़्यादा उनमे जिन्ना के प्रस्तावित संशोधनों से गुरेज़ था ।

कैबिनेट मिशन ने जो नौ सूत्रीय प्रस्ताव रखे उसके अनुसार एक कमज़ोर केंद्र के अन्तर्गत धर्माधारित तीन समूहों मे भारतीय राज्यों को गठित किया जाना था । केंद्र के पास रक्षा , विदेशी मामले और संचार छोड़ कर शेष सारे मामले राज्यों के पास होते पर अपने ख़र्चे उठाने के लिये केंद्र को कर उगाहने का अधिकार होता । इस मामले मे जहाँ कांग्रेस एक मज़बूत केंद्र की वकालत कर रही थी वहीं मुस्लिम लीग चाहती थी कि केंद्र को टैक्स वसूलने का अधिकार नही होना चाहिये और राज्यों के चंदे से उसकी ज़रूरतें पूरी होनी चाहिये । इस के अलावा राज्यों को निश्चित अवधि के बाद संघ से अलगाव की इजाज़त होनी चाहिये । आज पीछे मुड़ कर देखने पर समझा जा सकता है कि कांग्रेस और जिन्ना के प्रस्तावों मे किसका बेहतर था?
दोनों पक्षों मे मुख्य मुठभेड़ एक दूसरे मुद्दे पर हुई । ब्रिटिश सरकार , जो भारत को आज़ाद करने का मन बना चुकी थी, चाहती थी कि फ़ौरन एक संविधान सभा गठित हो जाय जो संविधान बनाने का काम शुरू कर दे । एक अंतरिम सरकार बनाने का भी प्रस्ताव था जिसमें पाँच पाँच कांग्रेस और मुस्लिम लीग के प्रतिनिधि और दो अन्य मंत्री बनने थे ।

जिन्ना इस बात पर अड़ गये कि बिना उनकी माँगे माने संविधान बनाने का काम नही हो सकता और कांग्रेस को किसी मुस्लिम मंत्री की नामजदगी का अधिकार नही है उनकी सहमति के बाद ही कोई मुसलमान मंत्रीमंडल में शरीक हो सकता है । उल्लेखनीय है कि उस समय कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना आज़ाद थे और स्वाभाविक था कि वे वज़ीर बनते । महात्मा गांधी ने वायसराय लार्ड वावेल से स्पष्ट कहा कि कांग्रेस का संविधान , उसके नेतृत्व मे भागीदारी और सदस्यों की विविधता उसे एक राष्ट्रीय संगठन बनाता है , जिन्ना की बात मान लेने पर तो वे एक हिंदू संगठन बन जायेंगे । यह मौलाना आज़ाद का बड़प्पन था कि विवाद टालने के लिये उन्होंने वज़ारत स्वीकार करने से इनकार कर दिया । पर जिन्ना ने कांग्रेस द्वारा प्रस्तावित डा. ज़ाकिर हुसैन का नाम भी ख़ारिज कर दिया। जब वायसराय ने धमकी दी कि बिना मुस्लिम लीग अंतरिम सरकार बना दी जायेगी तभी जिन्ना उसमे शरीक हुए।

इश्तियाक़ अहमद वर्षों की मेहनत, अकादमिक ईमानदारी और अकाट्य तथ्यों से इस मिथ को नष्ट कर देते हैं कि भारत विभाजन जिन्ना की मर्ज़ी नही थी, वे तो परिस्थितियों के मारे थे ।
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