“कुदाल से कलम तक”: 78
जब संगम ने बुलाया : 33
“चंडीगढ़ घूमने की योजना बनाई…!”
वरिष्ठ पत्रकार रामधनी द्विवेदी
इंटरव्यू के बाद उनके पीआर का एक आदमी हम लोगों में जो बाहर से आए थे, उन्हें लंच के लिए अपने कैफ्टेरिया में ले गया जहां हम लोगों ने छोले भटूरे खाए। मैने और दिलीप शुक्ल ने दो दो भटूरे खाए और विनोद ने एक ही लिया। कैंटीन तो मैने इलाहाबाद में पत्रिका हाउस में भी देखी थी लेकिन ट्रिब्यून की कैंटीन के कहने ही क्या, साफ सुथरी और खाने-पीने के सामान से सजी हुई। देख कर भूख लग जाए। काफी स्टाफ वहां लंच कर रहा था। बगल में ही टेबल टेनिस की कोर्ट भी।
लंच के बाद हम लोग पास में ही अकाउंट विभाग गए जहां से हम लोगों को किराये के पैसे दिए गए। स्लीपर का किराया।बाहर से आए हम लोगों के नाम पहले ही वहां पहुंच गए थे। पहले क्लर्क ने मुझे अहमदाबाद का समझ ढाई सौ रुपये दे दिए। जब मैने बताया कि मैं इलाहाबाद से आया हूं तो उसने वापस ले कर डेढ़ सौ रुपये दिए। एक तरफ का स्लीपर का किराया 50 रुपये होता था। 50 रुपये अतिरिक्त खर्च के लिए मिले। कुछ का इंटरव्यू लंच के बाद भी था। हम लोगों ने वहां का संपादकीय विभाग देखा। चीफ सब और सब एडीटर की डेस्क अर्धचंद्राकार थी। बीच में चीफ सब और उनके सामने सब एडीटर बैठते थे। इससे लोग एक दूसरे के निकट होते और खबरों के लेन-देन और बातचीत में सुविधा होती। अभी तक मैने जितने भी अखबारों में काम किया था, वहां बैठने की व्यवस्था लंबी मेज पर होती जिसमें एक कोने चीफ सब और उसके आमने सामने सब एडीटर बैठते। अमृत प्रभात में जरूर तीन मेजों को जोड़ कर अंग्रेजी के एच अक्षर की तरह बना दिया गया था जिसमें बीच में चीफ सब बैठते। ट्रिब्यून की सब व्यवस्था बहुत ही सुव्यवस्थित थी। वहां की लाइब्रेरी का इंचार्ज वरिष्ठ पत्रकार होता था।
हम लोग जिनसे मिले वह सहायक संपादक स्तर के प्रौढ़ सज्जन थे। लाइब्रेरी में किताबों की कई आलमारी और अखबारेां की कटिंग के विभाग थे। अनेक अखबारों की पुरानी फाइलें लकड़ी के स्टैंड पर लटक रहीं थी। कुछ लोग बैठे पढ़ रहे थे। जिसे किसी विषय पर लिखना होता वह इंचार्ज को विषय बता कर दे देता और उसे विषय से संबंधित सामग्री मिल जाती। वहीं बैठिए और लेख पूरा कर लीजिए।
खैर, यह होते होते तीसरा पहर हो गया। वहां से खाली होकर हम लोगों ने चंडीगढ़ घूमने की योजना बनाई। एक रिक्शा वाला मिला जो यूपी के सुल्तानपुर का था। हम तीनो उसी पर सवार हुए और उसने हमें रॉक गार्डन, रोज गार्डन और सुखना झील घुमाया। दिलीप ने रिक्शे वाले से खूब चकल्लस की। कहा आज तुम्हारे डेरे पर रुकेंगे, तुम्हारे साथ खाना खाएंगे। बिचारा रिक्शा वाला पशोपेश में पड़ गया लेकिन बाद में उसका धर्मसंकट दूर कर दिया गया, यह कह कर कि अरे यार, हम लोग मजाक कर रहे थे।
शाम को हम लोग उस गेस्ट हाउस में आ गए जहां दिलीप और विनोद रुके थे। उसी के कमरे में हम तीनों रुके रात को। उसके मालिक सरदार जी थे, जिन्होंने बड़े मन से हम लोगों को खाना खिलाया और बताया कि रात को मौमस ठंडा हो जाता है। शिमला की हवा यहां पहुंच जाती है। दरअसल उनके पास कूलर नहीं थे और वह हम लोगों को हिम्मत बंधा रहे थे। सुबह जब चाय पीते समय हम लोगों ने बताया कि शिमला की हवा तो नहीं आई तो बोले कि लगता है कि रास्ते में किसी ने रोक लिया। दूसरे दिन हम लोग इंडियन एक्सप्रेस गए जो उन दिनों नया नया शुरू हुआ था और जनसत्ता भी निकालने की योजना बन रही थी या शायद निकल रहा था, ठीक से मुझे याद नहीं आ रहा इस समय।
हम लोग वहां इलाहाबाद के एक श्रीवास्तव जी से भी मिलने गए जिनका पता विनोद श्रीवास्तव के पास था। वह भी ट्रिब्यून में ही काम करते थे। उनसे बात कर अंदाज लगाया गया कि यदि वहां आना हुआ तो कैसा रहेगा। उनका कहना था कि यह शांत शहर है, पंजाबी असर होने के कारण तड़क- भड़क वाला, इसलिए कुछ महंगा है। एक कमरा किराये पर डेढ़ सौ में मिल जाएगा। परिवार लायक फ्लैट ढाई तीन सौ में। उनका कहना था कि ट्रिब्यून की कॉलोनी में लोगों को जल्दी जगह नहीं मिलती। लंबी वेटिंग चलती है। सीनियर को पहले स्थान मिलता है।
चंडीगढ़ उस समय क्या आज भी देश के सबसे नियोजित शहरों में हैं। हर सेक्टर अपने आप में एक पूरी इकाई है जिसमें स्कूल, अस्पताल, बैंक, पोस्ट आफिस और बाजार हैं। किसी काम के लिए आपको दूसरे सेक्टर या बाजार में जाने की जरूरत नहीं है। मकानों के दरवाजे सड़क की ओर न खुल कर सेक्टर के अंदर खुलते हैं जिससे सड़कों पर कोई अतिक्रमण, कार पार्किंग और आपा-धापी नहीं दिखती। आज भी कमोबेश वैसी ही स्थिति है। हरियाली से भरा शहर मन को सुकून देता है।
दूसरे दिन हम लोग दोपहर को दिल्ली के लिए बस से निकले। लक्जरी बस थी। उसमें सभी के हाथ में पंजाब केसरी था। हम लोगों ने दो दिन पंजाब केसरी देखा। जो लोग यूपी और दिल्ली के अखबार देखे और पढे हैं, उन्हें पंजाब केसरी जरा भी नहीं पसंद आएगा। पहला पेज उन दिनों उसका फीचर का हेाता था, बड़ी बड़ी फिल्मी अभिनेत्रियों की अर्धनग्न फोटो और इसी तरह के अटरम- पटरम से अखबार भरा था। हमने बस के कुछ यात्रियों से पूछा कि आप लोग यह अखबार क्यों पढ़ते हैं? उनका कहना था कि दूसरा कोई अखबार यहां हिंदी में है ही नहीं, इसलिए हमारी मजबूरी है, इसे पढ़ना।
लगता उन दिनों पंजाब केसरी परिवार के किसी का देहांत हुआ था और उनके संस्मरण संपादकीय के रूप में किस्तों में छप रहे थे। उस दिन नौंवी या दसवीं किस्त थी। यही देख कर ट्रिब्यून ने हिंदी में अखबार निकालने की सोची होगी। अंग्रेजी ट्रिब्यून तो पहले से ही जमा था और वहां का सबसे अच्छा अखबार माना जाता था। बाद में पता चला कि पंजाब के हिंदी भाषियों ने उसे हाथो़-हाथ ले लिया।
जब मेरे पास कोई सूचना नहीं आई तो मैने पद्मकांत त्रिपाठी को पत्र लिखा जिसके जवाब में उन्होंने बताया कि पहले दिन ही 80 हजार अंक छपे थे और एक भी फाइल में लगाने के लिए नहीं बचा। लेकिन बाद में ट्रिब्यून वह असर नहीं दिखा सका। कुछ साल पहले मैने उसे देखा तो वह 20 साल पहले का कोई अखबार लग रहा था। खबरों और फीचर के पन्नों में कोई नवोन्मेश नहीं दिखा जबकि पत्रकारिता में इस बीच बहुत बदलाव आया है। खबर के लिखने से लेकर उसकी साज सज्जा तक सबमें। वह बेमन से निकलता अखबार लगा। जागरण के फीचर संपादक संतोष तिवारी उसमें संपादक हो कर गए थे। इसी कारण अपनी लाइब्रेरी में कभी कभी उसे देख लेता था।
हम लोग बस से दिल्ली आए। वहां सदाशिव द्विवेदी रहते थे। वह आज कानपुर में हम लोगों के साथ थे। वहीं से दिल्ली आ गए थे और उन दिनों मैकमिलन में काम करते थे। शायद जवाहर नगर में रहते थे। उनका मकान एक कमरे का ही था लेकिन छत बड़ी थी और खुला-खुला था। उन्होंने बताया कि यह मकान पूरे साज समान के साथ किराये पर लिया, अर्थात बेड, सोफा, कूलर, पंखा आदि सब मकान मालिक का ही था। किराया भी उस समय अधिक नहीं डेढ सौ रुपये ही था।
वहां चाय पान के बाद हम लोग बस टाइम्स आफ इंडिया के बहादुर शाह जफर मार्ग स्थित कार्यालय आए। वहीं कई और अखबारों के दफ्तर थे। लेकिन हम लोग टाइम्स में ही गए। दिनमान का दफ्तर देखा। कुछ लोगों से मुलाकात हुई। दिन का समय था, इसलिए स्टाफ कम ही था। सबको लौटना भी था। वहां से गांधी शांति प्रतिष्ठान गए जहां अनुपम मिश्र और बनवारी से मुलाकात हुई। वहीं हल्का फुल्का लंच हुआ। फिर शाम को चार बजे के आसपास हम लोग नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पहुंचे। साधारण टिकट लिया गया तो पता चला कि प्लेटफार्म पर गोमती एक्सप्रेस खड़ी हैं। वह उन दिनों लखनऊ और दिल्ली के बीच की सबसे प्रमुख ट्रेन मानी जाती थी। उसमें जनरल कोच कम ही लगते थे। हम लोगों ने ट्रेन के पास खड़े टीटीई से बात की कि लेता चले, लखनऊ तक जो किराये का अंतर हो ले ले, लेकिन उसने साफ मना कर दिया। हम लोग एसी कोच के सामने खड़े थे। ट्रेन छूटने ही वाली थी। वहीं खड़े एक दूसरे टीटीई ने सलाह दी कि ज्यों ही ट्रेन चले आप लोग चढ़ जाइएगा। यह सुपरफास्ट ट्रेन है। बीच में कही रुकेगी नहीं सीधे कानपुर ही रुकती है। बीच में कोई आप लोगों को उतारेगा नहीं। वहां से आगे कोई समस्या नहीं आएगी।
हम लोगों ने वैसा ही किया। अंदर घुस गए और जब ट्रेन चली तो दो कोचों के बीच की जगह में अखबार बिछा कर बैठ गए।इसी तरह कई लोग बैठे थे। ट्रेन की रुफ्तार बहुत तेज थी। हम लोग फर्श पर बैठे हुए कानपुर पहुंच गए। दिलीप वहीं उतर गए, विनोद लखनऊ चले गए और मैं वहीं उतर कर बस से इलाहाबाद आ गया।