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“कुदाल से कलम तक”: रामधनी द्विवेदी :26: “जब मौत के मुुंंह से निकला “

रामधनी द्विवेदी

आज जीवन के 71 वें वर्ष में जब कभी रुक कर थोड़ा पीछे की तरफ झांकता हूं तो सब कुछ सपना सा लगता है। सपना जो सोच कर नहीं देखा जाता। जिसमें आदमी कहां से शुरू हो कर कहां पहुंच जाता है? पता नहीं क्‍या-क्‍या घटित होता है? कभी उसमें कुछ दृश्‍य और लोग पहचाने से लगते हैं, तो कभी हम अनजाने लोक में भी विचरने लगते हैं। जगने पर असली दुनिया में आने पर जो देखें होते हैं,उसके सपना होने का बोध हेाता है। यदि सपना सुखद है तो मन को अच्‍छा लगता है, यदि दुखद है तो नींद में और जगने पर भी मन बोझिल जाता है। सुखद सपने बहुत दिनों तक याद रहते हैं, हम अपने अनुसार उनका विश्‍लेषण करते हैं और दुखद सपने कोई याद नहीं रखता, क्‍योंकि वह पीड़ा ही देते हैं। यही हमारी जिंदगी है। जब हम कभी रुक कर पीछे देखते हैं तो सुखद और दुखद दोनों बातें याद आती हैं। इनमें से किसी अपने को अलग भी नहीं किया जा सकता क्‍योंकि बिना ‘ दोनों ‘ के जिंदगी मुकम्‍मल भी तो नहीं होती। जिंदगी की धारा के ये दो किनारे हैं। बिना दोनों के साथ रहे जिंदगी अविरल नहीं होगी और उसमें थिराव आ जाएगा। तो मैं अपनी जिंदगी के दोनों पक्षों का सम्‍मान करते हुए उन्‍हें याद कर रहा हूं। जो अच्‍छा है, उसे भी और जो नहीं अच्‍छा है उसे भी, सुखद भी दुखद भी।  तो क्‍यों न अच्‍छे से शुरुआत हो। यह स्‍मृति में भी अधिक है और इसमें कहने को भी बहुत कुछ है। जो दुखद या अप्रिय है, वह भी कालक्रम में सामने आएगा। लेकिन मैं सबसे अनुनय करूंगा कि इसे मेरे जीवन के सहज घटनाक्रम की तरह ही देखें। मैं बहुत ही सामान्‍य परिवार से हूं, मूलत: किसान रहा है मेरा परिवार। आज भी गांव में मेरे इस किसानी के अवशेष हैं, अवशेष इसलिए कि अब पूरी तरह किसानी नहीं होती। पहले पिता जी अवकाश ग्रहण के बाद और अब छोटा भाई गांव पर इसे देखता है। खुद खेती न कर अधिया पर कराई जाती है लेकिन कागजात में हम काश्‍तकार हैं। उस गांव से उठकर जीवन के प्रवाह में बहते-बहते कहां से कहां आ गया, कभी सोचता हूं तो जैसा पहले लिखा सब सपना ही लगता है। कभी सोचा भी न था कि गांव के खुले माहौल में पैदा और बढ़ा-बड़ा हुआ मैं दिल्‍ली-एनसीआर में बंद दीवारों के बीच कैद हो जाऊंगा। लेकिन वह भी अच्‍छा था, यह भी अच्‍छा है। जीवन के ये दो बिल्‍कुल विपरीत ध्रुव हैं जो मुझे परिपूर्ण बनाते हैं। कुदाल के बीच शुरू हुई जिंदगी ने हाथों में कलम पकड़ा दी और अब वह भी छूट गई और लैपटॉप ने उसका स्‍थान ले लिया। कुदाल से शुरू और कलम तक पहुंची इस यात्रा के पड़ावों पर आप भी मेरे साथ रहें, जो मैने देखा, जिया, भोगा उसके सहभागी बनें।

रामधनी द्विवेदी

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और दैनिक जागरण समाचार पत्र की कोर टीम के सदस्य हैं।

” जब मौत के मुुंंह से निकला ! 

गतांक से आगे…

बीएससी ( 1969) करने के बाद मेरे जीवन का संघर्ष काल शुरू होता है। जब रिजल्‍ट निकल गया तो पिता जी ने कहा कि अब आगे नहीं पढा़ पाऊंगा। यह सुनना मेरे लिए वज्राघात से कम नहीं था। मेरी पढ़ाई पर बहुत पैसे खर्च नहीं होते थे। सिर्फ एडमीशन फीस की बात थी। एमएससी की फीस उन दिनों 185 रुपये थी। इसके बाद किताबों आदि पर कोई खास खर्च नहीं था। टीचर लोग परिचित हो ही गए थे। किसी तरह एमएससी भी हो जाता।

निशिनाथ ने डीबीएस से ही एमएससी किया था। वह भी सेकेंड डिविजनर था। बाद में लेक्‍चररशिप मिल ही गई। उन दिनों एमएससी करने के बाद नौकरी मिल ही जाती थी। लेकिन मैं क्‍या करता? पिता जी की भी अपनी समस्‍या थी। अकेले कमाने वाले थे। परिवार भी तब तक बड़ा हो गया था। हम तीन भाई, तीन बहने उस समय थीं। गांव वाले अलग से अपेक्षा करते थे। वेतन भी अधिक नहीं था। वह भी क्‍या करते। मैं मन मसोस कर रह गया। कहीं और से मदद की संभावना भी नहीं थी। मारकंडेय भैया की नौकरी लग गई थी लेकिन वह भी थोड़े दिन साथ रहकर अलग हो गए थे। मेरी पढा़ई रुकने से मेरे पट्टीदार वासुदेव भैया बहुत दुखी हुए। उन्‍होंने कहा कि मैं तुम्‍हारा पिता होता तो खेत बेच कर पढ़ाता। लेकिन खेत तो संयुक्‍त संपत्ति थे और वह कैसे बिकते।वासुदेव भैया पिता जी की उम्र के थे और दोनों को एक ही दिन नौकरी लगी थी और एक ही दिन रिटायर भी हुए थे। रिटायरमेंट के बाद उनका जीवन दो साल का ही रहा। उनसे पिता जी की पटती नहीं थीं।

मै डिप्रेशन में चला गया। गर्मी के बाद गांव चला गया। वहां खेती में सहयोग करने लगा। लोग हंसते भी। उस समय तक गांव में अपनी पट्टी में सबसे अधिक शिक्षित मैं ही था। अन्‍य लोग हाईस्‍कूल इंटर के बाद पढ़ना बंद कर दिए और कोई नौकरी तो कोई खेती में लग गया। मुंह पर तो कोई कुछ न कहता लेकिन पीठ पीछे लोग हंसते कि पढ़ लिख कर कुदाल चला रहा है। मुझे भी इससे पीड़ा होती लेकिन मैं खेती में मन लगाने लगा। वहीं एक बार तबीयत खराब हो गई। लगा कि ठंड लगी है। कुछ समझ में नहीं आया,बुखार था नहीं, सर्दी जुकाम भी नहीं था, बस हरारत बनी रहती। भूख प्‍यास नहीं लगती थी। मेरे पास पैसा भी नहीं था कि इलाज कराता। गांव पर संयुक्‍त परिवार था। बड़का बाबू मालिक थे लेकिन उनके पास भी पैसा कहां से आता। आखिर बड़की माई ने पांच रुपये दिए इलाज कराने के लिए। उस समय (अब भी) गांव में कोई क्‍वालीफाइड डाक्‍टर तो था नहीं। कुछ लोग थे जो किसी डाक्‍टर के यहां कंपाउंडरी करके डाक्‍टरी करने लगे थे। कुछ ठीक डाक्‍टर छविनाथ चौबे थे जो आयुर्वेद की डिग्री लिए थे लेकिन एलोपै‍थी की दवा देते। वह महंगे पड़ते और उधार भी नहीं करते। मैनू डाक्‍टर भी थे जो गांव गांव चक्‍क्‍र लगाते और उनके झोले में सब दवाएं और इंजेक्‍शन रहते। उनके बारे में था कि वह किसी अच्‍छे डाक्‍टर के यहां काम कर चुके थे।

एक डाक्‍टर का उन दिनों नाम हो रहा था। उसका नाम शारदा लाला था।दुबला पतला स्‍मार्ट सा। उसने मझगवां में दूकान खोली थी। मैं उसके पास गया। उसने देखा कहा गुरू आयुर्वेद का इंजेक्‍शन लगाता हूं, सब ठीक हो जाएगा। उसने पानी की तरह कोई एंपुल निकाला और इंजेक्‍शन लगाने के बाद दो तीन अलग अलग गोलियां दे दीं और तीन रुपये ले लिए। दो दिन बाद फिर गया,लेकिन कुछ आराम नहीं मिला।आखिरकार तय हुआ कि कानपुर चले जाओ। मैं कानपुर चला आया। कुछ आराम मिला।

एक बार मैं और चतुर्भुज यादव कुछ सामान लेने पांच नंबर गुमटी गए। वहां सामान खरीदने के बाद पिक्‍चर देखने की बात हुई। पैसा चतुर्भुज ने ही दिया। हाल में मेरा दम घुटने लगा। लगा कि सांस नही आ रही है। माथे पर पसीना भी आया। मैने चतुर्भुज से कहा कि तबीयत ठीक नहीं लग रही। हम लोग हाल के बाहर निकले और वहीं पास में भाटिया डाक्‍टर थे। उनके पास गए तो उन्‍होंने ब्‍लड प्रेशर जांचा और बताया कि वह बढ़ा हुआ है। पूछे क्‍या उम्र है, कहां रहते हो, क्‍या करते हो। एक छोटी सी गोली खिलाई और बोले की किसी डाक्‍टर को दिखा कर दवा करा लो। हम लोग बिना फिल्‍म देखे घर आ गए।
पिता जी ने सुना तो कहा डाक्‍टर झा को दिखा लो। डाक्‍टर झा काकादेव में पैक्टिस करते और पिता जी के परिचित थे। वहां गया और उन्‍होंने देखा और दवा दे दी। दो बार उनसे दवा ली। एक बार उन्‍होंने नई दवा लिखी। जहां तक मुझे उसका नाम याद है वह एस्‍केजीन था। वह एक मिग्रा की जगह जल्‍दी में 10 मिलिग्राम लिख गए। पहले वह एक्‍वीनाल आदि दवा दे ही रहे थे। अंग्रेजी दवाएं मेरी मौत का पैगाम हो गईं। मैने दो दिन ही एस्‍केजीन खाई थी। आंख के सामने सुबह कुछ चमकता सा दिखने लगा। नजर कहीं टिक नहीं पा रही थी। लेकिन मैने समझा कि तबीयत ठीक नहीं है, इसलिए ऐसा हो रहा है। देापहर को डाक्‍टर साहब को दिखाने गया। मैने उन्‍हें पर्ची दी और बताया कि आपने जो नई दवा लिखी है,वह सूट नहीं कर रही है। उन्‍होंने पर्ची देखी और बोले अरे मैंने तो 10 एमजी की दवा लिख दी है, एक एमजी होना चाहिए। दवा बंद कर दीजिए। मैने कहा सुबह नहीं खाई है।

खैर उनके यहां ये दवा लेकर मैं साइकिल से आर्मापुर के लिए चला। जब काकादेव के बाहर आया तो मुंह सूखता सा लगा। जाड़े के दिन थे। मैने सोचा कि प्‍यास लगी होगी। मैं चलता रहा। जब रावतुपर गांव में पहुंचा तो मुंह का सूखापन बढ़ गया और गला इतना सूख गया कि थूक निगलने में भी कठिनाई होने लगी। तब तक मैं रावतपुर के बाहरी हिस्‍से में आ गया था,जहां से आर्मापुर का रास्‍ता जाता था। वहीं डाक्‍टर झा के एक कंपाउंडर मिश्र जी ने दवाखाना खोल लिया था। मैंने उनके यहां साइकिल रोकी और अपनी हाल बताना चाहा तो जबान ही न काम करे। मैंने किसी तरह बताया कि डाक्‍टर झा के यहां ये दवा लेकर आ रहा हूं और गला मुंह सूख रहा है। मैं उनसे लिख कर बात कर रहा था। मेरी आंख उलटने लगी और चेहरा विकृत होने लगा।

यह सब दवा का ही असर था। मिश्र जी ने सोचा कि डिहाइड्रेशन हो गया है।उन्‍होंने एक बड़े एंपुल जैसी सीसी से ग्‍लूकोज चढ़ाने की कोशिश की और एक आदमी को डाक्‍टर झा के पास भेज दिया। सुनने पर वह रिक्‍शा करके आए। इस बीच मैने पास में ही रहने वाले महानंद भैया को बुला लिया। वह आए तो मुझे कुछ हिम्‍मत बंधी नहीं तो मैं समझ रहा था कि आज मेरा आखिरी दिन है। वह भी कुछ समझ नहीं पाए। जब डाक्‍टर झा आ गए तो मुझे हैलट में भर्ती कराने की बात हुई। मुझे रिक्‍शे पर बैठा कर डाक्‍टर झा हैलट अस्‍पताल ले गए। इस बीच देरी हेाते देख मां को चिंता हुई तो उसने कुछ लोगों को डाक्‍टर झा केयहां भेजा। तब तक मैं हैलट पहुंच गया था। पिता जी को भी फैक्‍ट्री में सूचना मिल गई थी। वह भी घर आए और अपने कई पड़ोसी भी हैलट अस्‍पताल पहुंचे। सबको देख कर हिम्‍मत बढ़ी। हैलट के इमर्जेंसी के डाक्‍टर कुछ समझ नहीं पा रहे थे। उन्होंने सोचा कि इसने कोई जहर खा लिया है। किसी ने कहा कि जबड़ा उखड़ गया है क्‍यों कि मेरा मुंह टेढ़ा हो गया था। मुंह में उंगली डाल कर बैठाने की कोशिश भी काम नहीं कर रही थी। डाक्‍टरों ने चेहरे का एक्‍सरे लिया और आपरेशन कर ठीक करने की कोशिश कर रहे थे। मैं ठीक से बोल नहीं पा रहा था।

मैंने बताने की कोशिश की कौन सी दवा खाई है और उसी का रिएक्‍शन है लेकिन वे समझ नहीं पा रहे थे। एक इंजेक्‍शन भी लगाया गया। मैं परेशान कि बिना वजह ही सब आपरेशन कर देंगे। इस बीच शाम के चार बज गए। अचानक मुझे लगा कि चेहरे का तनाव कम हो गया और मैं बोलने लगा। मैने कहा कि मैं ठीक हो गया हूं। डाक्‍टर आए देखा और बोले कि इंजेक्‍शन ने काम किया। वे अपनी वाह-वाही लेना चाहते थे। थोड़ी देर बाद फिर चेहरा अकड़ गया। मैंने समझा कि दवा का असर कम हो रहा है तो यह सब हो रहा है। जो ईएनटी के डाक्‍टर आपरेशन की तैयारी कर रहे थे,उन्हें बताया गया तो बोले ठीक है, डिस्‍चार्ज कर दो। और मैं आपरेशन से बच गया। सबके साथ घर आया। डाक्‍टरों ने बी काम्‍प्लेक्‍स जैसी कुछ दवाएं लिख दीं और चेहरे पर पट्टी बांध दी और कहा कि कस कर जंभाई न लेना। मेरे जबड़ों में दर्द हो रहा था। घर पहुंचने पर मां रोने लगी क्‍यों कि उसे कोई सूचना ही नहीं मिल रही थी। जो मुझे देखने जाता,वहीं रुक जाता। और इस तरह मैने अंग्रेजी दवा का रिएक्‍शन झेल लगभग मौत का सामना किया। गले में दर्द हो रहा था क्‍यों कि मिश्रा जी के यहां कई बार उल्‍टी की तरह हुआ और कुछ न निकलने पर मुंह से खून भी निकल गया था। तब से मैं अंग्रेजी दवा से डरने लगा और कानपुर के मशहूर होम्‍योपैथ डाक्‍टर जीएन टंडन से अपना इलाज कराया। उन्‍होंने थोड़ी दिन इलाज करने के बाद मुझसे कहा कि तुम्‍हें कोई बीमारी नहीं है। सिर्फ डिप्रेशन है। किसी एलोपैथ को मत दिखाना नहीं तो घर का लोटिया थरिया तक बिकवा देगा। सिर्फ काली फॉस 6 एक्‍स खाते रहो। यह दिल दिमाग को लोहा बना देता है। उन्होंने बताया कि वह खुद 20 साल से यह खाते हैं। तब से काली फास मेरे घर की जीवन दायी दवा बन गई और आज तक मेरे सेविंग बाक्‍स में और सिरहाने उसकी एक सीसी पड़ी रहती है।

मैं एलोपैथी दवा खाने से डरता हूं। जब तक मजबूरी न हो जाए। इलाहाबाद में तो कभी जरूरत ही नहीं पड़ी। शहर के सबसे बड़े होम्‍योपैथ डाक्‍टर एसएम सिंह मेरे मित्र हैं। उन्‍होंने कई तरह से मदद की है,इलाज तो किया ही है पूरे परिवार का। अन्‍य कई डाक्‍टरों से अच्‍छा परिचय था। कभी कोई गंभीर बीमारी हुई भी नहीं। एलोपैथी के डाक्‍टरों से भी अच्‍छा परिचय रहा है। मेरा अनुभव है कि यदि एलोपैथी के डाक्‍टर गंभीर और ध्‍यान देने वाले नहीं हैं तो केस खराब कर देते हैं। हाल में मैने अपनी बहू के इलाज के दौरान इसे खूब अनुभव किया। अपने छोटे भाई रामयश के इलाज के दौरान भी यही अनुभव रहा। इस पर अलग से विस्‍तार से लिखूंगा।

क्रमशः 27

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