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“कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :28: “वीराने का बादशाह”

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

” वीराने का बादशाह ! 

गतांक से आगे…

उस दिन बहुत तेज आंधी आई थी। हम लोग गांव में ऐसी आंधी को लंगड़ी आंधी कहते। पश्चिमी आकाश में अंधेरा सा उठता और हाहाकार करता आंधी-तूफान आता। उसके गुजर जाने के बाद विनाश के अवशेष दिखते, किसी का छप्‍पर उड़ गया होता तो किसी का पेड़ गिर गया होता। अब पता चला कि उस तरह की आंधी राजस्‍थान के रेगिस्‍तान से उठती है और अपने साथ बालू-धूल सहित विनाश भी लाती। प्राय: ऐसी आंधियां शाम के समय आतीं। उस दिन भी शाम को ही आंधी आई थी और उसने हमारे सबसे चहेते आम के पेड़ का जीवन समाप्‍त कर दिया था। गांवों में हर आम के पेड़ का नाम होता था जो प्राय: उसके फल के रंग-आकार या स्‍वाद पर आ‍धारित होता लेकिन हमारे उस पेड़ का नाम का इनमें से किसी से संबंध नहीं था। हम लोग उस आम के पेड़ को सत्‍ती कह कर पुकारते। कहते हैं कि जहां वह अकेले खड़ा था, वहीं गांव की कोई महिला कभी बहुत पहले सती हो गई थी। उसी के नाम पर उसका नाम भी सत्‍ती पड़ा था। यह पता नहीं कि जब वह महिला सती हुई थी यह उसके पहले से था या बाद में इसे लगाया गया।

वह गांव के बाहर उत्‍तरी हिस्‍से में था और सैकड़ों बीघे के बीच अकेला था। जैसे घर के इकलौते बेटे की देख भाल होती है,उसी तरह उसकी भी हुई थी और जब हम लोगों ने उसे देखा तो वह अपने चौथेपन में था। गांव में कोई यह बताने वाला नहीं था कि उसकी उम्र कितनी थी। उसके फल मेरे दादा जी ने खाए, मेरे पिता जी ने खाए और अब हम लोग खा रहे थे। उसने हमारी तीन पीढ़ियों को तृप्त किया था। उसके पास ही में, लगभग 15-20 फुट की दूरी पर सत्‍ती माई का थान भी था, जहां गांव की महिलाएं बेटे की शादी होने के बाद मौर छुड़ाने या कोई मनौती पूरी होने के बाद पूजा करने आतीं। सत्‍ती माई के थान का कोई स्‍थायी आकार नहीं था, बस कुछ जंगली झाडि़यों के नीचे अनगढ़ पत्‍थर और कुछ ईंटें रखी रहतीं जिन पर सिंदूर लगा होता। ये पत्‍थर ध्‍यान से देखने में किसी मानवाकृति की तरह लगते। सत्‍ती माई किसी का अहित नहीं करतीं,सबका भला ही करतीं, इसलिए हम लोग उनके आसपास तक खेलते रहते।

हां तो मैं उस दिन आई लंगड़ी आंधी की बात कह रहा था। जब आंधी चली गई तो जहां सत्‍ती आम था, वहां का आकाश कुछ खुला सा दिखा और पता चला कि इस बार आंधी का कोप उसी पर हुआ। वह जड़ से उखड़ने के साथ ही आधे पर से फट सा गया था और पूरब की तरफ गिरा पड़ा था। उसके गिरते ही गांव के लोग उसकी ओर दौड़े। चूंकि उस साल आम के फल खूब आए थे, इसलिए अधिकतर लोग जमीन पर गिरे और डालों में लगे आम ही लूटने में लगे। कुछ लोग उसकी डालियां लेकर जाने लगे। कुछ ने अपनी बकरियों के लिए उसके पत्‍ते ही बटोर लिए। गांवों की यह परंपरा है कि आंधी में यदि कोई पेड़ गिर जाए तो वह सामूहिक संपत्ति हो जाता है और सब लोग उसके ले जाए जा सकने वाले भाग पर अपना हक जताने लगते हैं। थोड़ी ही देर में उसका मुख्‍य तना और मोटी डालें ही बचीं। कुछ दिन तक इसी तरह पड़े रहने के बाद बढ़ई और लकड़ी का धंधा करने वाले बचे हिस्‍से का दाम भी लगाने लगे। जब समझा गया कि इसका दाम अब इससे अधिक नहीं मिलेगा तब उसे पांच सौ में बेच दिया गया। मैं यह 60 के दशक के आखीर की बात कर रहा हूं। तब का पांच सौ आज के 50 हजार के आसपास तो होगा ही।

जब लंगड़ी आंधी में सत्‍ती आम गिर गया तो सत्‍ती माई के अस्तित्‍व पर भी संकट आ गया। सत्‍ती आम के आसपास कई लोगों के खेत थे लेकिन चकबंदी होने पर वह हमारे चक में ही आ गया था। उसकी अलग से मालीयत लगी थी। लेकिन जब वह गिर गया तो सत्‍ती माई किसके सहारे रहतीं। दोनों एक दूसरे से ही अस्तित्‍व में थे। सत्‍ती माई ने आम को अपना नाम दिया और आम ने उन्‍हें अपनी छाया और संरक्षण। उसके गिरने और बिक जाने के बाद जब खेत में फसल बोने का मौक आया तो सत्‍ती आम के नीचे की जमीन भी खेत में आ गई और हल चलाते समय सत्‍ती माई को बाधा डालते देख मेरे बड़े पिता ने उनके अनगढ़ आकार वाले पत्‍थरों को एक झौआ में भर कर खेत के डांड़ पर रखते हुए कहा- ल सत्‍ती माई अब इहां बइठा। उनके आसपास के जंगली पौधों को उखाड़ कर फेंक दिया गया। बाद में गांव के ही एक गुप्‍ता ने वहां इंटों का चौरा सा बना दिया। सत्‍ती माई जंगली पौधों के बीच से निकल कर पक्‍के चौरे में आ गईं और अब भी वहीं स्‍थापित हैं बिना सत्‍ती आम के ।

मुझे तो सत्‍ती आम की कहानी बतानी थी लेकिन बिना सत्‍ती माई की कथा के वह अधूरी ही रहती, इसलिए उनके बारे में यह बताना पड़ा।

जब से मैने होश संभाला और गर्मी की छुट्टियों में गांव जाता तो सत्‍ती आम के आसपास ही हमारी अधिक से अधिक गतिविधियां होतीं। सुबह भैंस चराने अपने पड़ोस के अन्‍य लोगों के साथ जाता तो वही उन्‍हें चरने के लिए छोड़ हम लोग पेड़ के आसपास छुपा छुपाई भी खेलते। सत्‍ती कोई सामान्‍य पेड़ नहीं था। उसके तने को अकवार में लेने के लिए चार लोगों की जरूरत पड़ती।उसकी खुरदुरी छाल हमारे लिए आकर्षण का कारण बनती।हम उसके पीछे ही छिप कर, उसके आसपास चक्‍कर लगाते हुए खेल पूरा कर लेते और फिर पोखरे में भैंसों को नहाने ले जाते। लौटते समय वहां रुकना नहीं होता क्योंकि पोखरे से निकलने के बाद भैंसों को दौड़ाते जुए हम लोग घर ले जाते।

सबसे आनंद दायक समय वह होता जिस साल सत्‍ती फलता। वह एक साल छोड़कर फल देता। देशी आमों के साथ ऐसा ही होता है। एक साल फलने के बाद दूसरे साल उसमें या तो फल आते ही नहीं या एक आध डाल में ही आते। लेकिन अगले साल वह सिर से पैर तक फलों से लदता। वह किस प्रजाति का आम था,यह हम लोग नहीं जानते लेकिन आज समझ में आता है वह बनारसी लंगड़े की प्रजाति का था। पता नहीं प्रकृति का हमसे संवाद करने का यह क्‍या तरीका है, मैने यह देखा है कि हर आम के पेड़ का आकार उसके फल के अनुसार ही होता है। जिसका फल लंबी आकृति का होगा, उसका पेड़ भी उसी तरह लंबा होगा, गोल फल वाले आम का पेड़ भी गोल आकृति का होगा। इसी को देखते हुए हमें आज लगता है कि वह लंगड़ा आम था। जब हम लोग अपने घर से देखते तो वह लंगड़े आम जैसी गोल आकृति का ही लगता। आज भी उसका स्‍वाद याद है जो लंगड़े आम की तरह ही लगता। लेकिन आज तो लंगड़ा आम चाकू से काट कर खाया जाता है, हम लोगों ने कभी उसे चाकू से काट कर नहीं खाया, छिलका पकड़ कर गूदे सहित निकाला और रसदार मीठे गूदे का स्‍वाद लेते। चाकू से आम काट कर खाने की सलीका हम लोग तब तक नहीं सीख पाए थे और न ही उसकी कभी जरूरत पड़ी।

सत्‍ती आम हमारे दो परिवारों के बीच साझे में था, लेकिन जिस साल वह फलता गांव क्‍या आसपास के गांव जवार के लोग भी उसका स्‍वाद लेने का सौभाग्‍य पाते। घर में काम करने वाले हलवाहे, मां को चूड़ी पहनाने वाली चुडिहारिन चाची, सब्‍जी लाने वाली कोइरिन चाची जो भी हमारे परिवार से जुड़ा होता वह उसको खाने का लाभ जरूर पाता। कभी-कभी तो चुडि़हारिन चाची कोई सामान देने के बदले पैसा न लेकर मेरी मां या बड़की मां से सत्‍ती आम ही मांगती- बहिन लड़कौ लोग खा लीहैं। उन्‍हें बिना गिने आम दिए जाते। दस-पंद्रह तो होते ही। कोई घर मिलने आता तो उसे बाल्‍टी में भीगे आम खाने को दिए जाते। गरज यह कि सत्‍ती अपने स्‍वाद को दूर-दूर तक बिखेरता। सत्‍ती आम को कभी हमने कच्‍चा नहीं खाया क्‍योंकि उस पर कोई चढ़ नहीं पाया कि उसे कच्‍चा तोड़ा जा सके। कहते हैं कि कच्‍चे का स्‍वाद बहुत खट्टा होता। यह खट्टापन पक कर चूने के बाद भी बना रहता। हम लोग पके आम को कई रूप में खाते। जिस दिन उसे बीन कर घर लाया जाता, उस दिन न खा कर दूसरे या तीसरे दिन खाने से वह और मीठा होता। लेकिन अधिक दिन रखने से उसकी मिठास इतनी बढ़ जाती कि सड़ने लगता। घर के जिस कमरे में उसे रखा जाता जाता, उसका नाम ही सत्‍ती वाला कमरा पड़ जाता। पूरा कमरा उसकी मिठास से महमह करता रहता।

सबसे अधिक मजा आता उसकी रखवाली करने और बीन कर घर लाने में। जब वह पक कर चूने लगता तो उसकी रात दिन रखवाली करनी होती। मैने उसकी दोनो रखवाली की है। चूंकि वह हमारे दो परिवारों के बीच का था तो दोनों परिवार के लोग उसकी रखवाली करते।दिन का जिम्‍मा बच्‍चों-बूढ़ों को दिया जाता और रात का बड़ों को। दिन में वह कम गिरता लेने रात मे तो जैसे बाढ़ आ जाती। पता नहीं वह कौन सी वानस्‍पतिक क्रिया होती कि वह रात में अधिक गिरता। गिरते समय वह अधिक पका नहीं होता दो दिन बात पूरा पकता। मैने रात की रखवाली खूब की है। उसके लिए अलग से तैयारी भी करनी होती। एक टार्च दो या तीन सेल वाली, एक लाठी अच्‍छी मजबूत और खाट तथा विस्‍तर तो होता ही। शाम को ही जब दिन की रखवाली करने वाले लौटते तो हम दोनों परिवारों के एक एक लोग सिर पर खाट और बिस्‍तर तथा हाथ में लाठी और टार्च लेकर रखवाली करने निकलते। गांव में रात का खाना जल्‍द ही खानेकी परंपरा है अमेरिका की तरह जो शाम होते ही खाना खाकर हम लोग निकल जाते।
तो तैयार हो कर हम लोग सत्‍ती के पास पहुंचते, खाट उससे दूर खेत मे साफ जगह बिछाई जाती और रात दस बजे तक पूरी तरह सोने के पहले कम से कम दो बार गिरे आम बीन कर दोनों खाटों के बीच में रखा जाता। ऐसा इसलिए कि सत्‍ती का फैलाव इतना अधिक था कि दूसरी ओर यदि कोई आम बीन ले जाए तो हम लोगों को पता ही नहीं चलता और ऐसा रोज होता। रात को चुपके से दूसरे के पेड़ से आम बीन लाना भी एक तरह की कला और दुस्‍साहस भी था और इसमें गांव के कई लोग माहिर भी थे। रोज ही किसी न किसी हिस्‍से से आम चुरा लिए जाते।

हम लोग रात में कई बार उठकर आम बीनते, टार्च की रौशनी फेंकते, जोर से खांसते जिससे आमचोर जान जाए कि हम जग रहे हैं लेकिन वे फिर भी सफल हो ही जाते। हम लोग इसे बहुत बुरा भी नहीं मानते। आमों पर सबका हक मानते हुए। सुबह होने पर आखीरी बार दिन की रौशनी में आम बीने जाते और उनका बंटवारा आध-आधा होता। आम तौल कर नहीं गिन कर बांटे जाते। पांच आम को एक गाही कहा जाता और इसी तरह पांच पांच आम का कूरा लगता और दोनों लोग अपना हिस्‍सा ले जाते। सत्‍ती 15 दिन तक लगातार पक कर गिरता। इसके बाद उसका गिरना कम हो जाता। जब लगातार दो दिन कम आम मिलते तो रात की रखवाली बंद कर दी जाती लेकिन सुबह तड़के ही पहुंच कर गिरे आम बीने जाते। यह एक हफ्ते चलता और सत्‍ती सबको तृप्‍त कर दो साल की तैयारी करने लगता।

सत्‍ती आम के पास कुछ लिसोढ़े की झाड़िया भी थीं। रात को उनमें से बिलों से सांप भी निकलते। एक बार तो ऐसा हुआ कि हम लोगों ने तीन दिन लगातार सांप मारे। रात को आम बीनने उठने की हिम्‍मत नहीं हुई। सिर्फ टार्च जलाकर और खांस कर ही रखवाली की गई। हमारी आजी और गांव की बड़ी बूढ़ियों ने कहा कि सत्‍ती माई नाराज हो गईं हैं। आजी मुझे बहुत मानती थीं इसलिए उन्होंने मेरे जाने पर रोक लगा दी। दो दिन बड़े पिता जी गए लेकिन फिर हमने जाना शुरु कर दिया। अब तो जब से सत्‍ती माई खेत के डांड़े पर आ गईं हैं, कभी ऐसा नहीं हुआ कि सांप निकलने की खबर मिली हो। सत्‍ती आम के साथ ही वे सब भी न जाने कहां बिला गए।

इस बार गर्मी में लंगड़ा आम बाजार में कम आया। दो-तीन किलो खरीदने के बाद भी किसी के हिस्‍से एक से अधिक नहीं आया। यह ऊंट के मुं‍ह में जीरे जैसा था। जिसने सत्‍ती का आम खाया है, उसको कहीं और तृप्‍ति मिल ही नहीं सकती।

क्रमशः 29

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