Home / Slider / “पत्रकारिता की दुनिया :4”: “कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :32:

“पत्रकारिता की दुनिया :4”: “कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :32:

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

“पत्रकारिता की दुनिया :4”

गतांक से आगे...

जनवार्ता में रिपोर्टिंग में मुझे कई तरह के अनुभव हुए और काम करने की काफी छूट थी। कभी-कभी अकेले पूरा काम देखना पड़ता। हरिवंश जी मस्तमौला आदमी थे। वह जब गांव जाते चार दिन की छुट्टी लेकर तो एक महीने के पहले नहीं आते। ऐसे में मुझे अकेले पूरी रिपोर्टिग करनी होती। इसमें थेाड़ी मेहनत तो अधिक करनी होती, लेकिन काम का मजा आता।

उन दिनों लोकल का एक पेज ही होता था और आज आठ पेज का ! जनवार्ता छह पेज का अखबार था। वह लोकल को डेढ़ पेज देता। इस तरह कभी कभी पूरा आठ कालम खुद ही लिखना पड़ता। वंशीधर राजू सांध्‍यकालीन अखबारों से कुछ अपराध समाचारों को लिखने में ही मदद कर पाते।

हरिवंश जी ने मुझे रिपोर्टिंग के कई गुर बताए। खबर में क्‍या- क्‍या पता लगाना चाहिए, इंट्रो में क्‍या और कैसे लिखा जाना चाहिए। इसके पहले मैं जनरल डेस्‍क पर था, जहां टेलीप्रिंटर से अंग्रेजी में आई खबरों को हिंदी में लिखा जाता। बर्मा जी इसमें निष्‍णात थे। वह लीडर, आज, सन्‍मार्ग आदि कई अखबारों मे काम कर चुके थे। यहां भी कईं साल से काम कर रहे थे। उन्‍होंने अनुवाद करने के तरीके, वाक्‍य विन्‍यास के नियम आदि बताने के साथ ही यह भी बताया कि अंग्रेजी कापी से क्‍या लिया जाए और क्‍या छोड़ा जाए। वह कोई भी खबर लिखने के पहले दो एक बार उसे पढ़ते और पहले उसकी हेडिंग लिख लेते और फिर खबर लिखते। खबर लिखते समय कोई न कोई तथ्‍य वह नीचे से ऊपर ले आते और प्राय: हेडिंग उसी पर होती। इससे उनकी खबर दूसरे अखबारों में छपी खबर से अलग हो जाती। अमूमन दूसरे अखबार के उप संपादक ज्‍यों की त्‍यों खबर लिख देते । एक ही सूत्र से मिली खबर को दूसरे से अलग बनाने का यह उनका अपना तरीका था। जो भी पत्रकार अपनी खबर को दूसरे से अलग बनाने की कला जानता है, उसकी खबरें भीड़ में अलग दिखती हैं।

रिपोर्टिंग में समय अधिक लगता। दोपहर आते समय अस्‍पताल की खबरें देखना, आफिस आकर उन्‍हें लिखना, थानों से अपडेट लेना, प्रेस कांफ्रेंस सहित अन्‍य आयोजनों में जाना, आफिस में आई विज्ञप्तियों की छंटाई, जो संपादन लायक होंती, उन्‍हें संपादित कर प्रेस में कंपोज होने के लिए भेजना, जो ऐसी न होतीं उन्‍हें री राइट करना आदि काम करना पड़ता। रात में फोन से थानों से रिपोर्ट लेना और अंतिम काम डीएम एसएसपी से बात कर किसी राजकीय आदेश आदि की जानकारी लेना आदि होता था। सांस लेने की फुर्सत नहीं मिलती। लेकिन अपनी टीम में इतना स्‍नेह था कि काम का पता ही नहीं चलता।

थाने से फोन पर खबर लेने और मौके पर जाने से खबर में क्‍या अंतर आ जाता है, इसकी सीख मुझे एक घटना से मिली। जाड़े के दिन थे। हम लोग अपनी टेबल आफिस की छत पर निकाल लेते और जब तक सूरज रहता, वहीं काम करते। एक दिन मैं अस्‍पताल से आकर मेज छत पर निकलवा कर खबरें बनाने के बाद विज्ञप्तियों की छंटाई कर रहा था कि प्रधान संपादक श्री ईश्‍वरचंद्र सिन्हा जी मेरे पास आए और कहा —पता है चौक में केनारा बैंक में डकैती पड़ गई है। एक व्‍यापारी को गोली मार कर चार लाख रुपये लूट लिए गए हैं। 

यह जानकारी मेरे एक सूत्र ने दे दी थी। मैने सोचा इतनी बड़ी खबर है तो पुलिस तो सब बता ही देगी, इसलिए मैं अपना रुटीन काम निपटा रहा था। मैने कहा- जी मुझे भी सूचना मिली है।

इतना सुनते ही वह नाराज हो गए। बोले तुम पत्रकार नहीं हो, जो ऐसी घटना की जानकारी होने पर मौके पर न जाए, वह कैसा पत्रकार?

मैने कहा-विज्ञप्तियां बना रहा था, सोचा, इन्‍हें खतम कर लूं तो जाऊंगा।

उन्‍होंने कहा–तुम मौके पर जाओं, विज्ञप्तियां मैं बना देता हूं। हां, वहां पहले भीड़ में खड़े होकर लोगों की बात सुनना, उससे घटना के कई विवरण ऐसे मिलेंगे जो पुलिस के पास नहीं होंगे। उन्‍हें अपनी खबर में डालोगे तो तुम्‍हारी खबर सबसे अलग बनेगी।

मैं घटनास्‍थल पर पहुंचा और लोगों की बातें सुनने के बाद बैंक में गया। पुलिस पहुंच चुकी थी। बैंक पहली मंजिल पर था और उसमें जाने के लिए एक पतली सीढ़ी थी। व्‍यापारी बैंक से पैसा निकालकर नीचे उतर रहा था और उसी समय बाहर खड़े बदमाशों ने उसे गोली मार कर पैसे का थैला लूट लिया और सामने की गली से होते हुए पैदल ही अंदर दालमंडी की ओर भाग गए। दिन भर घटना की गहमा गहमी रही। उन दिनों चार लाख रुपये बहुत बड़ी रकम होती थी। शाम को एसएसपी ने चौक थाने में प्रेस कांफ्रेंस की और तब तक कुछ संदिग्‍ध लोग पकड़े जा चुके थे। मैं पूरे दिन इसी एक ही खबर के पीछे लगा रहा। शाम को सिन्हा जी ने मुझसे पूरा विवरण पूछा और खुद इंट्रो और हेडिंग लिखने के बाद कहा, आगे पूरी कहानी तुम लिख दो। लोगों से जो सुना है, उसे चर्चा के अनुसार, कहा जाता है आदि लिखकर पूरी बात लिख दो। यदि किसी बात का लिंक नहीं मिल रहा है तो उसे ऐसा भी कहा जाता है कि लिखते हुए लिखो।

रात घर लौटते समय मैं कोतवाली थाने होते हुए गया, जहां पकड़े गए लोगों से पूछताछ हो रही थी। वहां के थानेदार मेरे परिचित हो गए थे। उन्‍होंने घटना के बारे में कुछ नई जानकारी दी, जो दूसरे दिन खबर लिखने में काम आई। निश्चित ही दूसरे दिन मेरी खबर किसी से कमजोर नहीं थी, जबकि मैं नया रिपोर्टर था और आज में मंगल जायसवाल जी और राजेंद्र गुप्‍त जी जैसे अनुभवी और पुराने पत्रकार थे जिन्हो्ने यह खबर कवर की थी।

सिन्हाजी बनारसके बहुत सम्‍मानित पत्रकार थे।वह कभी आज के मुख्‍य संवाददाता हुआ करते थे। उनकी कई रिपोर्ट बहुत चर्चित हुई थी। मुझे बताया गया था कि एक बार मुगलसराय में हुई एक रेल दुर्घटना की जांच रिपोर्ट उनकी खबर के आधार पर लगाई गई थी। बताया गया था कि एक पैसेंजर ट्रेन के कई लोग मुगलसराय आउटर पर रहस्‍यमय तरीके से कट का मर गए और बड़ी संख्‍या में लोग घायल हुए थे ( सही संख्‍या मुझे याद नहीं आ रही है।) ये लोग एक खास जगह पर ट्रेन से घायल हुए थे। आसपास दुर्घटना का कोई कारण नहीं दिख रहा था। सिन्‍हा जी ने खबर लिखी कि जहां दुघर्टना हुई थी उससे जुड़ी दूसरी लाइन पर एक मालगाड़ी खड़ी थी जिससे सटकर पैसेजर ट्रेन निकली और जो लोग बोगी के गेट से बाहर लटके या झुके हुए चल रहे थे, वे इसी मालगाड़ी से टकराए। दुर्घटना के बाद मालगाड़ी के चालक ने उसे कुछ फुट आगे कर दिया जिससे लोग यह कारण समझ नहीं पाए। सिन्‍हा जी ने लिखा कि दुर्घटना का कोई दूसरा कारण हो ही नहीं सकता। जब जांच दल ने मालगाड़ी के ड्राइवर से कड़ाई से पूछताछ की तो उसने अपनी गलती स्‍वीकार कर ली। एक बार मैं अकेला रिपोर्टिंग में था और लोकल की कोई लीड नहीं मिल पा रही थी। वह मेरे पास आए और पूछे की आज की मुख्‍य खबर क्‍या है। मैने कहा कि कोई अच्‍छी खबर नहीं है जिसे लोकल की लीड बनाया जा सके।

वह वहां से चले गए और थोड़ी देर में एक खबर के साथ लौटे जो उस दिन विश्‍वेश्‍वरगंज मंडी में अनाज के दामों पर थी। बोले हर रिपोर्टर यदि आंख-कान खुला रखे तो उसे ऐसी खबरें दिख जाएंगी। उसे ऐसी खबरें अपने रिजर्व स्‍टाक में हमेशा रखनी चाहिए। मैं कल राशन लेने मंडी गया था। वहां गेहूं चावल आदि के दाम पूछे और उसी पर यह खबर है। जाहिर है आज के पास वैसी कोई खबर दूसरे दिन नहीं थी। तब खबरों की इतनी मारा मारी नहीं थी। आज जिस तरह हर सूचना को खबर बना दिया जाता है, वैसा तब नहीं था।

Check Also

“Glaucoma/समलबाई में दर्द होता है, आंखें लाल हो जाती हैं”: Dr Kamaljeet Singh

Dr Kamal Jeet Singh Medical Director,  Centre for Sight Prayagraj संबलबाई यानी Glaucoma आंख में प्रेशर के ...