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“क्लिनिक पर अखबार का हमला”: कुदाल से कलम तक” : 66 : रामधनी द्विवेदी

“कुदाल से कलम तक”66
जब संगम ने बुलाया : 21

“क्लिनिक पर अखबार का हमला ..?”  

रामधनी द्विवेदी


….यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि मैने अपनी मां से कभी खाना नहीं मांगा। यह अलग बात है कि वह मेरे हर भाव को जानती थी, कब मुझे खाना चाहिए, मुझे क्‍या पसंद है, मैं क्‍या नहीं पसंद करता, मेरी भूख कितनी है। वह हर चीज का ख्‍याल रखती। मुझे याद है कि जब भी मैं घर पर रहा, कभी उसने मुझे बिना खिलाए, खाना नहीं खाया।

मेरी अलोपीबाग की क्‍लीनिक एक तरह से मेरा पीआर आफिस हो गया। दोपहर वहीं बीतती। मेरे वे मरीज जो घर आते थे, यहां आने लगे। क्‍योंकि मैने घर पर दवाएं रखना बंद कर दिया था। लेकिन धीरे- धीरे पास के मुहल्‍ले के लोग जानने लगे और वहां मेरी पकड़ ठीक होने लगी। कुछ परिवारों से तो निकटता हो गई। वे परिवार के लोगों का इलाज तो कराते ही, घरेलू मामलों में भी सलाह लेते। यह मेरे ऊपर उनके विश्‍वास के कारण था। कुछ परिवार तो नाश्‍ते आदि पर भी बुलाने लगे थे। शादी- बर्थ डे के निमंत्रण भी मिलने लगे थे। मैनें कुल दस साल वहां प्रैक्टिस की।

जब मैं नौकरी के कारण एक साल लखनऊ रहा तो 15 दिन पर इलाहाबाद जाता और उस दिन मरीज आ जाते क्‍योंकि उन्‍हें पता होता कि मैं आने वाले हूं। बीच में मेरा बेटा वहां बैठता और दवाएं प्राय: रिपीट कर देता ले‍किन बरेली जागरण ज्‍वाइन करने पर क्‍लीनक बंद कर देना पड़ा। पिछले बीस सालों से अधिक हो गए, नियमित प्रैक्टिस छोड़े हुए। काफी कुछ भूलने लगा हूं। सिर्फ नैश के रेड लाइन सिम्‍प्टम ही याद रह गए हैं। अनभ्यासे विषं शास्‍त्रं। फिर भी परिचितों को दवा देने की कोशिश करता हूं।

लेकिन यहां आने के बाद अपनी और परिवार की दवा के लिए डाक्‍टर योगेंद्र राय से सलाह लेता हूं, जिनसे चार साल पहले डा आरपी रस्‍तोगी होम्‍योपैथिक अनुसंधान केंद्र में परिचय हुआ था। वह इन दिनों राष्‍ट्रपति के चिकित्‍सक भी हैं। कभी कभी डा एसएम सिंह से भी सलाह लेता हूं।
अलोपीबाग की क्‍लीनिक मेरे गाढ़े दिनों में बहुत काम आई। जब अमृत प्रभात की पहली बंदी हुई तो यहां जाना शुरू ही किया था। इसलिए बहुत आय नहीं थी। लेकिन दूसरी बंदी में इसने बहुत मदद की। इससे बहुत आमदनी तो नहीं होती थी क्‍योंकि आधे से अधिक मेरे मित्र और परिचित ही होते और इन लोगों से क्‍या लेना? वैसे भी मेरे अंदर मांगने का स्‍वभाव नहीं रहा। इससे मेरा नुकसान भी हुआ। यह जानते हुए भी कि मेरा हक मारा जा रहा है, मैं मांग नहीं सकता। यह स्‍वभाव मेरा बचपन से है।

यह जानकर आश्‍चर्य होगा कि मैने अपनी मां से कभी खाना नहीं मांगा। यह अलग बात है कि वह मेरे हर भाव को जानती थी, कब मुझे खाना चाहिए, मुझे क्‍या पसंद है, मैं क्‍या नहीं पसंद करता, मेरी भूख कितनी है। वह हर चीज का ख्‍याल रखती। मुझे याद है कि जब भी मैं घर पर रहा, कभी उसने मुझे बिना खिलाए, खाना नहीं खाया। बहुत उम्र हो जाने और बीमार रहने पर मेरे बहुत आग्रह पर वह मेरे न खाने पर ही कुछ खा लिया करती थी।

मैं जब इलाहाबाद में था, एक बार मेरा हाथ उखड़ गया। मेरे दाहिने हाथ के कंधे के साथ ऐसा पहले हो जाया करता था। अस्‍पताल में उसे बैठा कर डेढ़ महीने के लिए प्‍लास्‍टर लगा दिया जाता। कोई बड़ी परेशानी नहीं थी। लेकिन जब गांव पर मां को इसकी सूचना मिली तो वह चचेरे भाई के साथ इलाहाबाद आ गई। गजब यह कि उसने दो दिन से कुछ खाया नहीं था। भाई ने बताया कि भैया इन्‍हें कुछ‍ खिलाइए। मैंने कहा कि अब देख लिया न, चलो कुछ खा लो। वह रोने लगी और जा कर कुछ नाश्‍ता किया। खैर, बात मांगने की हो रही थी।

मैंने अपने पिता से भी कभी कुछ नहीं मांगा। जो जरूरत होती, वह दे देते, न देने पर भी कभी नहीं मांगा। और किसी से मांगने जरूरत ही नहीं पड़ी। तो दवा लेने आए परिचितों से पैसे लेना तो और कठिन काम था। लेकिन पंजाबी कालोनी में मेरी पैठ बढ़ने से कुछ न कुछ मरीज जरूर आते जो भुगतान करते। मैंने जो रेट क्‍लीनिक शुरू करने के समय तय किया था, वहीं दस साल बाद भी था। दस रुपये में पांच दिन की दवा देता था। क्‍लीनिक से जो आमदनी होती, वह उसका किराया देने, दवा की व्‍यवस्‍था करने और कुछ घर के खर्चे के काम आती। छोटा ही सही सहारा तो थी। साथ ही मरीज ठीक हो जाने पर अलग किस्‍म का आत्मिक संतोष भी मिलता।

जब दूसरी बंदी के बाद अमृत प्रभात खुला तो मैं समाचार संपादक था। समय अधिक देना होता था। माथुर साहब (केबी माथुर) लखनऊ इन्‍कैन ग्रुप में चले गए थे। वह 1996 में गए और मैं उनके बाद फरवरी 1998 तक अमृत प्रभात में रहा।

दुर्लभ चित्र: अमृत प्रभात के प्रथम संपादक श्री सत्य नारायण जायसवाल जी के साथ कुछ साथियों का समूह फोटो

जिस दिन माथुर साहब लखनऊ गए, हम लोग उन्‍हें विदा करने उनके बंगले पर गए थे। सामान भेजने के बाद वह अपनी गाड़ी से लखनऊ रवाना हुए। जिन लोगों ने 1977 में अमृत प्रभात शुरू किया था, उस पहले बैच के लोगों में, मैं अकेला बचा था। अन्‍य लोग या तो लखनऊ चले गए थे और वहां से फिर दिल्‍ली। आरडी खरे और श्रीधर जी रिटायर हो गए थे। मुझे लगा कि मैं अब अकेला हो गया हूं। कुछ लोगों ने कहा भी कि अब इन्‍हें कौन संरक्षण देगा। और सचमुच हुआ भी ऐसा ही। विरोधियों ने तरकश कस लिए।

उन्‍हीं दिनों अखबारों में सुबह की मीटिंग की परंपरा शुरू हुई थी। एनआइपी और अमृत प्रभात में भी यह मीटिंग शुरू हुई। इसके पहले हम लोग फोन से ही रिपोर्टरों से संपर्क में रहते थे और उन्‍हें एसाइनमेंट और फालोअप का काम बताते। मीटिंग में महाप्रबंधक संतोष तिवारी, एसके दुबे, जेपी सिंह, सुनील विश्‍वास और दो एक रिपोर्टर ही रहते। सभी रिपोर्टर नहीं आते। इसका समय साढ़े दस बजे का होता और वही मेरी क्‍लीनिक का भी। सभी लोग यह जानते थे कि मैं क्‍लीनिक चलाता हूं।

पहला हमला एसके दुबे ने किया। वह कार्यकारी संपादक थे, पत्रिका के और समन्‍वयक थे, दोनों अखबारों के। उन्‍हेाने एक लंबा पत्र मुझे टाइप कराकर दिया जिसका आशय था कि आप भी मीटिंग में आया करें और क्‍लीनिक को समय कम दें। उन्‍हें मुझे मीटिंग में बुलाने का आशय कम, मेरी क्‍लीनिक पर हमला करना अधिक था।

मैंने उनके पत्र का जवाब भी दिया और मीटिंग में आने लगा। लेकिन इससे क्‍लीनिक प्रभावित हुई। मैं दस बजे क्‍लीनिक खोल कर चला जाता और बगल के लोगों को बता देता कि डेढ़ घंटे में आऊंगा। मैं आफिस पहुंचता, मीटिंग में शामिल होता और 12 बजे के आसपास फिर क्‍लीनिक पहुंचता। बाहर से आए मरीज चले जाते। बस, आसपास के ही लोग बाद में आते।

मीटिंग में कुछ नहीं होता। दो एक फालोअप की बात की जाती, दिल्‍ली के अखबारों से आइडिया लिया जाता, हा हा, हू हा होता और चाय पान के बाद मीटिंग खत्‍म हो जाती। उस समय दो बार बंदी के बाद भी कोई ठोस प्रतिद्वंद्वी अमृत प्रभात के सामने नहीं था।

जागरण बनारस से आता। बंदी का लाभ उसे मिला और पूरी मार्केट पर उसने कब्‍जा कर लिया लेकिन इलाहाबाद के लोग अमृत प्रभात के आगे उसे महत्‍व नहीं देते। वह लोगों की पसंद नहीं बन पाया था। जब भी वह दोबारा खुला, अमृत प्रभात को अपना पूरा प्रसार मिल जाता था। लेकिन बाद में फिर हालात गड़बड़ होने लगते और प्रसार पर असर पड़ने लगता। महीने में दो एक दिन किसी न किसी कारण से अखबार जरूर नहीं निकलता।

क्रमशः

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