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किसान आंदोलन : अपने “हितों-अधिकारों” के आगे “बौनी” कर दी “देश की गरिमा”?

किसान आंदोलन के नाम पर सिर्फ जिद्द!

 -राजनीति और हिंसा की पराकाष्ठा, हठधर्मी पर अड़े किसान नेता

क्या एक दिन का उपवास और प्रायश्चित कर ‘अन्नदाता’ अपने पाप से बच जाएगा?

-क्या किसान नेताओं ने गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड के बहाने केवल अपनी ताकत और तांडव का किया था प्रदर्शन?
-देश की साख पर बट्‌टा लगाने और जवानों पर हमला कराने वाले किसान नेताओं को अब भी नहीं है अफसोस
– सैकड़ों जवानों को घायल, हजारों को बेरोजगार और देश को करोड़ों का नुकसान पहुंचाने वाले क्या सचमुच के है ‘अन्नदाता’?

रामानुज

नई दिल्ली।

अन्नदाता…अन्नदाता…अन्नदाता! कहने का मतलब अपने सुख, सुविधाओं और लाभों की चिंता किए बिना सबका पेट भरने वाला किसान-अन्नदाता त्याग, समर्पण, सेवाभाव, बलिदान के लिए तत्पर रहने वाला और स्वाभिमान का नाम है किसान। क्या हम इन मर्यादाओं, जिम्मेदारियों और कर्तव्यों को निभा पाए या सिर्फ ‘अन्नदाता’, झूठी जिद्द और किसान आंदोलन के नाम पर केवल राजनीति और अपनी ताकत का प्रदर्शन कर रहे हैं? देश की आन-बान और शान को तार-तार करने तथा देश के जवानों के सम्मान को रौंद कर ‘किसान नेता’ क्या हासिल करना चाहते हैं? क्या एक दिन का उपवास और प्रायश्चित कर ये ‘अन्नदाता’ अपने पाप से बच जाएंगे? क्याेंकि राजनीतिक दलों तथा राजनीति से दूर रहने और अपने अधिकारों के लिये संघर्ष करने के दावे वाले इन हित साधक ‘किसान नेताओं’ की असलियत देश की जनता के सामने आ चुकी है। उन्हें अपने हितों के अलावा देश के अपने लोगों के अधिकारों, रोजगार और उद्योग-धंधों से कोई लेना-देना नहीं है। शायद तभी दो महीने से भी अधिक समय से दिल्ली के बॉर्डर पर जमे आसपास के दर्जनों गांव के लोगों के जीवन की न तो उन्हें चिंता है, न ही उनके प्रति कोई जिम्मेदारी और न ही उन्हें देश की सुरक्षा तथा कानून व्यवस्था का भान है।


शांति-सौहार्द और जय जवान- जय किसान तथा एकता का दंभ भरने वाले ‘किसान नेताओं’ ने गणतंत्र दिवस पर ट्रैक्टर परेड के नाम पर जिस तरह से दिल्ली तथा लाल किले पर तांडव किया, वह किसी से न तो छिपा रह गया और न ही इसमें कोई संदेह रह गया है। उन्होंने सारे वादों-शर्तों और पुलिस के निर्देशों को धता बताते हुए जिस तरह से राष्ट्रीय पर्व पर देश के सम्मान को क्षति पहुंचायी और साख पर बट्‌टा लगाया है, वह हम सबके सामने है। हाथों में मोटी-मोटी लाठियां, डंडे, भाले, फरसे, लोहे की रॉड और तलवारें लिये लोगों को वहां लेकर कौन गया था? तेज रफ्तार ट्रैक्टरों से करतब कर पुलिस और सुरक्षाबलों को रौंदने वाले और हथियारों से उन पर हमला करने वाले कहां से आए थे? अगर ये अराजक तत्व उनकी भीड़ में आ गए थे तो फिर किसान नेता और शांति के अलंबदार क्या कर रहे थे? उनकी तो हर जगह पैनी नजर थी। वह तो दावे कर रहे थे कि कोई भी परिंदा पर नहीं मार सकता है तो फिर वे इस हिंसा को क्यों नहीं रोक पाए? क्यों सुरक्षाबलों के साथ मिलकर इनको रोकने की काेशिश नहीं की?


सवाल यह कि क्या ये ‘किसान नेता’ सरकार पर बेबुनियाद आरोप मढ़कर अपनी रची साजिश और मंशा को छिपाना चाहते हैं। क्या उनके बोल,वायरल वीडियो और ट्रैक्टर परेड के दिन उनकी हरकतें-हकीकत सबकुछ झूठ है, जिसे सारे देश के लोगों और दुनिया ने देखा। इन ‘अन्नदाताओं’ ने किसान परिवारों की बेटियों जोकि कानून व्यवस्था की अपनी ड्यूटी निभा रही थीं, उनके साथ क्या सलूक किया है? वह सरकार और भाजपा पर साजिश के आरोप लगाकर अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकते हैं। केंद्र सरकार और पुलिस बलों पर ओछे आरोप लगाकर वे ‘अन्नदाता’ के नाम पर कानून के शिकंजे से भाग नहीं सकते हैं। क्या यही अन्नदाता होता है, क्या यही उसका फर्ज होता है जिसकी किसान नेता दुहाई देते नहीं थकते हैं। उन्होंने ‘अन्नदाता’ और तिरंगा की आड़ में जो खेल खेला है, उसे देशवासी कभी माफ नहीं कर पाएंगे।

नए कृषि कानूनों को वापस करने की आड़ और अपने अधिकारों के नाम पर जिद्द और हठधर्मी पर अड़े ये किसान नेता हरियाणा और पंजाब के उद्योग-धंधों महीनों तक ठप कर हजारों करोड़ का नुकसान पहुंचा चुके हैं। पिछले दो महीने से भी अधिक समय से दिल्ली के बॉर्डर पर डटे इन नेताओं की ‘फौज ‘ ने अब आसपास के जीवन को उजाड़ना शुरू कर दिया है। इससे बॉर्डर के आसपास के लोगों में आक्रोश और उबाल बढ़ता ही रहा है। इसको लेकर उनकी किसानों से खूनी झड़प तक हो चुकी है। क्या यही अन्नदाता हैं, जो देश के लोगों का पेट भरने की बातें और दावे करते हैं? क्योंकि गणतंत्र दिवस पर देश की गरिमा-मर्यादा और तिरंगे की शान को देश-दुनिया में ठेस पहुंचाने वाले इन ‘किसान नेताओं’ को न तो शर्म आ रही है और न ही कोई पछतावा हो रहा है।

राष्ट्रीय पर्व पर 26 जनवरी को ट्रैक्टर परेड के बहाने देश की करोड़ों रुपये की संपत्ति को बर्बाद करने वाले ये किसान नेता इस मुद्दे पर बात करने से मुंह छिपाते हैं या फिर अपनी भौंहे चढ़ा लेते हैं। क्योंकि यह जान चुके हैं कि इस हकीकत में फंस जाएंगे और उनका मकसद खुल जाएगा। उन्होंने गणतंत्र दिवस पर केवल गण को ही ध्वस्त नहीं किया बल्कि तंत्र को भी तार-तार कर दिया। जय जवान, जय किसान और तिरंगा की शान की आड़ में उन्होंने भारत के सम्मान को रौंदने के साथ अपने स्वाभिमान को भी मिट्‌टी में मिला दिया।

इन किसानों नेताओं की ‘फौज’ ने सरकारी बसों, पुलिस की गाड़ियों, डिवाइडरों, उपकरणों को भारी क्षति पहुंचायी। यहां तक कि गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल झांकियों को भी अपना निशाना बनाया। लाल किले की प्राचीर पर पंथ का झंडा फहरा देना और धार्मिक नारेबाजी कर महजबी रंग देना, इनके मंसूबों और असलियत को खुद-ब-खुद बयां कर देता है। इसके बाद भी इन किसान नेताओं का यह कहना कि यह सरकार की साजिश है, यह कहते हुए इनकी आत्मा भी इन्हें नहीं धिक्कारती है! इस पर ये अपने को भोलाभाला किसान और अन्नदाता कह कर देश के लोगों की हमदर्दी बटोरना चाह रहे हैं। इन्हें अपने अधिकार तो बहुत अच्छे से पता हैं लेकिन जवानों, उनके परिवारों और देश के दूसरे लोगों के अधिकार नहीं पता हैं। ऐसे हैं ये ‘अन्नदाता’।

लेकिन कहते है कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती है। देश के लोगों को इन ‘किसान नेताओं’ की असलियत पता चल चुकी है और अब यह खेल अधिक समय तक चलने वाला नहीं है।

*लेखक रामानुज वरिष्ठ पत्रकार हैं

 

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